श्रेष्ठता का माप दण्ड

February 1971

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

आचार्य अश्वत्थ को महाराज देवरथ ने यज्ञ का ब्रह्म नियुक्त किया है, उन्हें आज ही आश्रम से प्रस्थान करना है समस्त विद्यार्थीगण प्रातः काल से ही चुप है। महर्षि के चले जाने पर वे सब स्नेह शून्यता सी अनुभव किया करते। आश्रम के प्रत्येक बालक पर उनका पितृतुल्य प्यार था इसीलिये छात्र उन्हें अपनी माँ के समान मानते और जब कभी उनका वियोग होता तो वे दुःखी हो जाते। मनुष्य की आंतरिक निर्मलता और स्नेह में कितनी शक्ति है जो औरों को भी सगा सम्बन्धी बना लेती है।

आचार्य अश्वत्थ चले गये। जब तक वे बाहर रहेंगे तब तक घर की सारी व्यवस्था वार्क्षी करेगा वे ऐसी व्यवस्था कर गये है- यह बात विद्यार्थियों को अच्छी नहीं लगी। वार्क्षी राजकुमार है इसलिये आचार्य प्रवर उसे अधिक महत्व देते हैं। यह बात सोचकर सभी छात्रों को क्षोभ उत्पन्न हुआ पर महर्षि उस बालक में कुछ और ही बात देखते थे जो अन्य किसी भी बालक में देखने को नहीं मिलती थी।

छात्रों ने अपना क्षोभ गुरुमाता के सम्मुख व्यक्त किया तो उन्होंने समझाया भी- तात! वार्क्षी राजकुमार है सही, वह वैभव विलासिता पूर्ण वातावरण में पला है यह भी ठीक है, तो भी उसकी चरित्रनिष्ठा सर्वोपरि है तात, कर्तव्य के आगे सौंदर्य आकर्षण भी उसे बाँध नहीं पाते, इस विशेषता के कारण वह महर्षि का प्रिय पात्र बन सका है।

आचार्य महिषी के इस कथन पर भी उन्हें संतोष नहीं हुआ उन्होंने निश्चय कर लिया इस बार जब महर्षि वापस आयेंगे तब वे अपनी बात उनके सम्मुख अवश्य प्रकट करके उचित निराकरण की माँग करेंगे।

जब यह प्रसंग चल रहा था वार्क्षी लकड़ियां लेने गया हुआ था। वार्क्षी का सुगठित शरीर और राज्यकुलों वाली आभा का आकर्षण पहले ही क्या कम था पर आज जब कि वह साधारण वेष में ही लकड़ियां लेकर लौटा तो परिश्रम से तृप्त मुखाकृति कुछ अधिक ही आकर्षक हो उठी थी। उसे देखते ही आचार्य अश्वत्थ की कन्या वेदवती का अन्तः करण आन्दोलित हो उठा। वे पहले ही वार्क्षी से प्यार करती थी पर आज तो उसे सर्वथा एकाकी पाकर उसकी काम वासना उद्दीप्त हो उठी। वह निः संकोच वार्क्षी के समीप आ गई और पूछने लगी- वार्क्षी- अच्छा यह तो बताओ वसन्त ऋतु आती है तो कलियाँ उमंग से क्यों भर जाती है, क्यों वे अपना परिमल पराग सारे वातावरण में बिखेरने लगती है।

वार्क्षी के एक बार वेदवती की आंखों में अपनी आंखें डाली आंखों में वारुणि पान की सी अरुणाई झाँक रही थी। वार्क्षी ने हंसकर कहा- भद्रे! संभव है कली यह सब भ्रमर को आकर्षित करने के लिए करती हो किन्तु मुझे तो ऐसा लगता है कली स्वयं नहीं हँसती उसमें साक्षात ब्रह्म का सौंदर्य उल्लसित होता है।

पर तुम मेरे अन्तः करण की बात क्यों नहीं समझते वार्क्षी! यह कहते कहते वेदवती वार्क्षी के बिलकुल समीप आ गई वार्क्षी की भुजायें अपने हाथ में लेना ही चाहती थी किन्तु वार्क्षी पीछे हट गये और वे वहाँ से चुपचाप अपने पर्ण कुटीर की ओर चल पड़े यौवन की उमंग, चरित्र के शान्ति - प्रवाह पर विजय नहीं पा सकी।

सामने खड़ी आचार्य महिषी सब देख रही थी। वार्क्षी की इस दृढ़ता पर मुग्ध हुये बिना रह न सकी। महर्षि वापस आये तो उन्होंने सारी बात बताई- महर्षि ने कहा- भद्रे! जो साँसारिक आकर्षण में भी अपने आपको बचाकर अपने कर्त्तव्य की रक्षा करता है वही महानता का अधिकारी होता है। उन्होंने वार्क्षी को दुर्लभ योग-साधना सिखाई, विद्याध्ययन के उपरान्त वेदवती का पाणिग्रहण भी वार्क्षी के साथ करा दिया।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118