हमारे अधिक विरोधी इसलिये बनते हैं-

July 1969

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संसार में ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जो अपने लिये विरोध की मात्रा बढ़ा लिया करते हैं और फिर यह शिकायत किया करते हैं कि लोग न जाने उनका विरोध क्यों किया करते हैं जब कि वह खुद किसी का विरोध नहीं करते।

विरोध का जन्म प्रतिकूलता से ही होता है। जब तक मनुष्य प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष, शारीरिक अथवा मानसिक, मौन अथवा मुखर रूप से प्रतिकूलता की अभिव्यक्ति नहीं करता तब तक विरोध उत्पन्न ही नहीं हो सकता। यह बात दूसरी है कि मनुष्य अपनी उस भूल, कमी अथवा दोष को देख समझ न पाये।

दोष-दर्शन संकीर्ण-दृष्टिकोण अदूरदर्शिता अथवा अति दर्शन आदि दृष्टि-दोष के सामान्य रूप हैं।

दोष-दर्शी व्यक्ति सामान्यतः दूसरों की कमियों दुर्बलताओं, रहस्यों तथा छिद्रों को ही देखता और खोजता रहता है। अपनी इस वृत्ति के वशीभूत रह कर वह यह नहीं सोच पाता कि यदि मैं किसी दुराव अथवा दुर्बलताओं की खोज करने के लिये तत्पर रहूँगा तो स्वभावतः अन्य पक्ष मुझको अहित-चिन्तक मान लेगा। वह यह विश्वास किये बिना रह ही नहीं सकता कि यह हमारी कमजोरियों को जानकर या तो अनुचित लाभ उठाना चाहता हैं, दबाये रहना चाहता है अथवा कोई हानि पहुँचाने के लिये भूमिका तैयार कर रहा है। ऐसी अवस्था में उसका विरोध हो जाना स्वाभाविक ही है। फिर चाहे दोष-दर्शी उसका कोई अहित भी न करना चाहता हो, अपनी वृत्ति से मजबूर होकर किसी व्यसन विवश-व्यक्ति की तरह ही वैसा कर रहा हो तब भी यह कारण उसके विरोध को रोक नहीं सकता। थोड़े-बहुत दोष सभी में होते हैं। कोई भी सर्वथा दोषों से रहित नहीं होता। उसी प्रकार कुछ न कुछ गुण भी सब में मौजूद होते हैं। बुद्धिमान् मनुष्य, जो कि समाज में स्निग्ध तथा सरल जीवन का सुख लेना चाहते हैं, वे किसी के दोष नहीं गुण ही खोजा और देखा करते हैं।

संकीर्ण दृष्टिकोण एक पाश के समान दुःखदायी होता है। इसको लेकर जो व्यक्ति जहाँ भी जाता है वहाँ अपने लिये, नापसन्दगी तथा असहयोग उत्पन्न कर लेता है। संकीर्ण दृष्टिकोण वाला व्यक्ति हर वस्तु तथा हर व्यक्ति का अवमूल्यन ही करता रहता है। वह किसी की विशेषता अथवा गुण देखकर सराहना करना तो जानता ही नहीं। किसी की महत्ता अथवा मान्यता स्वीकार कर सकना उसके वंश की बात नहीं होती। किसी की रचना, कृति, सुन्दरता अथवा सफलता से प्रभावित होने पर भी वह उसकी अभिव्यक्ति में चोरी करता है और यदि प्रभाव को प्रकट भी करता है तो किसी कमी अथवा तुलनात्मक दृष्टि से मूल्य एवं

महत्व कम करके। किसी के विश्वासों, आस्थाओं, धारणाओं, निर्णयों अथवा मान्यताओं को सम्मान देना तो दूर उनको मार्ग तक देने को तैयार नहीं होता। उसमें यह देख सकने की शक्ति उसकी तरह सफल होकर आगे बढ़ जाये। ऐसे संकीर्ण व्यक्ति के प्रति लोगों को अहितैषी, अनुदार अथवा ईर्ष्यालु होने की धारणा बना लेते हैं और उसे संपर्क में लाने अथवा उसके संपर्क में जाने की पारस्परिकता को निरुत्साहित करने लगते हैं और यह एक प्रकार का विरोध ही हैं बुद्धिमान् व्यक्ति विशाल दृष्टिकोण को आश्रय देकर दूसरों को रास्ता देते और बदलने में रास्ता पाकर निर्भय एवं निर्द्वन्द्व जीवन का सुख उपभोग करते हैं।

