मनुष्य का पूरा जीवन उलझनों, समस्याओं और परेशानियों से जूझते-जूझते ही समाप्त हो जाता है। उसकी यह आकांक्षा अधूरी हो रह जाती है कि एक बार सारी समस्याओं और परेशानियों का समाधान हो जाता और वह पूरी तरह आश्वस्त होकर जीवन का आनन्द पा लेता। वह आनन्द के उपादान भी जुटाता है। धन कमाता है, परिवार बसाता है, बच्चे पैदा करता है और प्रयत्न करता है कि इन सब साधनों के द्वारा उसे, सुख-सन्तोष मिले। लेकिन होता इसका उल्टा। वही साधन जिनको वह सुख की आशा से जुटाता है, दुःख के हेतु बन जाते है। एक के बाद एक समस्याएँ बढ़ती जाती है और वह उनमें गहराई के साथ उलझता जाता है। जीवन का आदि, मध्य अन्त सब इसी गोरखधन्धे में समाप्त हो जाता है। न सुख मिल पाता और न शांति
मनुष्य की समस्यायें न सुलझ सकने का कारण इसके सिवाय और कुछ नहीं है कि वह उसका सही तरीका नहीं जानता। जीवन-यापन में हरियाली लाने के लिये जड़ को न सींच कर पत्तों को सींचता है। जिस प्रकार अलग-अलग पत्तों को सींचने से पेड़ हरा नहीं हो सकता, उसी प्रकार हर समस्या का अलग-अलग समाधान खोजते और भिन्न उपचार करने से उनका सुलझाव नहीं हो सकता। इसके लिये तो कोई एक ऐसा उपाय काम में लाना होगा जो सारी समस्याओं का एक साथ समाधान करता चले। वह उपाय है अध्यात्मवाद का जीवन में समावेश।
प्रायः लोग पूजा-पाठ को ही अध्यात्म मानते हैं। यह अध्यात्म की संकीर्ण परिभाषा है। पूजा-पाठ अध्यात्म का एक अंग आवश्यक है पर केवल पूजा-पाठ ही आध्यात्म है। ऐसा नहीं है। अध्यात्म वस्तुतः एक महान्-विज्ञान है। उसे जीवन-विद्या या संजीवन-विद्या भी कह सकते है। इसको सुचारु रूप से चलाने के लिये जीवन-विद्या का जानना बहुत आवश्यक है। चौरासी लाख योनियों को पार करके जो मानव-जीवन मिला है। वह योंही दुःख भोगने के लिये नहीं मिला है। वह मिला है परमानन्द प्राप्त करने के लिये। मानव-जीवन का वास्तविक लक्ष्य परमानन्द ही है। किन्तु इस लक्ष्य की प्राप्ति सम्भव तभी है, जब जीवन का सही ढंग से उपयोग किया जाय। जीवन के समुचित उपयोग का ज्ञान अध्यात्म-विज्ञान द्वारा हो ही सकता है। जो अध्यात्म विज्ञान से अनभिज्ञ होते हैं, वे जीवन-यापन में अनाड़ी ही होते हैं। इसी कारण इस संख्या को ठीक से नहीं चला पाते। सुख और सन्तोष के स्थान पर ऐसे लोग अपनी समस्याओं और परेशानियों को ही बढ़ाते रहते है।
सीधी-सी बात है कि यदि किसी बड़ी जागीर, मिल, फैक्टरी, फर्म अथवा उद्योग का संचालन एक ऐसे आदमी को दे दिया जाय जो उस विषय में अज्ञानी अथवा अनाड़ी हो तो वह एक-एक सैकड़ों समस्याएँ पैदा कर लेगा। न उनसे स्वयं कोई लाभ उठा पायेगा और न उनसे किसी दूसरे को लाभ को पहुँचा सकेगा। इसी प्रकार जीवन कला से अनभिज्ञ मनुष्य जीवन-संस्था को हितकर रूप में चलाने के लिए उसी प्रकार प्रशिक्षण की आवश्यकता है, जिस प्रकार किसी उद्योग आदि चलाने के लिये। जीवन-सम्बन्धी वह प्रशिक्षण अध्यात्म से ही प्राप्त होता है।
जो व्यक्ति अध्यात्म का शुद्ध स्वरूप जान लेता है और उसका उपयोग जीवन-क्रम में करने लगता है, उसके सामने समस्यायें नहीं आतीं। यदि आ भी जाती है तो उसे उन्हें सुलझाते देर नहीं लगती। अध्यात्म-जीवी का जीवन ऋद्धि-सिद्धियों का भण्डार और सुख-सन्तोष का आगार बन जाता है। अध्यात्म-जीवी ही वह सफल मनुष्य होता है, जिसके लिये न तो सुख-साधनों की कमी रहती है और न वे सुखकर साधन दुःख का हेतु बनते हैं।
