प्राणि जगत की अतृप्त प्यास-प्रेम

February 1971

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सृष्टि का हर प्राणी हर जीव जन्तु स्वभाव में एक दूसरे से भिन्न है। कुछ अच्छे कुछ बुरे गुण सभी में पाये जाते हैं पर प्रेम के प्रति सद्भावना और प्रेम की प्यास से वंचित कोई भी एक जीव सृष्टि से दिखाई नहीं देता। मनुष्य जीवन का तो सम्पूर्ण सुख और स्वर्ग ही प्रेम है। प्रेम जैसी सत्ता को पाकर भी मनुष्य अपने को दीन हीन अनुभव करे तो यही मानना पड़ता है कि मनुष्य ने जीवन के यथार्थ अर्थ को जाना नहीं।

अमरीका के मध्य भाग में पायी जाने वाली एक छिपकली के सिर पर अनेक सींग होते हैं। यह माँसाहारी जन्तु क्रोध की स्थिति में होता है तो उसकी आंखों में रक्त उतर आता है, फिर वह शत्रु पर कैसा भी भयंकर आक्रमण करने से नहीं चूकती। इसका सारा जीवन ही चींटियों, गिराडो को मारने खाने में बीतता है पर अपनी प्रेयसी के प्रति उसकी करुणा भी देखते ही बनती है उसके लिये तो वह गिलहरी और खरगोश की तरह दीन बन जाती है।

बिच्छू बड़ा क्षुद्र जन्तु है किन्तु प्रेम की प्यास से मुक्त वह भी नहीं। वह अपने बच्चों से इतना प्यार करती है कि उन्हें जब तक वे पूर्ण समर्थ नहीं हो जाते अपनी पीठ पर चढ़ाये घूमती है। भालू खूँखार जानवर है, वह भूखा नहीं रह सकता पर जब कभी मादा भालू बच्चे देगी तो जब तक बच्चों की आंखें खुल नहीं जायेगी वह उनके पास ही बैठी भूख-प्यास भूलकर उन्हें चूमती चाटती रहेगी।

चींटियों के जीवन में भी सामान्यतः मजदूर चींटियों में कोई विलक्षणता नहीं होती, उनमें अपनी बुद्धि अपनी निज कोई इच्छा भी नहीं होती है , एक नियम व्यवस्था के अंतर्गत जीती रहती है तथापि प्रेम की आकाँक्षा उनमें भी होती है और वे अपने उस कोमल भाव को दबा नहीं सकती। इस अन्तरंग भाव की पूर्ति वे किसी और तरह से करती है। वह तितली के बच्चे से ही प्रेम करके अपनी आन्तरिक प्यास बुझाती है। यद्यपि यह सब एक प्राकृतिक प्रेरणा जैसा लगता है पर मूलभूत भावना का उभार स्पष्ट समझ में आता है। तितलियाँ फूलों का मधु चूसती रहती है उससे उनके जो बच्चे होते हैं उनकी देह भी मीठी होती है। माता-पिता के स्थूल शारीरिक गुण बच्चे पर आते हैं यह एक प्राकृतिक नियम है, तितली के नन्हे बच्चे, जिसे लार्वा कहते हैं, मजदूर चींटी सावधानी से उठा ले जाती है, उसके शरीर के मीठे वाले अंग को चाट-चाट कर चींटी अपने परिवार के लिये मधु एकत्र कर लेती है पर ऐसा करते हुये स्पष्ट -सा पता चलता है कि यह एक स्वार्थपूर्ण कार्य है। इससे नन्हे से लार्वे को कष्ट पहुँचता है इसलिये वह थोड़ी मिठास एकत्र कर लेने के तुरन्त बाद उस बच्चे को परिचर्या भवन में ले जाती है और उसकी तब तक सेवा सुश्रूषा करती रहती है जब तक लार्वा बढ़कर एक अच्छी तितली नहीं बन जाता। तितली बन जाने पर चींटी उसे हार्दिक स्वागत के साथ घर से विदा कर देती है। जीव शास्त्रियों के लिये चींटी और तितली की यह प्रगाढ़ मैत्री गूढ रहस्य बनी हुई है। उसकी मूल प्रेरणा अन्तरंग का वह प्यार ही है जिसके लिये आत्मायें जीवन-भर प्यासी इधर-उधर भटकती रहती है।

आस्ट्रेलिया में फैलेर्न्जस नामक गिलहरी की शक्ल का एक जीव पाया जाता है। उसे सुगर स्कवैरेल भी कहते हैं। यह एक लड़ाकू और उग्र स्वभाव वाला जीव है, तो भी उसकी अपने बच्चों और परिवारीय जनों के प्रति ममता देखते ही बनती है। वह जहाँ भी जाती है अपनी एक विशेष थैली में बच्चों को टिकाये रहती है और थोड़ी-थोड़ी देर में उन्हें चाटती और सहलाती रहा करती है मानो वह अपने अन्तःकरण की प्रेम भावनाओं के उद्वेग को संभाल सकने में असमर्थ हो जाती हो। जीव-जंतुओं का यह प्रेम-प्रदर्शन यद्यपि एक छोटी सीमा तक अपने बच्चों और कुटुम्ब तक सीमित रहता है तथापि इस बात का प्रमाण है कि प्रेम जीव मात्र की अन्तरंग आकाँक्षा है। मनुष्य अपने प्रेम की परिधि अधिक विस्तृत कर सकता है इसलिये कि वह अधिक संवेदनशील और कोमल भावनाओं वाला है।

