सारा जीवन ही साधना बने !

February 1971

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रूढ़ अर्थों में साधना एक धार्मिक या आध्यात्मिक प्रक्रिया है, जिसकी विभिन्न धर्म-संप्रदायों में अलग-अलग मान्यतायें है। हिन्दू धर्म में यम, नियम, आसन और प्राणायाम को बहिरंग तथा प्रत्याहार, छारगा, ध्यान और समाधि को अन्तरंग साधना-सोपान के रूप में स्वीकार किया गया है। जैनागमों में अनशन, अनोदरता, (आहार सम्बन्धी नियम) भिक्षाचर्या, वृत्ति संकोच, रस-परित्याग, काय-क्लेश और निर्विकारता को बहिरंग साधना की तथा प्रायश्चित , विनय, सेवा-परिचर्या, स्वाध्याय, ध्यान एवं कार्योत्सर्ग को अन्तरंग अर्थात् तप संज्ञा दी गई है। बौद्ध धर्म में स्वपीड़न और परपीड़न विरहित तप को श्रेष्ठ माना गया है।

परन्तु साधना या तप कोई जड़ प्रक्रिया नहीं है, जिसको नियमोपनियम के शिकंजे में कस दिया जाय। यह एक गत्यात्मक प्रक्रिया है, जिसका अनुगमन बदलती हुई परिस्थितियों के साथ व्यावहारिक धरातल पर होना आवश्यक है।

साधना केवल धार्मिक कर्मकाण्ड सापेक्ष क्रिया मात्र नहीं है। उसको यह रूप देकर धर्माचार्यों ने मानव-मात्र को एक संकुचित दायरे में बंद कर दिया है। गृह त्यागी, विरक्त और संन्यासी महाप्राण मनीषियों के आचार आदर्श का मान बिन्दु ही स्थापित कर सकते हैं, परन्तु लोक धर्म का रूप नहीं ले सकते। आज धर्म के नाम पर नई पीढ़ी नाक- भौं सिकोड़ती है, उसका दोष किस पर है ? जो धर्म लौकिक जीवन के बदलते आश्रमों के साथ अपने को गत्यात्मक नहीं बनाये रख सकता, उसका स्थान शास्त्रों में सुरक्षित रहने योग्य है। बुद्धि -विलक्षण लोगों के तर्क-वितर्क का विषय बनने योग्य है पर जन-पथ पर उसका रथ अग्रसर नहीं हो सकता।

जन-समाज में अधिकाँश संख्या तो गृहस्थों की है और जो नामधारी साधु-संन्यासी है, उनमें से भी अधिकाँश प्रच्छन्न गृहस्थ ही है। फिर यम-नियम, आसन, प्राणायाम, ध्यान- धारणा समाधि की कठोर प्रक्रिया में से गुजरने की अपेक्षा किससे की जा रही है ?

साधना वेष में नहीं है। साधना क्रिया-कांडों में भी नहीं है। साधना दिखाने के लिये नहीं की जाती। साधना परंपराओं को चलाने के लिए भी नहीं की जाती। आज भारत में तथा कथित साधकों की भरमार है फिर भी साधकों और उनके संपर्क में रहने वाले व्यक्ति से ऐसा वातावरण तैयार नहीं हुआ है, जैसा कि एक साधना निष्ठ व्यक्ति के संपर्क और सहवास से होना चाहिए।

साधना वह होती है, जहाँ का वातावरण आनन्द और प्रेममय बन जाता है। साधना वह होती है, जहाँ ईमानदारी और प्रामाणिकता मूर्त बन जाती है। ऐसी साधना आंतरिक पवित्रता, विशुद्ध प्रेम भावना, स्वार्थ त्याग आदि सद्गुणों के पोषण और विकास से होगी। जिस दिन इस सहज प्रक्रिया से सहज जीवन विकसित होगा, उस दिन संसार का दूसरा रूप ही होगा। आवश्यकता है, साधना के नाम पर पलने वाले भ्रमों में न उलझकर व्यक्ति जीवन की प्रत्येक प्रवृत्ति को साधनामय बनावे फिर देखे उसका समाज और संसार पर क्या सुखद परिणाम होता है।

आज अपेक्षा है, उस साधना की, जिसका वर्णन संत कबीरदास के एक पद में किया गया है। ‘साधो सहज समाधि भली’ इस पद म कबीर ने नाम ‘समाधि’ का लिया है, पर वह एक सम्पूर्ण जीवन साधना का दर्शन है। उन्होंने सारा जीवन-दर्शन ही क्राँतिकारी ढंग से प्रस्तुत किया है। नित्य जीवन की सहज क्रियाओं को लेकर महात्मा कबीर ने यह व्यक्त करने का प्रयास किया है कि मनुष्य जीवन की सही दिशा और सच्ची साधना क्या है।

