समृद्धि-सूत्र

February 1971

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शुक और शुकी एक वृक्ष की डाल पर बैठे सुखपूर्वक विश्राम कर रहे थे। कोटर में उनके बच्चे सोये थे। प्रातःकाल होने में अभी कुछ देर थी। तभी शुकी ने जिज्ञासु स्वर में शुक से पूछा- स्वामी! भगवान् की इस सृष्टि में साधन और संपत्ति का कही भी अभाव नहीं है फिर भी कितने ही लोग दुःखी, साधनहीन और संकटग्रस्त क्यों है? मैं कुछ समझ नहीं पाती।

शुक एक दार्शनिक हँसी हँसा और यह कथा कहना प्रारम्भ की- साँझ होने को थी शुकी! तभी एक दंपत्ति अपने तीन बच्चों के साथ इधर से निकले देखने से लगता था कि ये लोग दिन भर के थके माँदे है, और चल सकने की उनमें हिम्मत नहीं थी। सभी रुक गये और इसी वृक्ष के नीचे डेरा डाल दिया। उन दिनों मैं भी बालक ही था, तुम्हारे साथ विवाह तो अभी हुआ है, मैं अकेला ही बैठा बड़े ध्यान से इन नवागंतुकों के क्रिया-कलाप देखने लगा।

बच्चे बोले पिताजी! भूख लग रही है खाने को दो नहीं तो प्राण निकलते हैं। माँ तो यह सुनकर चिन्तित हो उठी, पर पिता था उत्साही, उसने कहा-बच्चों! जाओ थोड़ी सूखी लकड़ियां काट लाओ अभी भोजन तैयार करते हैं। पिता की बात सुनते ही बड़ा लड़का उठ खड़ा हुआ बोला-मैं जाता हूँ अभी सूखी लकड़ियां काट लाता हूँ। अभी वह उठ नहीं पाया था कि दूसरा लड़का खड़ा होकर बोला- पिताजी लकड़ियां तो मैं ही लाऊँगा मुझसे चुपचाप बैठा नहीं जायेगा, तब तक तीसरा उठकर चल भी पड़ा वह कह रहा था - मैं छोटा हूँ लकड़ियां लाने का अधिकार तो मुझे ही है।

क्यों! आपको हँसी क्यों आई? शुकी ने पूछा तो शुक ने बताया- मैंने उनसे कहा- मूर्खों तुम्हारे पास न तो अन्न है और न शाक या फल लकड़ियां लाकर क्या अपने हाथ-पाँव पकाकर खाओगे? इन पर तीनों लड़कों ने मेरी ओर देखकर कहा- अपने हाथ-पाँव नहीं- ओरे! पक्षी हम तो तुम्हें खायेंगे। उनका यह निश्चय सुनकर मैं डर गया शुकी! और बोला भाई तुम लोग मुझे मत खाना। चलो मैं तुम्हें खजाना बताता हूँ तुम उसे खोद लो और अपने अभाव दूर करो। यह कह कर मैंने उन्हें गन्धसादन ले जाकर रत्नों का ढेर दिखाया जिसे पाकर वे सब बहुत खुश हुए और अपने घर चले गये।

इससे निष्कर्ष क्या निकला? शुकी ने प्रश्न किया तो पक्षी बोला- निष्कर्ष अभी कहाँ शुकी- यह लोग अपने घर गये तो पड़ोसियों को बड़ा आश्चर्य हुआ कि यह लोग इतने शीघ्र धनवान कैसे हो गये। लोगों ने पूछा तो उनने सारी बात बता दी। दूसरे ही दिन मैंने देखा कि इसी वृक्ष के नीचे वैसे एक और दंपत्ति भी आ टिके है।

उनके बच्चों ने भी खाना माँगा। पिता बोला- बच्चों जाओ और लकड़ियां ले आओ अभी भोजन तैयार करेंगे। लड़के आपस में झगड़ने लगे। स्वयं जाने को कोई तैयार नहीं था सब एक दूसरे को आज्ञा दे रहे थे। मैंने कहा- झगड़ो मत, लकड़ियां लाकर ही क्या करोगे- तुम्हारे पास रखा ही क्या है लकड़ियां ले भी आये तो खाओगे क्या? इस पर वे बनावटी स्वर में बोले- तुम्हें खायेंगे? मैं हँसा और बोला -मुझे खाने वाले तो पहले आये थे वे वह धन-दौलत भी ले गये तुम तो जैसे खाली हाथ आये वैसे ही खाली हाथ जाओगे। हुआ भी यही शुकी! वे बेचारे वैसे ही लौटे।

हँसते हुए शुक ने कहा- प्रिये अब कहो तो निष्कर्ष बताऊँ! नहीं स्वामी! शुकी बोली मैं समझ गई जिनके जीवन में क्रियाशीलता होती है, एकता और पौरुष में विश्वास होता है, लक्ष्मी उनका वरण अपने आप करती है।

अब तक उनके बच्चे भी जाग चुके थे और रात भी बीत चुकी थी पक्षी कोटर से निकले और चहचहाते हुए भोजन की तलाश में निकल पड़े।


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