अपनों से अपनी बात - हमारे जीवन की अदृश्य अनुभूतियां

February 1971

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अपनी अध्यात्म साधना की दो मंजिले 24 वर्ष में पूरी हुई। मातृवत् परदारेषु, परद्रव्येषु लोष्ठवत् आदर्शों में व्यतिक्रम प्रायः युवावस्था में ही होता है। काम और लोभ की प्रबलता के वही दिन है सो 15 वर्ष की आयु से लेकर 24 वर्षा से 40 तक पहुंचते पहुँचते वह उफान ढल गया। कामना, वासनायें, तृष्णा, महत्वाकांक्षायें प्रायः इसी आयु में आकाश पाताल के कुलावे मिलाती है। यह अवधि स्वाध्याय, मनन, चिन्तन से लेकर आत्म-संयम और जप ध्यान की साधना में लग गई। इसी आयु में बहुत मनोविकार प्रबल रहते हैं सो आमतौर से परमार्थ प्रयोजनों के लिए ढलती आयु के व्यक्तियों ही प्रयुक्त किया जाता है।

उठती उम्र के लोग अर्थव्यवस्था से लेकर सैन्य चालन तक अनेक महत्वपूर्ण कार्यों का उत्तरदायित्व अपने कंधों पर उठाते हैं और उन्हें उठाने चाहिये। महत्वाकाँक्षा की पूर्ति के लिए इन क्षेत्रों में बहुत अवसर रहता है। सेवा कार्य में योगदान भी नवयुवक बहुत दे सकते हैं लोक मंगल के लिए नेतृत्व करने की वह अवधि नहीं। शंकराचार्य, दयानन्द, विवेकानन्द, रामदास, मीरा, निवेदिता जैसे थोड़े ही अपवाद ऐसे है जिन्होंने उठती उम्र में ही लोक मंगल के नेतृत्व का भार कंधों पर सफलता से वहन किया हो। आमतौर से कच्ची उम्र गड़बड़ी ही जाती है। यश, पद की इच्छा, धन का प्रलोभन, आकर्षण के बने रहते जो सार्वजनिक क्षेत्र में प्रवेश करते हैं वे उलटी विकृति पैदा करते हैं। अच्छी संस्थाओं का भी सर्वनाश इसी स्तर के लोगों द्वारा होता है।

यों बुराई भलाई किसी आयु विशेष से बंधी नहीं रहती। पर प्रकृति की परम्परा कुछ ऐसी ही चली आती है जिसके कारण युवावस्था महत्वाकांक्षाओं की अवधि मानी गई है। ढलती उम्र के साथ -साथ सम्भवतः आदमी कुछ ढीला पड़ जाता है तब उसकी भौतिक लालसाएं भी ढीली पड़ जाती है। मरने की बात याद आने से लोक परलोक, धर्म कर्म भी रुचता है इसलिए तत्व वेत्ताओं ने वानप्रस्थ और संन्यास के लिए उपयुक्त समय आयु के उत्तरार्द्ध को ही माना है।

न जाने क्या रहस्य था कि हमें हमारे मार्ग दर्शक से उठती आयु में तपश्चर्या के कठोर प्रयोजन में उन्मुक्त कर दिया और देखते-देखते उसी प्रयास में 40 साल की उम्र पूरी हो गई। हो सकता है वर्चस्व और नेतृत्व के अहंकार का- महत्वाकांक्षाओं और प्रलोभनों में बह जाने का- खतरा समझा गया हो। हो सकता है आन्तरिक परिपक्वता - आत्मिक बलिष्ठता पाये बिना कुछ बड़ा काम न बन पड़ने की आशंका की गई हो। हो सकता है महान् कार्यों के लिए अत्यन्त आवश्यक संकल्पबल, धैर्य, साहस और संतुलन परखा गया हो। जो ही अपनी उठती आयु उस साधन क्रम में बीत गई जिसकी चर्चा पिछले अंक में कर चुके है।