अध्यात्मवादी को सुख-साधनों की कमी क्यों नहीं रहती इस तथ्य को समझ लेने की आवश्यकता है। संसार में करोड़ों मनुष्य है, किन्तु सब एक जैसे साधन-सम्पन्न नहीं होते। कुछ सम्पन्न होते हैं और कुछ विपन्न दीखते है। बहुत से लोग इस भिन्नता को ईश्वर की कृपा-अकृपा मान लेते हैं। किन्तु यह मान्यता ठीक नहीं है। ईश्वर सबका पिता है। उसे अपने सभी पुत्र समान रूप से प्यारे हैं। वह सभी का हित और कल्याण चाहता है। वह कदापि अपनी ओर से यह अन्याय नहीं कर सकता कि किन्हीं को सुखी बनाये और किन्हीं को दुःखी। उसके वैभव और ऐश्वर्य का द्वार सबके लिये समान रूप से खुला है। वह स्वयं अपने हाथ से न तो किसी को कुछ देता है और न किसी को स्वयं वंचित करता है। यह मनुष्य की अपनी पात्रता ही है, जिसके आधार पर कोई सम्पन्न और कोई विपन्न बनता है।
वास्तविक बात यह है कि मनुष्य अपनी सम्पन्नता, विपन्नता का उत्तरदायी स्वयं है। किन्हीं बाह्य परिस्थितियों, गृह-नक्षत्रों देवी-देवताओं की अनुकूलता, प्रतिकूलता को जिम्मेदार ठहराना भूल है। मनुष्य की स्थिति उसकी अपनी कृति अपना निर्माण होता हैं। वह अपने भाग्य, अभाग्य का सृष्टा स्वयं ही है। मनुष्य जिस प्रकार के शुभ, अशुभ कर्म होता है, उसी के अनुसार उसका अच्छा या बुरा भाग्य बनता है। भूतकाल में किये शुभ-अशुभ कर्मों का फल ही प्रारब्ध बनकर वर्तमान में सामने आता है। इसका सारा दायित्व मनुष्य के अपने ऊपर होता है, किन्हीं अन्य व्यक्तियों अथवा वस्तुओं को उसका हेतु मानना अज्ञान का लक्षण है।
प्रारब्धदाता शुभ कर्मों की शिक्षा और प्रेरणा अध्यात्म से ही मिलती है। अध्यात्म ही इस संसार का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्वज्ञान है। इसी के आधार पर सुख-दुःख की, उत्थान-पतन की, संतोष-संताप की रचना होती है। इस तत्त्वज्ञान को जिस सीमा तक जीवन में उतार लिया जायेगा उस सीमा तक मनुष्य संजीवन-विद्या का अधिकारी बन जायेगा। आध्यात्मिक जीवन गति का अभ्यास होते ही मनुष्य की सारी समस्यायें एक साथ सुलझती चलेंगी। उसे अलग-अलग एक-एक समस्या को सुलझाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। यदि जीवन में समस्याओं और उलझनों से मुक्त रहकर सरल एवं समाधानपरक जीवन-यापन करने की इच्छा है तो अध्यात्म-विज्ञान का अवलम्बन लेना होगा। मनुष्य को यह नहीं भूलना चाहिये कि सुख-सम्पत्ति श्री-समृद्धि और वैभव-ऐश्वर्य का एक मात्र साधन पुण्य ही है, जिसकी प्राप्ति सत्कर्मों द्वारा होती है और सत्कर्मों को शिक्षा और प्रेरणा अध्यात्म-विद्या द्वारा ही मिलती है।
जैसा कि बतलाया जा चुका है कि भजन-पूजन अध्यात्म का एक अंग अवश्य है किन्तु एकमात्र भजन-पूजन तक ही वह सीमित नहीं है। अध्यात्म का क्षेत्र विस्मृत और व्यापक है। वह सामान्य स्थूल जीवन से लेकर सूक्ष्म आत्मा तक फैला हुआ है। आत्मा का सर्वांगीण विकास अध्यात्म विद्या का मुख्य उद्देश्य है। आत्मा के सुधार तथा विकास की उपेक्षा कर केवल भजन-पूजन ही किया जाता रहेगा तो अध्यात्म-विज्ञान का उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। ऐसे एक दो नहीं हजारों व्यक्ति देखे जा सकते हैं जो भजन-पूजन में बहुत-बहुत समय लगाया करते है पर काम, क्रोध, मद, लाभ आदि विकारों के क्रीतदास बने रहते हैं। ऐसे व्यक्तियों को अध्यात्मवादी नहीं माना जा सकता।
अध्यात्म का अर्थ है आत्म-सुधार आत्म-विकास तथा आत्म-निर्माण जिनके आधार पर शुभ कर्मों और शुभ विचारों की प्रेरणा मिल सके। भजन-पूजन के साथ-साथ जब तक आत्म-परिष्कार आत्म-दर्शन एवं आत्म-कल्याण की ओर प्रगति न की जाएगी अध्यात्मवाद का प्रयोजन पूरा नहीं हो सकता।