जीवन अनेक मुखी होता है और विकास के रास्ते भी अनगिनत है। मनुष्य सबको तो आत्मसात् कर नहीं पाता। अतः वह कोई एक मार्ग पकड़ता है और उसी के द्वारा अपने जीवन को उन्नत बनाना चाहता है। कोई भक्ति का मार्ग चुनता है। कोई कर्म मार्ग की ओर अग्रसर होता है और कोई ज्ञानयोग की तरफ उन्मुख होता है।

विश्व में अनेक धर्म-ग्रन्थ है और उनके अपने-अपने सिद्धान्त तथा तौर-तरीके है और वे सब इसलिए है कि उनके द्वारा स्वयं व्यक्ति का, समाज का और अन्ततः विश्व का कल्याण हो, दुःख मिटे। सदियों से सबकी अपनी-अपनी परम्पराएं चली आ रही है। श्रद्धा और आस्थापूर्वक लोग उन परंपराओं पर चलते आ रहे हैं, उनको जीवन में उतारने का प्रयत्न कर रहे हैं।

जिन महापुरुषों ने जीवन और जगत की रीति को अंतर्चक्षुओं से देखा, उन्होंने देश, काल, परिस्थितियों को ध्यान में रखकर युगानुरूप मार्ग निर्धारित किया और वही कालान्तर में धर्म बन गया। वही विशिष्ट साधना का पक्ष भी बन गया।

‘साधना’ शब्द अपने आप में कोई अर्थ नहीं रखता। हमने उसमें अपना अर्थ आरोपित कर दिया है, यह अलग बात है। लेकिन शुद्ध रूप में साधना शब्द अर्थ से परे है। अर्थ उसमें तब आता है जब कोई लक्ष्य, क्रिया प्रकट होती है। एक आध्यात्मिक सन्त की क्रिया भी साधना है और विज्ञान के क्षेत्र में अन्तरिक्ष यात्री की क्रियायें भी साधना है। एक माँ अपने बेटो के लिये, परिवार के लिए रसोई बनाती है- यह भी साधना है। इस साधना का मूल्य यों पता नहीं चलता, लेकिन जब कभी अनसधे हाथों को चौके-चूल्हे की शरण में जाना पड़ता है, तब पता चलता है कि यह कितनी बड़ी साधना है।

सब प्रकार की कलाओं की सिद्धि के लिए साधना करनी पड़ती है अर्थात् एकाग्रतापूर्वक अभ्यास करना पड़ता है। परस्पर-व्यवहार को सभ्य या समाज मान्य बनाने के लिए बचपन से ही संस्कारों की साधना करनी पड़ती है। प्रेम, उदारता, सेवा भावना आदि गुणों के लिए भी निरन्तर साधना करनी पड़ती है। व्यापार -व्यवसाय में भी ऐसी सैकड़ों बाते हैं जिनमें साधना की आवश्यकता होती है।

तो मतलब यह है कि साधना का कोई एक प्रकार या एक नियम नहीं है और वह प्रत्येक व्यक्ति के लिए अलग हो सकता है। गाँधी जी ने कहा था कि मेरा जीवन ही सत्य की साधना में बीत रहा है। उनकी हर प्रवृत्ति के पीछे सत्य का आग्रह रहा करता था। महात्मा कबीर ने अपने पद में यही बात कही है। उन्होंने जब देखा कि लोग अमुक क्रियाओं को ही साधना मानते हैं और उतना सा करके समझते हैं कि वे साधक बन गये। तो उन्होंने मशाल हाथ में लेकर साधना-मार्ग प्रकाशित किया। लोगों की आंखें खोलने का प्रयास किया कि हमारी वे सारी क्रियायें धर्म-क्रियायें है, साधनायें है जो हम सबेरे उठने से लेकर रात को सोने तक और निद्रा में भी करते हैं।

सच्चाई जीवन को उस सुदृढ़ शिला के समान बनाती है जिससे टकराने वाला टूट जाता है पर स्वयं अक्षुण्ण बनी रहती है। - विवेकानन्द

साधना को सिद्धि का रूप तभी प्राप्त होता है, जब वह साधना सहज हो जाती है। कबीर कहते है- मेरा चलना ही प्रभु की परिक्रमा है, मेरा कुछ भी करना सेवा ही है, मेरा सोना ही दण्डवत् है, जो कुछ बोलता हूँ वही जय है और खुली आंखों से जो कुछ देखता हूँ वही प्रभु का सुन्दर रूप है। इससे एक बात यह भी स्पष्ट होती है कि हमें अपने भक्तिगत, पारिवारिक एवं सामाजिक कर्त्तव्यों और उत्तरदायित्वों से कभी विमुख नहीं होना चाहिये और नित्य जीवन की समस्त क्रियाओं में उसी विराट् विभु की लीला का, विराट् विश्व की सेवा का रस प्राप्त करना चाहिये।