अदूरदर्शी व्यक्ति कदम-कदम पर गलती करता रहता हैं। वह जो कुछ कह रहा है उसका कहाँ पर, किस पर किस समय और क्या प्रभाव पड़ सकता है इसका अनुमान कर सकना अदूरदर्शी के लिये संभव नहीं। वह ऐसे अनेक काम कर बैठता है जो उस समय तो बड़े समीचीन विदित होते हैं किन्तु समयान्तर में बड़ा ही प्रतिकूल प्रभाव उत्पन्न करते हैं। अदूरदर्शी में एक दोष उतावली का भी होता है। जिसके कारण उसके बहुत से काम अहितकर सिद्ध होते हैं। जैसे किसी की आलोचना का अवसर आ पड़ा है तो दूरदर्शी व्यक्ति तो उस अवसर से उत्पन्न उत्सुकता अथवा प्रेरणा को दबा लेगा, किन्तु अदूरदर्शी इसकी आवश्यकता को नहीं समझ पाता और अपनी बुद्धिमत्ता प्रकट करने अथवा स्पष्टवक्ता होने का श्रेय लेने के लोभ से आलोचना अथवा निन्दा में प्रवृत्त हो जायेगा। जिसके फलस्वरूप सही होने पर भी आलोच्य व्यक्ति के साथ-साथ उस वर्ग अथवा समुदाय के सारे व्यक्ति उसके विरोधी बन जायेंगे ऐसे ही अदूरदर्शी कर्मचारी, विद्यार्थी, नेता अथवा सुधारक अधिकारियों, अध्यापकों तथा लोक भावना को अपने विरुद्ध बना लिया करते हैं। बुद्धिमान् व्यक्ति कहने अथवा करने से पहले उसके प्रत्यक्ष, परोक्ष निकट अथवा दूर पड़ने वाले प्रभाव पर अच्छी तरह विचार कर लेने पर ही कोई काम करते हैं।

अतिदर्शी व्यक्ति किसी भी बात को बहुत बड़ा-चढ़ा कर देखता है। किसी का तिल जैसा दोष उसे ताड़ जैसा और चुल्लू भर गुण समुद्र जैसे दीखते हैं और उसी के अनुसार वह उनकी निन्दा-स्तुति भी किया करता है। जिससे निन्दा का शिकार व्यक्ति उसे शत्रु मानकर और स्तुति का केन्द्र व्यक्ति उसे शत्रु मानकर और स्तुति का केन्द्र व्यक्ति उसे प्रलापी अथवा मिथ्यावादी समझ कर नापसन्द कर देते हैं। अतिदर्शी को किसी का छोटा सा व्यवसाय लाखों करोड़ों का तथा थोड़ा साधन ने जाने कितना मालूम होता है और तदनुसार ही वह उसका प्रचार भी करता है जिससे उस वर्ग के लोग उसे समाज में बदनाम करने वाला मानकर उसके विरोधी बन जाते हैं। बुद्धिमान् व्यक्ति अतिरेकता से बचकर हर बात तथा व्यक्ति का उचित मूल्यांकन ही किया करते हैं। गलत मूल्यांकन से अथवा अनुचित प्रशंसा से यदि कोई एक आध हल्की मनोभूमि वाले प्रसन्न भी हो सकते हैं तो अन्य न जाने कितने उपयुक्तवादी होकर उसके मिथ्या प्रचार के विरोधी बन जायेंगे।