उस अवधि में सब कुछ सामान्य चला, असामान्य एक ही था- हमारा गौ घृत से अहर्निश जलने वाला अखण्ड दीपक। पूजा की कोठरी में वह निरन्तर जलता रहता। इसका वैज्ञानिक या आध्यात्मिक रहस्य क्या था कुछ ठीक से कह नहीं सकते। गुरु सो गुरु, आदेश सो आदेश- अनुशासन सो अनुशासन समर्पण सो समर्पण। एक बार जब ठोक बजा लिया और समझ लिया कि इसकी नाव में बैठने पर डूबने का खतरा नहीं है तो फिर आँख मूँदकर बैठ ही गये। फौजी सैनिक को अनुशासन प्राणों से अधिक प्यारा होता है अपनी अन्धश्रद्धा कहिये अनुशासन प्रियता, या जीवन की जो दिशा निर्धारित कर दी गई, कार्य पद्धति जो बता दी गई उसे सर्वस्व मानकर पूरी निष्ठा और तत्परता के साथ करते चले गये। अखण्ड दीपक की साधना कक्ष में स्थापना भी इसी प्रक्रिया के अंतर्गत आती है। जो साधना हमें बताई गई उसमें अखण्ड दीपक का महत्व है इतना बता देने पर उसकी स्थापना कर ली गई और पूरी अवधि तक उसे ठीक तरह जलाये रखा गया। पीछे तो वह प्राण प्रिय ही बन गया। 24 वर्ष बीत जाने पर उसे बुझाया जा सकता था पर यह कल्पना भी ऐसी लगती है कि हमारा प्राण ही बुझ जायेगा सो उसे आजीवन चालू रखा जायेगा। हम अज्ञातवास गये थे- अब फिर जा रहे हैं तो उसे धर्म पत्नि संजोये रखेगी। यदि एकाकी रहे होते पत्नी न होती तो और कुछ साधना बन सकती थी अखण्ड दीपक संजोये रखना कठिन था। अखण्ड दीपक स्थापित करने वालो में से अनेकों के जलते बुझते रहते हैं, वे नाम मात्र के ही अखण्ड है। अपनी ज्योति अखण्ड बनी रही इसका कारण बाह्य सतर्कता नहीं अंतर्निष्ठा ही समझी जानी चाहिए जिसे अक्षुण्ण रखने में हमारी धर्म पत्नी ने असाधारण योगदान दिया है।

हो सकता है अखण्ड दीपक अखण्ड यज्ञ का स्वरूप हो। धूप बत्तियों का जलना, हवन सामग्री की- जप मंत्रों धारण की और दीपक घी होमे जाने की आवश्यकता पूरी करता हो और इस तरह अखण्ड हवन की कोई स्वसंचालित प्रक्रिया बन जाती हो। हो सकता है जल भरे कलश और ज्वलन्त अग्नि की स्थापना में कोई अग्नि जल का संयोग रेल इंजन जैसी भाप शक्ति का सूक्ष्म प्रयोजन पूरा करना हो। हो सकता है अंतर्ज्योति जगाने में इस ब्राहा ज्योति से कुछ सहायता मिलती हो, जो ही अपने को इस अखण्ड ज्योति में भावनात्मक प्रकाश, अनुपम आनन्द, उल्लास से भरा पूरा मिलता रहा। बाहर चौकी पर रखा हुआ यह दीपक कुछ दिन तो बाहर ही बाहर जलता दीखा, पीछे अनुभूति बदली और लगा कि हमारे अन्तःकरण में यही प्रकाश ज्योति ज्यों की त्यों जलती है और जिस प्रकार पूजा की कोठरी प्रकाश से आलोकित होती है वैसे ही अपना समस्त अन्तरंग इस ज्योति से ज्योर्तिमय हो रहा है। शरीर, मन और आत्मा में- स्थूल सूक्ष्म और कारण कलेवर में हम जिस ज्योतिर्मयता का ध्यान करते रहे हैं सम्भवतः वह इस अखण्ड दीपक की ही प्रतिक्रिया रही होगी। सर्वत्र प्रकाश का समुद्र लहलहा रहा है और हम तालाब की मछली की तरह उस ज्योति-सरोवर में क्रीडा-कलोल करते विचरण करते हैं। इन अनुभूतियों, आत्मबल, दिव्य दर्शन और अन्तः उल्लास को विकासमान बनाने में इतनी सहायता पहुँचाई जिसका कुछ उल्लेख नहीं किया जा सकता। हो सकता है यह कल्पना ही हो पर सोचते जरूर है कि यदि यह अखण्ड ज्योति जलाई न गई होती तो पूजा की कोठरी के धुँधलेपन की तरह शायद अन्तरंग भी धुँधला बना रहता। अब तो वह दीपक दीपावली के दीप पर्व की तरह अपनी नस-नाड़ियों में जगमगाता दीखता है। अपनी भाव भरी अनुभूतियों के प्रवाह में ही जब 32 वर्ष पूर्व यह पत्रिका प्रारम्भ की तो संसार का सर्वोत्तम नाम जो हमें प्रिय लगता था- पसन्द आता था “ अखण्ड ज्योति” रख दिया। हो सकता है उसी भावावेश में प्रतिष्ठापित पत्रिका का छोटा सा विग्रह संसार में मंगलमय प्रगति की प्रकाश किरणें बिखरने में समर्थ और सफल हो सका हो।