अध्यात्म साधन द्वारा मन, बुद्धि, आत्मा का परिष्कार कर लेने पर मनुष्य के विचारों एवं वृत्तियों में अनुकूलता या जाती है। वह संसार के सामान्य विकारों, विकृतियों और आवेगों से ऊपर उठ जाता है। परिष्कृत और अनुकूल आचरण वाले व्यक्ति की शक्तियाँ परिस्थितियों से अधिक प्रभावशाली होती है, जिससे उसे उन पर नियन्त्रण कर लेने में कठिनाई नहीं होती।
आरोग्य, धन, स्नेह, सौजन्य, सम्मान और सन्तान आदि को साँसारिक सुखों का आधार माना गया है। निश्चय ही यह जिसे प्राप्त होते रहें और साथ ही आत्मा की अनुकूलता सहायक होती रहे तो वह व्यक्ति सुख और सन्तोष का अनुभव कर ही सकता है। यही उपलब्धियाँ जो एक आध्यात्मिक व्यक्ति के लिये सुख का साधन करती है। वही अनाध्यात्मिक व्यक्ति के लिये उलझनों, समस्याओं तथा दुःख का कारण बन जाती है।
आरोग्य ले लीजिये। अध्यात्म-विकार-धारा का विश्वासी व्यक्ति भूलकर भी खान-पान और रहन-सहन में प्रमाद अथवा असंयम नहीं करेगा। वह खाने योग्य वस्तुएँ खाने के समय ही उतनी ही मात्रा में खायेगा, जितनी उचित होगी। निश्चित है कि ऐसे संयमी व्यक्ति का आरोग्य सुरक्षित रहेगा। अध्यात्म विश्वासी विषयों और व्यसनों के कुप्रभाव से अच्छी तरह अवगत होता है। वह अपने मन और इन्द्रियों पर इतना नियन्त्रण रख सकने का विश्वास रखता है, जिससे कि संसार के निरर्थक विषय और व्यसन उसे पराभूत न कर सकें। उसकी यह दृढ़ता उसके स्वास्थ्य को अमर बनाये अमर बनाये रखती है। अनाध्यात्मिक व्यक्ति इस प्रकार का नियन्त्रण तथा दृढ़ता नहीं रह पाता, अस्तु उसका स्वास्थ्य आजीवन एक समस्या बना रहता है।
अध्यात्मवादी धन की आवश्यकता को भी जानता है और उसके दोषों को भी। वह भूलकर भी धन के साथ लोभ की संधि नहीं होने देता। परिश्रमपूर्वक उतने धन की ही कामना करता है, जिससे उसका निर्वाह सुविधापूर्वक होता रहे। मितव्ययिता और सन्तोष का सम्बल लेकर धन के क्षेत्र में लोभ तथा तृष्णा से टक्कर लेता हुआ आवश्यकता भर ले आता है और आनन्दपूर्वक उससे सेवा लेता है। इस योग से उसका आचरण, चरित्र और संसार शुद्ध तथा तेजस्वी बन रहते है। धन उसके लिये समस्या नहीं बनने पाता, इसके विपरीत अनाध्यात्मिक व्यक्ति धान्य की तरह अन्धाधुन्ध धन की खेती में जुटे रहते है। मार्ग-कुमार्ग पाप-पुण्य धर्म-अधर्म किसी का भी विचार उन्हें नहीं रहता। वे लोभ, स्वार्थ तथा तृष्णा-वितृष्णा से ताड़ित-प्रभावित हुए धन और उसके परिणाम रूप में तमाम समस्याओं को जमा करते रहते है।
अध्यात्म जीवियों का शिष्ट, शालीन, सभ्य और विनम्र होना स्वाभाविक होता है। असत्य और मिथ्यावाद से उनका कोई सम्बन्ध नहीं रहता। ऐसे शिष्ट और शालीन व्यक्ति को स्नेह सौजन्य की कमी रह ही नहीं सकती। वह जहाँ भी जायेगा अपने गुणों तथा आचरण के कारण आदर, सम्मान पायेगा ही। उसकी उदारता और त्याग-वृत्ति उसे परिवार में, परिजनों, सम्बन्धियों तथा बाहर समाज में लोकप्रिय बना ही देगी। वह विचार भी जायेगा हाथों-हाथ स्वागत पाने का स्वर्गीय सुख अनुभव करेगा। अनाध्यात्मिक व्यक्ति स्वभावतः अहंकारी, दम्भी ओर मिथ्यावादी होता है। वह हठपूर्वक स्नेह और सम्मान पाने का प्रयत्न करता है, छल और प्रवंचना का सहारा लेता है। ऐसा मिथ्या-ग्रस्त वृत्ति न तो स्नेह सम्मान पा सकता है और न पाने पर अपनी आत्मा में उसका सुख अनुभव कर सकता है।
इसी प्रकार आध्यात्मिक और अनाध्यात्मिक व्यक्तियों के बीच संतान सुख का अन्तर रहा करता है। आध्यात्मिक व्यक्ति जहाँ दाम्पत्य जीवन की महिमा-गरिमा और पवित्रता को जानता और उसे सुरक्षित रखने का प्रयत्न करता है। वहाँ अनाध्यात्मिक व्यक्ति के लिए दाम्पत्य जीवन