दुर्भाव, स्वार्थभाव तथा अहंभाव, भावदोष के ही रूप माने गये हैं। जिन व्यक्तियों का हृदय दुर्भाव से दूषित रहता है, वे सबका अहित चिन्तन ही किया करते हैं। वाक्पटुता, व्यवहार कुशलता, दया, करुणा, प्रेम अथवा उदारता के कितने ही कृत्रिम आवरण क्यों न डाले जायें किन्तु दुर्भाव छिपाये नहीं छिप सकता। जिस प्रकार शत्रुता मुख में मिश्री घोल लेने पर भी छिप सकती उसी प्रकार दुर्भाव भी सौ आवरणों के भीतर से भी समझ जाता है। मनुष्य का मुख हृदय का दर्पण कहा गया है। दुर्भावना पूर्ण शक्ति कितनी ही अनुकूलता क्यों नहीं प्रकट करे किन्तु उसका अन्तर्भाव मुख के भावों से, आँखों तथा मुद्राओं से प्रकट ही होता रहता है। बधिक के दाना दिखलाने, पुचकारने, प्यार करने और सहलाने, खुजलाने पर भी पशु उससे सामंजस्य नहीं कर पाता किन्तु सद्भावनापूर्वक व्यक्ति के पास जाकर खड़ा हो जाता है और गर्दन ऊँची करके खुजलाने अथवा सहलाने का संकेत करने लगता है।

दुर्भावनापूर्ण व्यक्ति किसी का हितैषी अथवा मित्र हो सकता है यह असंभव है। वह तो कारण अथवा अकारण रहने पर केवल दूसरों को नीचा दिखाने, उनको आपत्ति में देखने, समय आने पर अहित करने में ही संतोष मानता है। किसी की उन्नति, विकास अथवा हँसी-खुशी देखकर वह मन ही मन जलकर खाक हो जाता है। एक की दूसरे से बुराई करना, किन्हीं दो का विरोध भाव बढ़ाना, गिरते हुए की टाँग खींच लेना, किसी के परिवार अथवा बच्चों को बिगाड़ना, पारस्परिक कलह को प्रोत्साहन देना आदि दुर्भावना पूर्ण व्यक्ति के स्वाभाविक कम तथा कौतुक हैं। समाज का ऐसा कलंक और मूर्खता का पुतला यदि समाज में सहयोग अथवा सहायता का सुख पाना चाहे तो यह उसकी अनधिकार चेष्टा ही होगी। उसका अधिकार तो विरोध एवं भर्त्सना ही है जो पाता है और उसे मिलना ही चाहिए। अच्छे तथा बुद्धिमान् व्यक्ति संसार से किसी के प्रति दुर्भावना नहीं रखते वे तो सद्भावना के धनी बन कर समाज में दूसरों को सुख देकर सुख पाना ही मनुष्यता की पहिचान मानते हैं।

सब कुछ अपने तथा अपनों के लिये ही चाहने वाला स्वार्थी व्यक्ति समाज का चोर माना गया है। स्वार्थ भावना से दूषित व्यक्ति का संसार बस अपने तक ही सीमित रहता है। उसके गुणों, विशेषताओं, सम्पत्तियों तथा प्रभावों का लाभ किसी दूसरे के काम न आ जाये इस बात से वह बड़ा सतर्क रहता है। यदि किसी विवशतापूर्वक कुछ भी किसी के काम में आ गया तो वह उसे अपना दुर्भाग्य ही मानता है। किसी भी प्रकार की आवश्यकता में काम आ जाने को वह अपनी चतुरता तथा व्यावहारिक बुद्धि की हार समझता है। स्वार्थी व्यक्ति संसार के सारे सुख-साधनों पर केवल अपना ही अधिकार चाहता है। अपने स्वार्थ के समक्ष उसे किसी दूसरे के दुःख, दर्द, कष्ट, पीड़ा, विपत्ति, आपत्ति कुछ भी तो नहीं दीखते। वह “अपने जीते जग जिया-वाली कहावत का अक्षरशः समर्थक एवं प्रतिपालक होता है।

स्वार्थ भावना ही तो वह भावना है जो मनुष्य को शोषण, सञ्चय, चोरी, ठगी तथा भ्रष्टाचार के पापों के लिए प्रेरित करती है। यही तो वह पाप है जिसके वशीभूत होकर मनुष्य अत्याचारी, आक्रमणकारी तथा अनाचारी बन जाता है।

