प्रगति (?) के चरण आदिवासी जीवन की ओर

February 1971

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एक महिला को आपरेशन थियेटर में लाया गया। पेट का आपरेशन होना था । जो सर्जन आपरेशन करता है उसके सहयोगी डाक्टर और प्रशिक्षित नर्सें भी साथ रहती है। महिला के शरीर पर बहुत हल्का कपड़ा पड़ा था। उससे उसका वह उदर भाग साफ दिखाई दे रहा था जिसका आपरेशन होना था। डाक्टर और नर्सों ने एक दूसरे की ओर ताक कर आश्चर्य व्यक्त किया कि सर्जन साहब तो कह रहे थे पेट में गाँठ है गाँठ का आपरेशन होना है पर यह स्त्री गर्भवती है। कोई धोखा तो नहीं.............................।

उनमें से एक डाक्टर अपने आश्चर्य को रोक नहीं सका। उसने दबे शब्दों में पूछ ही लिया- साहब! आपरेशन से पहले रोगिणी की जाँच पूरी करली गई है ? इस पर विशेषज्ञ सर्जन साहब का चिढ़ना स्वाभाविक ही था। यह दुनिया ही ऐसी है कि इसमें हर ऐसे व्यक्ति को महत्व देना भी तहजीब का एक भाग है।

इन पंक्तियों में कोई काल्पनिक कहानी अथवा मन गढ़ंत घटना का विवरण नहीं दिया जा रहा वरन् इस कथन की सत्यता का एक ज्वलन्त प्रमाण प्रस्तुत किया जा रहा है कि औषधि और शोध के नाम पर स्वास्थ्य और आहार के प्रयोजन के लिये आज जो व्यापक रूप से जीव हिंसा और वैज्ञानिक प्रयोग चल रहे हैं वह मनुष्य को इतना निर्दयी और कठोर हृदय बना सकते हैं कि एक दिन मनुष्य मनुष्य को गाजर-मूली की तरह मारने और पचाने लग जाये। यदि यह स्थिति ऐसी ही चलती रही, जैविक औषधियों की माँग ऐसी ही होती रही, उसका मानवीय हल न खोजा गया तो मनुष्य ऊपर से विद्वान सभ्य और सुसंस्कृत दिखाई देने पर भी आदिवासियों की भाँति हिंसक बर्बर और क्रूर होता चला जाएगा।

यह घटना अमेरिका की है और यदि क्रूरता की आत्मा को धिक्कारने वाले डाक्टर नार्मन बारसली एम. डी. ने इस रहस्य को खोला न होता तो शायद संसार चौंकता भी नहीं और न ही उपरोक्त कथन की सत्यता की ओर उसका ध्यान जाता। उन्होंने ऐसे रहस्यों का उद्घाटन अपनी पुस्तक “मेडिकल चाँस एण्ड क्राइम” में किया है। जिस महिला का आपरेशन हो रहा था वह एक इटेलियन स्त्री थी। कुछ दिन पूर्व उसे गर्भपात हो गया था उसके बाद ही उसने दुबारा गर्भ धारण किया था पर उसे समझ नहीं पाई थी। गाँठ समझ कर उसने डाक्टर को दिखाया था उन दिनों वह सर्जन भ्रूण सम्बन्धी अन्वेषण में जुटे थे। इनाम और नामवरी का लोभ भी मनुष्य से कैसे कैसे पाप कराता है। ताजे भ्रूण के लिए सर्जन ने इसे अच्छा अवसर समझा और यह जानते हुए भी कि इस आपरेशन से महिला की मृत्यु हो जाएगी, उन्होंने अन्त तक गाँठ बताकर ही उसका आपरेशन किया।

सहयोगी डाक्टर को अपनी नौकरी से हाथ तो धोना नहीं था जो किसी तरह प्रतिवाद करता। कदाचित् वह विरोध करता भी तो और डॉक्टरों की तरह एक नई जानकारी में सम्मिलित होने की सफलता पर उसे गर्व होने का अवसर कहाँ मिलता। सर्जन ने सबके देखते-देखते पेट की गाँठ जिसमें बालक पनप रहा था काटा और एक थैले में भरकर बिना किसी को दिखाये कार में रखा और प्रयोग के लिए घर की प्रयोगशाला में ले गये। उस महिला ने चौथे पाँचवे दिन तड़प-तड़प कर अपने प्राण त्याग दिये।

