संत की सिखावन

February 1971

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कई दिन के परिश्रम के बाद वे एक साड़ी बुन पाये थे। सोच रहे थे कि वह बिक जावे तो उदर पोषण की आवश्यकताओं की पूर्ति की जावे, बात महात्मा तिरुवल्लुवर के जीवन की है वे जन्म से जुलाहे थे। लोक सेवी संत होकर भी उन्होंने अपनी आजीविका अपने परिश्रम से कमाने का व्रत आजीवन निभाया, वे इसे ईश्वर उपासना का ही एक अंग मानते थे, अपनी वैयक्तिक समस्याओं के लिए उन्होंने कभी भी पराश्रय नहीं लिया।

सन्त अपनी धैर्यशीलता और क्षमा के लिए विख्यात थे। गाँव का एक युवक इसे ढोंग कहता था हमेशा उनकी परीक्षा लेने की बात सोचा करता था। दैव योग से वे साड़ी लेकर बेचने बैठे ही थे कि वह युवक वहाँ आ पहुंचा। उसने साड़ी का मोल पूछा तो सन्त ने विनम्र वाणी में उत्तर दिया सामान और मजदूरी दोनों मिलकर साड़ी का मूल्य कुल दो रुपये होता है।

युवक ने साड़ी हाथ में ली और बीच से बराबर दो टुकड़ों में फाड़ दिया और पूछा- इन दो टुकड़ों में से अलग-अलग एक के कितने दाम होंगे। संत ने उसी निश्छलता से उत्तर दिया- एक - एक रुपया। फाड़े गये दो टुकड़ों में से एक के फिर दो टुकड़े करते हुए युवक ने पूछा अब इन टुकड़ों की कीमत कितनी होगी तो संत ने बिना अप्रसन्न हुए उत्तर दिया आठ आने। अब तक वह युवक उस टुकड़े के भी दो टुकड़े कर चुका था। अब उसने पूछा- अब इन टुकड़ों के कितने पैसे लोगे तो तिरुवल्लुवर ने धीर गंभीरता के साथ उत्तर दिया चार आने।

युवक साड़ी के टुकड़े पर टुकड़े करता गया। वह हर बार सोचता रहा कि इस बार संत कुद्ध होगे पर संत का हृदय था कि नवनीत। जितनी आँच दी उस युवक ने उतना ही पिघलता और गम्भीर होता गया। न उन्होंने युवक को वैसा करने से रोका और न किसी प्रकार का तर्क दिया।

युवक ने अब पलट कर पाशा फेंका। तार-तार हुई साड़ी को गोलमटोल गेंद की तरह लपेटता हुआ बोला- अब इसमें रह ही क्या गया है जो पैसे दिये जाये। यह लो तुम्हारी साड़ी के दो रुपये। यह कहकर वह धन का अभिमान प्रदर्शित करता हुआ दो रुपये निकालकर देने लगा तो तिरुवल्लुवर ने कहा - बेटा! जब तुमने साड़ी खरीदी ही नहीं तो उसका मोल कैसे लूँ ?

युवक का उद्दण्ड हृदय अब तक पश्चाताप में बदल चुका था। उसने विनीत होकर कहा- महात्मन् मुझसे भूल हो गई साखी का मूल्य तो मुझे चुकाना ही चाहिए।

संत की आंखें डबडबा आई और वे बोले- वत्स! तुम्हारे दो रुपये चुका देने से इस क्षति की भरपाई तो नहीं हो जायेगी ? सोचो इसकी कपास पैदा करने में किसान ने कितना परिश्रम किया होगा, इसको धुनने और सूत बुनने में कितने लोगों का समय और श्रम लगा होगा साड़ी बुनी गई तब मेरे परिवार वालो ने कितनी कठिनाई उठाई होगी। तुम्हारे दो रुपये चुका देने से क्या इन सब का परिश्रम संतुष्ट हो जायेगा।

युवक अधीर हो उठा। उसकी आंखों से पश्चाताप के आँसू फूट पड़े। वह कहने लगा- ऐसा था तो आप मुझे साड़ी न फाड़ने के लिए बलपूर्वक रोक भी तो सकते थे ?

रोक क्यों नहीं सकता था बेटा! मेरा शरीर कुछ तुम्हारे शरीर से कमजोर तो है नहीं। पर वैसा करने से क्या तुम मान जाते। महापुरुष कह गये है क्रोध को क्षमा से अशिष्टता को शिष्टता से जीतना चाहिए। बलपूर्वक रोकने से तुम्हें शिक्षा देने का यह अवसर मिला वह कहाँ मिलता ?

युवक की उद्दण्डता पूरी तरह धुल चुकी थी। और उसने अनुभव कर लिया था जो शिक्षा क्षमा और प्रेम से दी जाती है वही अन्तःकरण में बैठकर चिरकाल तक प्रकाश देती रहती है।


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