एक ओर जहाँ स्वार्थी समाज में हर किसी से उनकी सद्भावना तथा सज्जनता का लाभ उठा कर अपना मतलब बनाता रहता है और दूसरी ओर धन्धों की आवश्यकता तथा सहायता के लिये बमली काटता रहता है। स्वार्थियों की यह कपट-हौड़ी कुछ ही समय तक चढ़ पाती है। शीघ्र ही उनका स्वरूप प्रकट हो जाता है और तब उन्हें समाज की तीव्र घृणा तथा विरोध का संताप सहन करते हुए एक बहिष्कृत-सी जिन्दगी बितानी पड़ती है। बुद्धिमान व्यक्ति सीमित स्वार्थ तथा असीम परमार्थ में विश्वास रख कर और तदनुसार जीवन अपनाकर मनुष्यता के उन सुखों को उपलब्ध करते रहने हैं जिनके लिए स्वर्ग में देवता भी लालायित रहा करते है।

अहंभाव तो माना विरोधों का बटबीज ही है। जो व्यक्ति इस दोष से दूषित हो गया मानो उसके लिए विरोध ही नहीं पतन की भूमिका बन कर तैयार हो गई। किसी का कहना न मानना, अनुशासन तथा नम्रता में अविश्वास करना, सहयोग तथा पारस्परिकता को अनावश्यक मानना अहंकारी व्यक्ति के सहज दुर्गुण होते है। किसी की बात मानना, अधिकारों को मान्यता देना अथवा समझदारी के आधार पर निर्णय लेना उसका आत्म-प्रतिष्ठा का प्रश्न बन जाता है। जल्दी ही क्रुद्ध हो जाना आवेश से उद्दीप्त हो जाना उसकी वे दुर्बलताएँ है जो विरोध का विस्तार कर दिया करती हैं अपनी गलती पर अड़े रहना, किसी की गलती को क्षमा न करना, समाज में आतंक एवं भय का वातावरण उत्पन्न करना उसका सहज स्वभाव होता हैं। असहनशील एवं अवज्ञाकारी प्रवृत्तियों का अहंकारी व्यक्ति समाज में संकट माना जाता है। हो सकता है कि किसी शक्तिशाली अंहप्रधान व्यक्ति का लोग खुले तौर पर विरोध न करें, किन्तु सभी लोग उससे मन ही मन घृणा करते हुये दूर ही रहना चाहते हैं। किन्तु मिथ्याभिमानी, दम्भी व्यक्ति तो चार दिन भी समाज में टिकने नहीं पाता। शीघ्र ही समाज की असहयोगी भावना उस अवांछित व्यक्ति को या तो उखाड़ फेंकती है अथवा होश भी ला देती है। सत्ता, शक्ति, सम्पत्ति तथा विद्या-बुद्धि होने पर भी बुद्धिमान व्यक्ति इस दोष से बचकर समाज में समानता तथा स्नेह का व्यवहार करते हुये पूजा एवं प्रतिष्ठा के पात्र बन कर जीवन में जिस सुख-सन्तोष का अनुभव करते हैं उसकी तुलना में स्वर्ग का सुख भी खड़ा नहीं हो सकता।

कटु, असत्य, अश्लील तथा अनुपयुक्त भाषण करना, भाषा दोष माना गया है। कटुभाषी व्यक्ति एक साधारण बात को भी तीखा करके बोलता है। लोगों को उसकी बात चुभे इसमें उसे बड़ा मजा आता है। जहाँ शास्त्रकारों ने कटु सत्य बोलने तक का अर्जन कर दिया है वहाँ साधारण रूप से कटु भाषण कितना अवांछनीय हो सकता है यह सहज में ही समझा जा सकता है। वन-प्राण विषविशिखों से भी कष्टदायक होते है तब तो ऐसे कटुभाषी को समाज में सहयोग की आशा किसी प्रकार भी नहीं करनी चाहिए।

अब देखिए, यदि आप विरोध से परेशान हों तो कहीं इन दोषों में से किसी दोष से तो आप आक्रान्त नहीं है। और यदि ऐसा हो तो शीघ्र ही शमन होने लगेगा।


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