साधना के तीसरे चरण में प्रवेश करते हुए “आत्मवत् सर्व भूतेषु” की किरणें फूट पड़ी। मातृवत् परदारेषु और परद्रव्येषु लोष्ठवत् की साधना अपने काय कलेवर तक ही सीमित थी। दो आंखों में पाप आया तो तीसरी विवेक की आँख खोलकर उसे डरा भगा दिया। शरीर पर कड़े प्रतिबंध लगा दिये और वैसी परिस्थितियाँ बनने की जिनमें आशंका रहती है उनकी जड़ काट दी तो दुष्ट व्यवहार असंभव हो गया। मातृवत् परदारेषु की साधना बिना अड़चन के सध गई। शरीर ने सदा हमारा साथ दिया। मन ने जब हार स्वीकार कर ली तो वह हताश होकर हरकतों से बाज आ गया। पीछे तो वह अपना पूरा मित्र और सहयोगी बन गया। स्वेच्छा से गरीबी वरण कर लेने- आवश्यकताएं घटाकर अन्तिम बिन्दु तक ले जाने और संग्रह की भावना छोड़ने से ‘परद्रव्य’ का आकर्षण चला गया। बाँटने और देने का चस्का जिसे लग जाता है, जो उस अनुभूति का आनन्द लेने लगता है उसे संग्रह करते बन नहीं पड़ता। फिर किस प्रयोजन के लिए परद्रव्य का पाप कमाया जाय ? गरीबी का- सादगी का- अपरिग्रही ब्राह्मण जीवन अपने भीतर एक असाधारण आनन्द, संतोष और उल्लास भरा बैठा है, इसकी अनुभूति यदि लोगों को हो सकी होती तो शायद ही किसी का मन परद्रव्य की पाप पोटली सिर पर लादने को करता। अपरिग्रही कहने भर जो है उसका अनुदान देने की प्रतिक्रिया अन्तः करण पर कितनी अनोखी होती है उसे कोई कहाँ जानता है ? पर अपने को तो यह दिव्य अनुभूतियों का भण्डार अनायास ही हाथ लग गया।

अगले कदम बढ़ने पर तीसरी मंजिल आती है- ‘आत्मवत् सर्व भूतेषु।’ अपने समान सबको देखना। कहने सुनने में यह शब्द मामूली से लगते हैं और सामान्यतया नागरिक कर्त्तव्यों का पालन, शिष्टाचार, सद्व्यवहार की सीमा तक पहुँच कर बात पूरी हो गई दीखती है पर वस्तुतः इस तत्व ज्ञान की सीमा अति विस्तृत है उसकी परिधि वहाँ पहुँचती है जहाँ परमात्म सत्ता के साथ घुल जाने की स्थिति आ पहुँचती है। वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना का यही मूर्त रूप है कि हम हर किसी को अपना माने। अपने को दूसरों में और दूसरों को अपनों में पिरोया हुआ- घुला हुआ अनुभव करे। इस अनुभूति की प्रक्रिया यह होती है कि दूसरों के सुख में अपना सुख और दूसरों के दुःख में अपना दुःख अनुभव होने लगता है। ऐसा मनुष्य अपने तक सीमित नहीं रहता, स्वार्थी की परिधि में आबद्ध रहना उसके लिए कठिन हो जाता है। दूसरों का दुःख मिटाने और सुख बढ़ाने के प्रयास उसे बिलकुल ऐसे लगते हैं मानो यह सब अपने नितान्त व्यक्तिगत प्रयोजन के लिए किया जा रहा हो।