जीवन की साधना का सबसे बड़ा सम्बल हमारा कर्मरत और समाजगत आचरण है। समाज से छिटक कर विशेष परिवेश को धारण करने से हम अपनी कल्पना की मुक्ति भले ही प्राप्त कर ले, पर इससे हमारा तथा समाज का कोई वास्तविक लाभ नहीं होगा। बारह वर्ष तक साधना करके कोई व्यक्ति पानी पर चलने का अभ्यास करके चमत्कारी कहला सकता है, पर उसकी सिद्धि का कुल मूल्य रामकृष्ण परमहंस के शब्दों में केवल चार पैसा है, क्योंकि चार पैसे खर्च करके नौका में बैठकर कोई भी नदी पार कर सकता है। हमारी बहुत सारी साधनाओं के मूल में यही अल्पमोली बाते हैं जिनसे हमें मुक्त होना है, अपने को सहज साधक बनाना है।

आज आवश्यकता है उस साधना की जो हल की मूठ पकड़े किसान, मशीन का पहिया घुमाते श्रमिक, प्रयोगशाला में प्रयोगरत वैज्ञानिक, व्यापारी -व्यवसायी एवं कलम घिसते कर्मचारी की परस्पर भिन्न परिस्थितियों में अध्यात्म की दीप-शिखा प्रज्ज्वलित कर सके। आज साधना की ही नहीं, अध्यात्म तक की नई व्यवस्था के साथ उपस्थित होना है।

अतः यह खुद अच्छी तरह समझ लेने की चीज है कि साधना और अध्यात्म का परम्परा प्राप्त रूप आधुनिक जीवन के संदर्भ में निरुपयोगी बन गया है। इनकी पुराण प्रथिम परिभाषा में आज की पीढ़ी के लिए कोई आकर्षण नहीं है। आशंका यह है कि ‘साधना’ और अध्यात्म घिसे पिटे खोटे सिक्के की तरह कही अपना चलन ही न गवा बैठे।

जब कोई कृषक लू-धूप की परवाह किये बिना हल चलाता है, तब वह साधना ही तो करता है। जरूरत तो बस इतनी है कि उसके कर्म को आत्म-केन्द्रित न होने देकर लोक-मंगल के पवित्र भाव से सम्पुष्ट किया जाए, ताकि उसका वही कर्म ‘स्व’ के साथ ‘पर’ के लिए होकर उसमें भाव-शुद्धि की भावना भर दे और उसको आध्यात्मिक दीप्ति प्रदान कर दे। पसीना चुचुआते शरीर से मशीन के साथ जूझते श्रमिक का कर्म किस साधना से कम है ? उसे साधना का पवित्र पद देने के लिए उसके साथ लोकहित का भाव जोड़ दिया जाए, तो वही उसके लिए आध्यात्मिक धर्म बन जाएगा। व्यापारी के धृति-साध्य कर्म को यदि अनुचित मुनाफा कमाने के दूषण से मुक्त कर दिया जाये तो वही ‘स्व’ में ‘पर’ की साधना का पुनीत कर्म बन जायेगा। तात्पर्य यह है कि साधना कोई ऊपर से ओढ़ी जाने वाली, अपने और दूसरे को सम्बोधित करने वाली रामनामी चादर न बने, तो उसकी सहजता जीवन में व्यवहार्य हो सकेगी। यही उसके लिये सच्ची साधना होगी।

वैज्ञानिक तथा तकनीकी प्रगति को झुठलाया नहीं जा सकता। उनके द्वारा प्रदत्त सुविधाओं को भी नहीं त्यागा जा सकता और उसके कारण परिवर्तित जीवन-मूल्यों को भी नकारा नहीं जा सकता। साथ ही उसके आनुषंगिक दोषों से भी पल्ला नहीं झाड़ा जा सकता, तो फिर जो अपरिहार्य है, उसके साथ जूझकर अपनी शक्ति व्यर्थ गँवाने से क्या लाभ ? साधना और आध्यात्मिक उन्नयन के हमारे प्रयासों का उपादान तो आज का दिशाहारा, अशाँत, स्थापित जीवन- मूल्यों के प्रति अनास्थावान मानव है। हम उसी को समेटे, सहेंगे। उसे साधना और तप की नई दीक्षा दे, तभी तो कुछ काम बने। बाकी तो थोड़ी सिद्धान्त चर्चा ही होगी।


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