अभी तक हम यही पढ़ते और सुनते आये है कि आज कल प्रयुक्त होने वाली औषधियों में रोगी मनुष्य के मल, मूत्र, रक्त , वमन, थूक तक का प्रयोग होता है। खटमल, खरगोश, चूहे, मेढक , बंदर, सुअर, गाय ,ऊँट, घोड़े आदि के शरीर काटकर सड़ाकर इंजेक्शन और औषधियां बनाने की बात अब पुरानी पड़ गई। अब तो दवाओं के ऊपर लिखा भी रहता है “स्वस्थ और खाने योग्य पशुओं की ग्रंथियों से निकाली गई औषधि। यही क्यों पुरुष और स्त्री की ग्रंथियों- डिम्बकोष, स्तन, पिचुट्री, थाइराइड थाइमस क्लोम, पीनियल ग्रंथियों से भी औषधियां बनने लगी। इन औषधियों में तुरन्त जन्मे बच्चे के ताडे को भी नहीं छोड़ा गया। अमेरिका की एक औषधि निर्माता फर्म जी, डब्लू कणिक कम्पनी ऐसी औषधियां बड़ी तेजी से बनाती चली आ रही है। जिसमें मनुष्य के पेट, हृदय, फेफड़े, यकृत, रीड़ के अंगों के साथ नसों का प्रयोग होता है। इन औषधियों के लिए एक दिन व्यापक रूप से नृशंस जन-मारक प्रयोग लेना पड़े, तो क्रूर और निर्दयी व्यक्ति तो अपने पुत्र और पुत्री की भी हत्या कर सकता है। जन साधारण को तो अपना चारा ऐसे ही मानेगा जैसे अफ्रीका और ब्राजील के कुछ इलाकों में आज भी कुछ नरभक्षी आदिवासी पाये जाते हैं। बोलीविया (ब्राजील) में कई पर्वत शृंखलायें ऐसी है जहाँ ऐसे आदिवासी पर्याप्त संख्या में पाये जाते हैं। विश्व प्रसिद्ध फ्राँसीसी पुरातत्व अन्वेषक कर्नल सेट और डॉ0 एरिक जैसे व्यक्तियों को भी यहां के आदिवासियों ने चट कर लिया था।

इस परिकल्पना की भयावहता तो तब अच्छी तरह समझ आयेगी जब ऐसी घटनायें जन-जीवन का अंग बन जायेगी। अभी भी स्थिति ऐसी नहीं है जिस पर चिन्ता न की जा सके। अखण्ड ज्योति के 3 पेज पढ़ने में जितना समय लगेगा उतने समय में मध्य संसार में कही न कही 25 हत्यायें हो चुकी होती है। प्रत्येक दिन हत्याओं का विश्व औसत 1440 है जो बहुत चिन्ताजनक है।

जीव -जंतुओं को काटने वाले मनुष्यों के प्रति दया भाव रख सकते हैं। यह कल्पना भी निराधार है। माँसाहार भी इसी कोटि का है। इसकी ओर ध्यान आकर्षित करने के लिये 1929 की पीटर कुरटेन की घटना यथेष्ट है। कुरटेन बहुत सभ्य और सुसंस्कृत माना जाता था। वह एक सम्पन्न व्यक्ति था। वृद्धावस्था तक वह सैकड़ों लकड़ियों को मार चुका था। इसी प्रकार एल्वर्ट फिश नामक अंग्रेज बच्चों को गाजर-मूली की काटकर फेंक ही नहीं देता था वरन् उन्हें पकाकर खा भी जाता था। जब उस पर मुकदमा चलाया गया तो वह स्वयं इस स्थिति में नहीं था कि वह बताता अब तक उसने कितने बच्चों को मारा है। कानपुर झाँसी वाले कनपटी मार बाबा भारतवर्ष में भी हो चुके है जो एक तेज अस्त्र से कनपटी के पास वार करके सैकड़ों निरीह के प्राण ले चुके थे। ऐसा वे शौकिया करते थे।

हत्यायें रुचि बने यह इसी बात की पुष्टि करती है कि मनुष्य में दया और करुणा मर रही है। दृश्य और कृत्यों से भावनायें बनती है यदि ऐसी भावनाओं का अभाव है तो उसमें एक मात्र दोष उन दृश्य और कर्मों का है जो जीव -हत्या, पशु-हत्या और माँसाहार के रूप में सामने आ रहा है। यदि इस स्थिति को आज न रोका गया तो कल हर पड़ोसी दूसरे पड़ोसी को मारकर खा जाने के चक्कर में रहने लगे तो कोई आश्चर्य नहीं होगा क्योंकि आज का मनुष्य लौट भी तो उसी आदिवासी जीवन की ओर रहा है।


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