बच गये हम आप अन्यथा जून 1968 में ही अन्तरिक्ष से दौड़ता हुआ आने वाला इकारस सारे पृथ्वी वासियों को एक क्षण में ही कुचल कर रख देता। पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से थोड़ा दूर रह जाने के कारण वह क्षुद्र ग्रह अन्तरिक्ष में ही कही विलीन हो गया पर यदि वह पृथ्वी से टकरा जाता तो सैकड़ों हाइड्रोजन बमों की क्षमता वाली ऊर्जा पैदा करता। उससे पृथ्वी में भूचाल आ जाता, समुद्र उफन कर पहाड़ों तक को डुबोकर रख देता, हजारों उद्योगों को प्रश्रय देने वाले नगरों के अस्तित्व का भी पता न चलता। सन्देह है कि तब तक मानव प्राणी पृथ्वी पर शेष रहता भी अथवा उसका भी अन्त हो जाता।
बत्तीस वर्ष पूर्व 1937 में एक बार ऐसा ही तहलका मचा था। तब इकारस का ही एक दूसरा भाई हर्मेस अपनी आंखें लाल करके दौड़ा था। खगोलशास्त्रियों ने निश्चित आशंका व्यक्त की थी वह भी पृथ्वी से टकरा सकता है यदि तब वह घटना घटित हो गई होती तो आज पृथ्वी को कुल आबादी एक और दस हजार के बीच होती। एक नये इतिहास की प्रस्तावना इन दिनों चल रही होती। पर बेचारा हर्मेस पृथ्वी से पाँच लाख मील पास तक ही आया और जब उसने देखा पृथ्वी वासी बहुत डर गये तो उसे भी दया आ गई और उसने अपना मार्ग बदल दिया। पृथ्वी वासियों ने सन्तोष की साँस ली।
जो वैज्ञानिक गणित के लम्बे लम्बे सूत्र हल कर यह जान लेते है कि अन्तरिक्ष यान को इस गति से अमुक दिशा की ओर इतने डिग्री कोष (बियरिंग) पर प्रक्षेपित किया जाये तो वह उतने समय में चन्द्र, शुक्र या मंगल पहुँच जायेगा। गणित के नियन्त्रण से वह स्थान (ग्रिड रिफरेन्स) तक जान लेते है जहाँ चन्द्रमा को उतारा जा सकता है। वही वैज्ञानिक इकारस और हर्मेस जैसे ग्रहों की पृथ्वी से टकराने की भी भविष्य वाणी करते है पर वह गलत हो जाती है तो लगता है कि विराट् जगत में गणित ही सब कुछ नहीं कई सर्व शक्तिमान सत्ता भी काम कर रही है जो गणित को फेल करके अपनी इच्छानुसार कर्म कर सकती है। उसका इस प्रकार क्षुद्र ग्रह भेजकर लोगों को डराना तो उसका मनोविनोद मात्र लगता है। जिस प्रकार माता-पिता बच्चे को किसी असह्य स्थिति में छोड़कर उसकी दीनता का आनन्द लिया करते है उसी प्रकार भगवान भी अपने मनोविनोद और लोक वासियों को सीख देने का एक मिला जुला कार्यक्रम इन क्षुद्र ग्रहों के द्वारा रखता रहता है।
उसकी यह मनोरंजक दुनियाँ भी बड़ी विलक्षण है। 1932 में भी एक नन्हा सा ग्रह भटक कर पृथ्वी से 65 लाख मील की दूरी तक चला आया था तब तक खगोलशास्त्रियों को यह अनुमान था कि इस तरह के क्षुद्र ग्रह अन्तरिक्ष में दो चार हो होंगे। अनुमान था कि कोई ग्रह चटक गया होगा और उसके उपखण्ड ठीक उसी प्रकार अन्तरिक्ष में संचरण करने लगे होंगे जिस प्रकार प्लूटो एक दिन नेपच्यून से अलग होकर एक स्वतन्त्र ग्रह ही बन गया। प्लूटो का व्यास तो पृथ्वी के व्यास से लगभग तीन गुना पर अन्तरिक्ष के यह क्षुद्र ग्रह, जिन्हें वर्तमान वैज्ञानिक भाषा में ‘अन्तरिक्ष कीट’ कहा जाता है बहुत ही छोटे आकार के होते है।
प्रसिद्ध ब्रिटिश खगोल शास्त्री पैट्रिक भूर के अनुसार इन क्षुद्र में “सीरीस” 480 मील व्यास, “पालास” 306 मील, 241 मील व्यास का वेल्टा और 121 मील व्यास का “जूनो” वह सबसे बड़े क्षुद्र ग्रह हैं। लगभग 200 ग्रह कुल 25 से 60 मील व्यास वाले और कोई 190 क्षुद्र ग्रह तो 10 से 25 मील व्यास वाले ही होंगे। एक ऐसा ग्रह भी मिला है। जिसका व्यास कुल 3 मील का ही है। इसमें मनुष्यों को बसाया जाना सम्भव हो तो अधिक से अधिक 50 हजार आदमी ही उसमें समा सकेंगे उनके लिए खेती या उद्योगों की समस्या तब भी बनी रहेगी कि उसके लिए स्थान कहाँ से लायें। मंगल और बृहस्पति के बीच पाये जाने वाले इन समस्त ग्रहों को जोड़ा जा सके तो भी वह पृथ्वी से काफी छोटे रहेंगे। किन्तु उनकी स्थिति न केवल अन्तरिक्ष यानों के लिए खतरनाक है वरन उनसे किसी भी ग्रह से टकरा जाने का भय हर घड़ी विद्यमान् रहता है। यह आवश्यक नहीं कि वे केवल पृथ्वी से टकरायें तभी हमारी हानि हो। सच बात यह है कि यदि इनमें से कोई भी क्षुद्र ग्रह किसी भी ग्रह से टक्कर खा जायेगा अन्तरिक्ष से लेकर पृथ्वी तक में प्रलयंकारी दृश्य उपस्थिति हो सकते है। ऐसा लगता है प्रलय की शुरुआत इन ‘कीट ग्रहों से ही होती होगी।