संसार में अगणित व्यक्ति पुण्यात्मा और सुखी है, सन्मार्ग पर चलते हुए और मानव जीवन को धन्य बनाते हुए अपना पराया कल्याण करते हैं यह देख सोचकर जी को बड़ी साँत्वना होती है और लगता है सचमुच यह दुनिया ईश्वर ने पवित्र उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बनाई है। यहाँ पुण्य और ज्ञान मौजूद है जिनका सहारा लेकर कोई भी आनन्द, उल्लास की- शान्ति और सन्तोष की दिव्य उपलब्धियाँ समुचित मात्रा में प्राप्त कर सकता है। पुण्यात्मा, परोपकारी और आत्मावलम्बी व्यक्तियों का अभाव यहां नहीं है। वे संख्या में कम भले ही हो पर अपना प्रकाश तो फैलाते ही है। धरती वीर- विहीन नहीं। यहाँ नर-नारायण का अस्तित्व विद्यमान है । परमात्मा कितना महान्, उदार और दिव्य हो सकता है इसका परिचय उसकी प्रतिकृति उन आत्माओं में देखी जा सकती है जिन्होंने श्रेय पथ का अवलम्बन किया और कांटों को तलुवों से रौंदते हुए लक्ष्य की ओर शान्ति, श्रद्धा एवं हिम्मत के साथ बढ़ते चले गये। मनुष्यता को गौरवान्वित करने वाले इन महामानवों का अस्तित्व ही इस जगती को इस योग्य बनाये हुये है कि भगवान बार-बार नर तनु धारण करके अवतार लेने के लिए ललचाये। आदर्शों की दुनिया में विचरण करने वाले और उत्कृष्टता की गतिविधियों को अवलम्बन बनाने वाले महामानव बहिरंग में अभावग्रस्त दीखते हुए भी अन्तरंग में कितने समृद्ध और सुखी रहते हैं यह देखकर अपना चित्त भी पुलकित होने लगा। उनकी शान्ति अपने अन्तः करण को छूने लगी। महाभारत की वह कथा अक्सर याद आती रही जिसमें पुण्यात्मा युधिष्ठिर के कुछ समय तक नरक जाने पर वहाँ रहने वाले प्राणी आनन्द में विभोर हो गये थे। लगता रहा जिन पुण्यात्माओं की स्मृति मात्र से अपने को संतोष और प्रकाश मिला वे स्वयं न जाने कितनी दिव्य अनुभूतियों का अनुभव करते होगे।

इस कुरूप दुनिया में जो कुछ सौंदर्य है वह इन पुण्यात्माओं का ही अनुदान है। असीम अस्थिरता से निरन्तर प्रेत पिशाचों जैसा हाहाकारी नृत्य करने वाले अणु परमाणुओं से बनी- भरी इस दुनिया में जो स्थिरता व शक्ति है वह इन पुण्यात्माओं द्वारा उत्पन्न की गई है। प्रलोभनों और आकर्षणों के जंजाल के बंधन काटकर जिनने सृष्टि को सुरभित और शोभामय बनाने की ठान ली उनकी श्रद्धा ही इस धरती को धन्य बनाती रही है। जिनके पुण्य प्रयास लोक-मंगल के लिए निरन्तर गतिशील रहे, इच्छा होती रही इन नर-नारायणों के दर्शन और स्मरण करके पुण्यफल पाया जाय। जिनने आत्मा को परमात्मा बना लिया- उन पुरुष पुरुषात्तमों में प्रत्यक्ष परमेश्वर की झाँकी करके लगता रहा अभी भी ईश्वर साकार रूप में इस पृथ्वी पर निवास करते विचरते दीखते पड़ते हैं। इन पुण्यात्माओं का सान्निध्य प्राप्त करने में स्वर्ग मुक्ति, सिद्धि आदि सबसे अधिक आनन्द पाया जा सकता है इस सच्चाई के अनुभवों ने हस्तामलकवत् स्वयं सिद्ध करके सामने रख दिया और कठिनाइयों से भरे जीवन क्रम के बीच इसी विश्व सौंदर्य का स्मरण कर उल्लसित रहा जा सका।

आत्मवत् सर्व भूतेषु की यह सुखोपलब्धि एकाँगी न रही, उनका दूसरा पक्ष भी सामने अड़ा खड़ा रहा। संसार में दुःख कम नहीं। कष्ट और क्लेश- शोक और सन्ताप- अभाव और दारिद्रय से अगणित व्यक्ति नारकीय यातनाएं भोग रहे हैं। समस्याएँ, चिंतायें और उलझने लोगों को खायी जा रही है। अन्याय और शोषण के कुचक्र में असंख्यों को बेतरह पिसना पड़ रहा है। दुर्बुद्धि ने सर्वत्र नारकीय वातावरण बना रखा है। अपराधों और पापों के दावानल में झुलसते, बिलखते, चीत्कार करते लोगों की नारकीय यातनाएं ऐसी है जिससे देखने , सुनने वालो के रोमाँच हो जाते हैं फिर जिन्हें वह सब सहना पड़ता है उनका तो कहना ही क्या ? सुख, सुविधाओं की साधन सामग्री इस संसार में कम नहीं है, फिर भी दुःख और दैन्य के अतिरिक्त कही कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता। एक दूसरे को स्नेह सद्भाव का सहारा देकर व्यथा वेदनाओं से छुटकारा दिला सकते थे- प्रगति और समृद्धि की संभावना प्रस्तुत कर सकते थे पर किया क्या जाय जब मनोभूमि विकृत हो गई सब कुछ उलटा सोचा और अनुचित किया जाने लगा तो विष वृक्ष बोकर अमृत फल पाने की आशा कैसे सफल होती ?

