प्रतिष्ठा पा गई मूर्ति मन्दिर में अमंगल की । कल्पना चीखती है , छटपटाती है मधुर फल की॥
हृदय का रक्त करे दान यह मन्दिर गढ़ा हमने, अनेकों शीश हँस-हँस कर दिये इस पर चढ़ा हमने,
गिरा गौरव युगों से था किया फिर से खड़ा हमने, कठिनता से किया था प्राप्त अमृत का घड़ा हमने,
सुधा का घट हमारे पास तक आ ही नहीं पाया- कि होने लग गई वर्षा प्रतीक्षा पर हलाहल की। प्रतिष्ठा पा गई है मूर्ति मन्दिर में अमंगल की॥
जहाँ देखो- वही पद के लिये पागल पिपासा है, घृणा, छल, द्वेष, हिंसा का भयंकरतम कुहासा है,
इन्हीं सबको समझ हमने लिया आधार जीवन का, न यह देखा कि है कितना बड़ा संसार जीवन का,
सुयश सौंदर्य मैला हो रहा है मान-सरवर का- उगलने लग गये है हंस के दल राशि कजल की। प्रतिष्ठा पा गई मूर्ति मन्दिर में अमंगल की॥
चलो! लौटो कुपथ से- सत्य पथ तुमको बुलाता है, कुपथ देता नहीं कुछ- स्त्रोत जीवन के सुखाता हे,
समय की घोषणा सुनकर जो अपना पथ बदलते है- वही उत्कर्ष के तरु फूलते हैं और फलते हैं,
फंसा है संकटों में राष्ट्र देखो! आँख मत मूँदो, चिरन्तन सत्य के सिर पर न लाठी मारिये छल की। प्रतिष्ठा पा गई मूर्ति मन्दिर में अमंगल की॥
*समाप्त*