जीवों का प्यार पूर्णतया संतुष्ट नहीं हो पाता इसलिये अपेक्षाकृत अधिक कठोर, स्वार्थी और खूँखार से जान पड़ते हैं पर इसमें संदेह नहीं कि उनके अन्तःकरण में छुपे प्रेमभाव से तादात्म्य किया जा सके तो उन हिंसक व मूर्ख जंतुओं में भी प्रकृति का अगाध सौंदर्य देखने को मिल सकता है। भगवान शिव सर्पों को गले में लटकाए रहते हैं, महर्षि रमण के आश्रम में अन्दर बन्दर मोर गिलहरी ही नहीं सर्प, भेड़िये आदि तक अपने पारिवारिक झगड़े तय कराने आया करते थे। सारा ‘अरुणाचलम्’ पर्वत उनका था और उसमें निवास करने वाले सभी जीव-जन्तु उनके बन्धु बान्धव, सुहद सखा पड़ोसी थे। स्वामी रामतीर्थ हिमालय में जहाँ रहते वहाँ शेर, चीते प्रायः उनके दर्शनों को आया करते और उनके समीप बैठकर घंटों विश्राम किया करते थे। यह उदाहरण इस बात के प्रमाण है कि हमारा भाव विस्तृत हो सके तो हम अपने को विराट् विश्व परिसर के सदस्य होने का गौरव प्राप्त कर एक ऐसी आनन्द निर्झरिणी में प्रवाहित होने का आनन्द लुट सकते हैं जिसके आगे संसार के सारे सुख-वैभव फीके पड़ जाये।

600 वर्ष पूर्व की घटना है। रोम में एक महिला अपने बच्चे से खेल रही थी। वह कभी उसे कपड़े पहनाती कभी दूध पिलाती, इधर उधर के काम करके फिर बच्चे के पास आकर उसे चूमती चाटती और अपने काम में चली जाती। प्रेम भावनाओं से जीवन की थकान मिटती है। लगता है अपने काम की थकावट दूर करने के लिए उसे बार-बार बच्चे से प्यार जताना आवश्यक हो जाता था। घर के सामने एक ऊँचा टावर था उसमें बैठा हुआ बन्दर बड़ी देर से बड़े ध्यान से देख रहा था। स्त्री जैसे ही कुछ क्षण के लिए अलग हुई कि बन्दर लपका और बच्चे को उठा ले गया। लोगों ने भागदौड़ मचायी तब तक बंदर सावधानी के साथ बच्चे को लेकर उसी टावर पर चढ़ गया।

जैसे-जैसे उसने माँ को बच्चे से प्यार करते देखा था स्वयं भी बच्चे के साथ वैसा ही व्यवहार करने लगा। कभी उसे चूमता चाटता और कभी उसके कपड़े उतार कर फिर से पहनाता। इधर वह अपनी प्रेम की प्यास बुझा रहा था उधर उसकी माँ और घर वाले तड़प रहे थे, बिलख बिलख कर रो रहे थे। बच्चे की माँ तो एकटक उसी टावर की ओर देखती हुई बुरी तरह चीख कर रो रही थी।

बंदर ने यह सब देखा। संभवतः उसने सारी स्थिति भी समझ ली इसीलिये वह एक हाथ से बच्चे को छाती से चिपका लिया शेष तीन हाथ-पांवों की मदद से वह बड़ी सावधानी से नीचे उतरा और बिना किसी भय अथवा संकोच के उस स्त्री के पास तक गया और बच्चे को उसके हाथ में सौंप दिया। यह कौतुक लोग स्तब्ध खड़े देख रहे थे और देख रहे थे एक कटु सत्य, किस तरह बंदर जैसा चंचल प्राणी प्रेम के प्रति इतना गंभीर और आस्थावान हो सकता है। माँ के हाथ में बच्चा पहुंचा सब लोग देखने लगे उसे कही कोई चोट तो नहीं आई। इस बीच बंदर वहाँ से कहाँ गया, किधर चला गया यह आज तक किसी ने नहीं जाना।

पीछे जब लोगों का ध्यान उधर गया तो सबने यह माना कि बंदर या तो कोई दैवी शक्ति थी जो प्रेम की वात्सल्य महत्ता दर्शाने आयी थी अथवा वह प्रेम से बिछुड़ी हुई कोई आत्मा थी जो प्यास को क्षणिक तृप्ति देने आई थी। उस बंदर की याद में एक अखण्ड-दीप जला कर उसी टावर में रखा गया। इस टावर का नाम भी उसकी याद में (मंकी टावर) रखा गया। कहते हैं 600 वर्ष हुये यह दीपक आज भी जल रहा है। दीपक के 600 वर्ष से चमत्कारिक रूप से जलते रहने में कितनी सत्यता है, हम नहीं जानते पर यह सत्य है कि बंदर के अन्तःकरण में बच्चे के प्रति प्रसृत प्यार का प्रकाश जब तक यह टावर खड़ा रहेगा, लाखों लोगों का मानव जीवन की इस परम उदात्त ईश्वरीय प्रेरणा की ओर ध्यान आकर्षित करता रहेगा।

प्रेम ही जीवन का सच्चा यज्ञ है। जिसका प्रकाश, जिसकी ऊष्मा कभी मंद नहीं पड़ती वह मनुष्य को परमात्मा से मिला देने का भाव है। इसीलिये परमेष्ठी ब्रह्म जी ने उसे जीवन का अन्यत्म यज्ञ कहा है।


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