सर्वत्र फैला दुःख, दारिद्रय, शोक, संताप किस प्रकार समस्त मानव प्राणियों को कितना कष्ट हो रहा है। पतन और पाप के गर्त में लोग किस शान और तेजी से गिरते मरते चले जा रहे हैं यह दयनीय दृश्य देखे, सुने तो अन्तरात्मा रोने लगी। मनुष्य अपने ईश्वरीय अंग अस्तित्व को क्यों भूल गया ? उसने अपना स्वरूप और स्तर इतना क्यों गिरा दिया ? यह प्रश्न निरन्तर मन में उठे पर उत्तर कुछ न दिया। बुद्धिमानी, चतुरता, समझ कुछ भी तो यहाँ कम नहीं है। लोग एक से एक बढ़कर कला-कौशल उपस्थित करते हैं और एक से एक बढ़कर चातुर्य चमत्कार का परिचय देते हैं पर यह इतना क्यों समझ नहीं पाते कि दुष्टता और निकृष्टता का पल्ला पकड़ कर वे जो पाने की आशा करते हैं वह मृग तृष्णा ही बनकर रह जायेगा केवल पतन और संताप ही हाथ लगेगा। मानवीय बुद्धिमता में यदि एक और कड़ी जुड़ गई होती समझदारी ने इतना और निर्देश किया होता कि ईमान को साबित और सौजन्य को विकसित किये रहना मानवीय गौरव के अनुरूप और प्रगति के लिए आवश्यक है तो इस संसार की स्थिति कुछ दूसरी ही होती। फिर सब सुख-शान्ति का जीवन जी रहे होते। किसी को किसी पर अविश्वास, सन्देह न करना पड़ता और कोई किसी के द्वारा ठगा, सताया नहीं जाता। तब यहाँ दुःख, दारिद्रय का अता पता भी न मिलता सदैव सुख-शान्ति की सुरभि फैली अनुभव होती।

समझदार मनुष्य इतना नासमझ क्यों जो पाप का फल दुःख और पुण्य का फल सुख होता है इतनी मोटी बात को भी मानने के लिये तैयार नहीं होता। इतिहास और अनुभव का प्रत्येक अंकन अपने गर्भ में यह छिपाये बैठा था कि अनीति अपना कर- स्वार्थ संकीर्णता के आबद्ध रहकर हर किसी को पतन और संताप ही हाथ लगा है। प्रदत्त और निर्मल हुए बिना किसी ने भी शाँति नहीं पाई है। सम्मान और उत्कर्ष की सिद्धि किसी को भी आदर्शवादी रीति-नीति अपनाये बिना नहीं मिली है। कुटिलता सात पर्दे भेद कर भी अपनी पोल आप खोलती रहती है यह हम पग-पग पर देखते हैं फिर भी न जाने क्यों यही सोचते रहते हैं कि हम संसार की आंखों में धूल झोंक कर अपनी धूर्तता को छिपाये रहेंगे। कोई हमारी सुरभि संधियों की गन्ध न पा सकेगा और लुक छिपकर आँख मिचौनी का खेल सदा खेला जाता रहेगा यह सोचने वाले लोग यह क्यों भूल जाते हैं कि हजारों आंखों से देखने-हजारों कानों से सुनने और हजारों पकड़ से पकड़ने वाला विश्वात्मा- किसी की भी धूर्तता पर पर्दा नहीं पड़ा रहने देता। वस्तुस्थिति प्रकट होकर रहती है और दुष्टता छत पर चढ़कर अपनी कलई आप खोलती और दुरभि संधियां आप बखानती है। यह सनातन सत्य और पुरातन तथ्य लोग समझ सके होते और अशुभ का अवलंबन करने पर दुर्गति होती है उसे अनुभव कर सके होते तो क्यों सन्मार्ग का राजपथ छोड़कर कंटकाकीर्ण कुमार्ग पर भटकते ? और यों रोते बिलखते इस सुरदुर्लभ मानव जीवन को सड़ी हुई लाश की तरह ढोते, घसीटते।

दुर्बुद्धि का कैसा जाल जंजाल बिखरा पड़ा है और उससे कितने निरीह प्राणी- चीत्कार करते हुए फंसे जकड़े पड़े है, यह दयनीय दुर्दशा अपने लिए मर्मान्तक पीड़ा का कारण बन गई। आत्मवत् सर्व भूतेषु की साधना ने विश्व मानव की इस पीड़ा की अपनी पीड़ा बना दिया लगने लगा- मानो अपने ही हाथ पांवों को कोई ऐंठ, मरोड़ और जला रहा हो। “सबमें अपनी आत्मा पिरोया हुआ है और सब अपनी आत्मा में पिरोये हुए है” गीता का यज्ञ ज्ञान जहाँ तक पढ़ने सुनने से सम्बन्धित रहे वहाँ तक कुछ हर्ज नहीं, पर जब वह अनुभूति की भूमिका में उतरे और अन्तःकरण में प्रवेश प्राप्त करे तो स्थिति दूसरी ही हो जाती है। अपने अंग अवयवों का कष्ट अपने को जैसा व्यथित बेचैन करता है- अपने स्त्री, पुत्रों की पीड़ा जैसे अपना चित्त विचलित करती है ठीक वैसे ही आत्म-विस्तार की दिशा में बढ़ चलने पर लगता है कि विश्वव्यापी दुःख अपना ही दुःख है और व्यथित पीड़ितों की वेदना अपने को ही नोचती फटकारती है।

पीड़ित मानवता की- विश्वात्मा की- व्यक्ति और समाज की व्यथा वेदना अपने भीतर उठने और बेचैन करने लगी। आँख, दाढ़ और पेट के दर्द से बेचैन मनुष्य व्याकुल फिरता है कि किस प्रकार - किस उपाय से इस कष्ट से छुटकारा पाया जाय ? क्या किया जाय ? कहाँ जाया जाय ? की हलचल मन में उठती है और जो संभव है उसे करने के लिए क्षण भर का विलम्ब न करने की आतुरता व्यग्र होती है। अपना मन भी ठीक ऐसे ही बना रहा। दुर्घटना में हाथ पैर टूटे बच्चे को अस्पताल ले दौड़ने की आतुरता में माँ अपने बुखार जुकाम को भूल जाती है और बच्चे को संकट से बचाने के लिए बेचैन हो उठती है। लगभग अपनी मनोदशा ऐसी हो तब से लेकर अद्यावधि- चली आती है। अपने सुख साधन जुटाने की फुरसत किसे है ? विलासिता की सामग्री जहर सी लगती है, विनोद और आराम के साधन जुटाने की बात कभी सामने आई तो आत्म-ग्लानि से उस क्षुद्रता को धिक्कारा जो मरणासन्न रोगियों के प्राण बचा सकने में समर्थ पानी के एक गिलास को अपने पैर धोने की विडम्बना में बखेरने के लिए ललचाती है। भूख से तड़प कर प्राण त्यागने की स्थिति में पड़े हुए बालकों के मुख में जाने वाला ग्रास छीनकर माता कैसे अपना भरा पेट और भरे ? दर्द से कराहते बालक को मुँह मोड़कर पिता कैसे ताश शतरंज का साज सजाये ? ऐसा कोई निष्ठुर ही कर सकता है। आत्मवत् सर्व भूतेषु की सम्वेदना जैसे ही प्रखर हुई निष्ठुरता उसी में गल जल कर नष्ट हो गई। जी में केवल करुणा ही शेष रह गई। वही अब तक जीवन के इस अन्तिम अध्याय तक यथावत् बनी हुई है। उसमें कमी रत्ती भर भी नहीं हुई- वरन् दिन-दिन बढ़ोतरी ही होती गई।

सुना है कि आत्म-ज्ञानी सुखी रहते हैं और चैन की नींद सोते हैं। अपने लिए ऐसा आत्म-ज्ञान अभी तक दुर्लभ ही बना हुआ है। ऐसा आत्म-ज्ञान कभी मिल भी सकेगा या नहीं इसमें पूरा-पूरा संदेह है। जब तक व्यथा वेदना का अस्तित्व इस जगती में बना रहे, जब तक प्राणियों को क्लेश और कष्ट की आग में जलना पड़े, तब तक हमें भी चैन से बैठने की इच्छा न हो, जब भी प्रार्थना का समय आया तब भगवान से निवेदन यही किया। हमें चैन नहीं, वह करुणा चाहिए जो पीड़ितों की व्यथा को अपनी व्यथा समझने की अनुभूति करा सके, हमें समृद्धि नहीं वह शक्ति चाहिए जो आंखों के आँसू पोंछ सकने की अपनी सार्थकता सिद्ध कर सकें। बस इतना ही अनुदान भगवान से माँगा और लगा कि द्रौपदी को वस्त्र. देकर उसकी लज्जा बचाने वाले भगवान हमें करुणा की अनन्त संवेदनाओं से ओत-प्रोत करते चले जाते हैं। अपने को क्या कुछ कष्ट और अभाव है इसे सोचने की फुरसत ही कब मिली ? अपने को क्या सुख साधन चाहिए इसका ध्यान ही कब आया है। केवल पीड़ित मानवता की व्यथा वेदना ही रोम रोम में समाई रही और यही सोचते रहे कि अपने विश्वव्यापी कलेवर परिवार को सुखी बनाने के लिए क्या किया जा सकता है। जो पाया उसका एक -एक कण हमने उसी प्रयोजन के लिए खर्चा किया जिससे शोक संताप की व्यापकता हटाने और संतोष की साँस ले सकने की स्थिति उत्पन्न करने में थोड़ा योगदान मिल सके।

हमारी कितनी रातें सिसकती बीती है- कितनी बार हम बालकों की तरह बिलख-बिलख कर फूट-फूट कर रोये इसे कोई कहाँ जानता है ? लोग हमें संत, सिद्ध, ज्ञानी मानते हैं , कोई लेखक, विद्वान, वक्ता, नेता समझते हैं पर किसने हमारा अन्तःकरण खोल कर पढ़ा समझा है। कोई उसे देख सका होता तो उसे मानवीय व्यथा वेदना की अनुभूतियों से करुण कराह से हाहाकार करती एक उद्विग्न आत्मा भर इस हड्डियों के ढाँचे में बैठी बिलखती ही दिखाई पड़ती । कहाँ तथा कथित आत्म ज्ञान को निश्चिंतता निर्द्वंदता और कहाँ हमारी करुण कराहों से भरी अन्तरात्मा। दोनों में कोई तालमेल नहीं। सो जब कभी सोचा यही सोचा कि अभी वह ज्ञान हमसे बहुत दूर है। शायद वह कभी मिले ही नहीं क्योंकि इस दर्द में ही जब भगवान् की झाँकी होती है, पीड़ितों के आँसू पोंछने में ही जब कुछ चैन अनुभव होता है तो उस निष्क्रिय मोक्ष और समाधि को प्रयास करने के लिए कभी मन चलेगा ऐसा लगता नहीं जिसकी इच्छा ही नहीं वह मिला भी किसे है ?

पुण्य परोपकार की दृष्टि से कभी कुछ करते बन पड़ा ही सो याद नहीं आता। ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए कोई साधन बन पड़ा हो ऐसा स्मरण नहीं। आत्मवत् सर्व भूतेषु के आत्म-विस्तार ने सर्वत्र अपना ही आपा बिखरा दिखलाया तो वह मात्र दृष्टि दर्शन न रह गया। दूसरों की व्यथा वेदनायें भी अपनी बन गई और वे इतनी अधिक चुभन, कसक पैदा करती रही कि उन पर मरहम लगाने के अतिरिक्त और कुछ सूझा ही नहीं। पुण्य करता कौन ? परमार्थ के लिए फुरसत किसे थी ? विश्व मानव की तड़पन अपनी तड़पन बन रही थी सो पहले उसी से जूझना था, अन्य बाते तो ऐसी थी जिनके लिए अवकाश और अवसर की प्रतीक्षा की जा सकती थी। हमारे जीवन में क्रिया-कलापों के पीछे उसके प्रयोजन को कभी कोई ढूंढ़ना चाहे तो उसे इतना ही जान लेना पर्याप्त है कि संत और सज्जनों की सद्भावना और सत्प्रवृत्तियों का जितने क्षण स्मरण दर्शन होता रहा उतने समय चैन की साँस ली। लोक-मंगल, परमार्थ, सुधार, सेवा आदि के प्रयास कुछ यदि हमसे बन पड़े तो उस संदर्भ में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि यह हमारी विवशता भर थी। दर्द और जलन ने क्षण भर चैन से न बैठने दिया तो हम करते भी क्या ? जो दर्द से इठा जा रहा है वह हाथ , पैर न पटके तो क्या करे ? हमारे अब के समस्त प्रयत्नों को लोग कुछ भी नाम है, किसी रंग में रंगे, असलियत यह है कि विश्ववेदना की आन्तरिक अनुभूति ने करुणा और संवेदना का रूप धारण कर लिया और हम विश्ववेदना को आत्मवेदना मानकर उससे छुटकारा पाने के लिए बेचैन घायल की तरह प्रयत्न प्रयास करते रहे। भावनायें इतनी उग्र रही कि अपना आपा तो भूल ही गये। त्याग, संयम, सादगी, अपरिग्रह आदि को दृष्टि से कोई हमारे कार्यों पर नजर डाले तो उसे इतना भर समझ लेना चाहिए कि जिस ढांचे में अपना अन्तःकरण ढल गया उसमें यह नितान्त स्वाभाविक था। अपनी समृद्धि, प्रगति सुविधा, वाहवाही हमें नापसंद हो ऐसा कहा नहीं जा सकता। उन्हें हमने जान बूझ कर त्यागा हो सो बात नहीं है। वस्तुतः विश्व-मानव की व्यथा अपनी वेदना बन कर इस बुरी तरह अन्तःकरण पर छाई रही कि अपने बारे में कुछ सोचने करने की फुरसत ही न मिली, वह प्रसंग सर्वथा विस्मृत ही बना रहा। इस विस्मृति को कोई तपस्या संयम कहे तो उसकी मर्जी। पर जब स्वजनों को अपनी जीवन पुस्तिका के सभी उपयोगी पृष्ठ खोलकर पढ़ा रहे हैं तो वस्तु स्थिति बता देना ही उचित है।

हमारी उपासना और साधना साथ-साथ मिल कर चली है। परमात्मा को हमने इसलिए पुकारा कि वह प्रकाश बनकर आत्मा में प्रवेश करे और तुच्छता को महानता में बदल दे। उसकी शरण में इसलिए पहुँचे कि उस महत्ता में अपनी क्षुद्रता विलीन हो जाये। वरदान केवल यह माँगा कि हमें वह सहृदयता और विशालता मिले जिसके अनुसार अपने में सब को और सब को अपने में अनुभव किया जा सकना संभव हो सके। 24 महा गुरुचरणों का जप, ध्यान, तप, संयम सब इसी परिधि के इर्द-गिर्द घूमते रहे हैं।

अपनी साधनात्मक अनुभूतियों और उस मंजिल पर चलते हुए समक्ष आये उतार चढावों की चर्चा इसलिए कर रहे हैं कि यदि किसी को आत्मिक प्रगति की दिशा में चलने का प्रयत्न करना हो- और वर्तमान परिस्थितियों में रहने वालो के लिए यह कैसे संभव हो सकता है ? इसका प्रत्यक्ष उदाहरण ढूंढ़ना हो तो उसे हमारी जीवन यात्रा बहुत मार्ग-दर्शन कर सकती है। वस्तुतः हमने एक प्रयोगात्मक जीवन जिया है। आध्यात्मिक आदर्शों का व्यावहारिक जीवन में तालमेल बिठाते हुए आन्तरिक प्रगति के पथ पर कैसे चला जा सकता है- और उसमें बिना भटके कैसे सफलता पाई जा सकती है, हम इसी तथ्य की खोज करते रहे हैं ओर उसी के प्रयोग में अपनी चिन्तन प्रक्रिया और शारीरिक गतिविधि केन्द्रित करते रहे हैं। हमारे मार्गदर्शक का इस दिशा में पूरा-पूरा सहयोग रहा है सो अनावश्यक जाल-जंजालों में उलझे बिना सीधे रास्ते पर सही दिशा में चलते रहने की सरलता उपलब्ध होती रही है। उसी की चर्चा इन पंक्तियों में कर रहे हैं कि जिन्हें इस मार्ग पर चलने की और सुनिश्चित सफलता प्राप्त करने का प्रत्यक्ष उदाहरण ढूंढ़ने की आवश्यकता है उन्हें अनुकरण के लिए एक सामाजिक आधार मिल सके।

आत्मिक प्रगति के पथ पर एक सुनिश्चित एवं क्रमबद्ध योजना के अनुसार चलते हुए हमने एक सीमा तक अपनी मंजिल पूरी करली है और उतना आधार प्राप्त कर लिया है जिसके बल पर यह अनुभव किया जा सके कि परिश्रम निरर्थक नहीं गया- प्रयोग असफल नहीं रहा। क्या विभूतियाँ या उपलब्धियां प्राप्त हुई इसकी चर्चा हमारे मुंह शोभा नहीं देती। इसके जानने सुनने और खोजने का अवसर हमारे चले जाने के बाद ही आना चाहिए। उसके इतने अधिक प्रमाण बिखरे पड़े मिलेंगे कि किसी अविश्वासी को भी विश्वास करने के लिए विवश किया जा सकेगा कि न तो आत्म विद्या का विज्ञान गलत है और न उस मार्ग पर सही ढंग से चलने वाले के लिए सफलता प्राप्त करने में कठिनाई है। इस मार्ग पर चलने वाला आत्म-शान्ति, आन्तरिक शक्ति और दिव्य अनुभूति की परिधि में घूमने वाली अगणित उपलब्धियों से कैसे लाभान्वित हो सकता है इसका प्रमाण ढूंढ़ने के लिए भावी शोध कर्त्ताओं की हमारी जीवन प्रक्रिया बहुत ही सहायक सिद्ध होगी। समयानुसार ऐसे शोध कर्ता उन विशेषताओं और विभूतियों के अगणित प्रमाण प्रत्यक्ष प्रमाण ढूंढ़ निकालेंगे जो आत्मवादी प्रभु परायण जीवन में हमारी ही तरह हर किसी को उपलब्ध हो सकना संभव है।


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