यह अनुमान निराधार नहीं है क्यों कि इनकी कोई स्वतन्त्र कक्षाएँ नहीं है। यह तो सूर्य की कृपा है जो इन्हें अपने आकर्षण में बाँधे हुए है। वेस्टा जो इनमें सबसे चमकीला है और जो पृथ्वी से लगभग 22 करोड़ मील दूर है वह सूर्य की परिक्रमा करता है और 3ण्6 वर्ष में उसकी परिक्रमा पूरी कर लेता है। अपनी धुरी पर भी वह 10 घण्टे 45 मिनट की परिक्रमा पूरी कर लेता है पर इनकी इस नियमितता का कोई दबाव नहीं है। अधिकांश क्षुद्र ग्रह स्वच्छन्द शैलानी है कही के कही घूमते रहते हैं। उदाहरणार्थ ‘इकारस’ ही सूर्य और बुध के भयंकर गर्मी वाले क्षेत्र में आनन्द पूर्वक घूमता रहता है। अभी कुछ समय पूर्व तो उसने यहाँ के लोगों की नींद ही हराम कर दी थी। ईरोस भी पृथ्वी के निकट तक आ जाता है और 944 नम्बर वाले हाडडाल्गों तो कभी-कभी शनि के ग्रह पथ को भी पार कर दूसरे क्षेत्र में निकल जाता है। अब 50 हजार के लगभग ऐसे छोटे-छोटे ग्रह ढूँढ़े गये है जिनकी बनावट चाल ढाल में बड़ी विलक्षणतायें हैं।
छोटे और सूर्य के समीप होने के कारण इनकी तमाम हाइड्रोजन गैसें और पानी आदि उड़ कर कही जाकर सूख गया होगा इनका यदि कुछ उपयोग हो सकता है तो इतना ही कि अन्तरिक्ष जाने वाले यात्री कभी इनसे स्टेशन का काम ले सकें। सम्भव है इन्हें ग्रहों की नियमित कक्षाओं में प्रस्थापित करने का भी प्रयत्न किया जायें अनुमान है कि इनमें धातुएँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो सकती है इसलिए कुछ दिन में ही अन्तरिक्ष क्रेन भेजी जा सकती है और उनसे इन्हें पकड़ कर पृथ्वी में लाने का प्रयत्न किया जा सकता है पर ऐसा करने में राक्षसी शक्ति की आवश्यकता होंगी। गुरुत्वाकर्षण के अभाव के कारण वहाँ जहाजों को सुविधा पूर्वक उतारा जाना और वहाँ से ताजा उड़ानें भरना भी सम्भव हो सकता है पर यह सब खिलवाड़ यदि गणितीय व्यवस्था की भी भंग कर देगा तो वर्तमान अन्तरिक्ष यात्रा सुविधाएँ बढ़ाने के स्थान पर विश्व विनाश का भी कारण बन सकती है।
भगवान ने इन अनियमित क्षुद्र ग्रहों को लगता है बेकार नहीं बनाया। उन्हें वह अपनी नाराजी प्रकट करने के अस्त्र के रूप में भी प्रयुक्त कर सकता है यह कल्पना विवादास्पद नहीं है। सन 62 के ‘अष्ट ग्रह योग’ से संभव है बचाव के कुछ साधन हों भगवान इतने बड़े अनिष्ट को अच्छा न समझ कर उसे टाल देता हो पर सबक देने के लिए उसने कई बार पृथ्वी को ऐसे दण्ड दिये है जो ग्रह योग ही कहे जा सकते है। उदाहरणार्थ अभी कुछ समय पहली कनाडा के म्यूषेक प्रान्त में एक ऐसा ही क्षुद्र ग्रह पृथ्वी से आ टकराया था उससे वहाँ 11500 फुट लम्बा और 1300 फुट गहरा गड्ढा बन गया था। डा0 फ्रेड चब ने उसका विस्तृत अध्ययन करने के बाद बताया- यह उल्का लगभग 1 मील व्यास की थी और जब वह पृथ्वी से टकराई थी तब उसकी गति (बेलासिटी) 30000 से लेकर 150000 मील प्रति घण्टा के लगभग रही होगी। उसकी यह प्रचण्ड भिड़ंत के कारण ही इतना बड़ा गड्ढा बन गया। यह तो खतरे का एक छोटा सा संकेत मात्र था। ग्रीनलैण्ड में गिरा एक ही क्षुद्र ग्रह पिण्ड न्यूयार्क में अब भी प्रदर्शनार्थ रखी हुई है।
आस्ट्रेलिया 20 लाख मील का एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें काँच के टुकड़े बिखरे पड़े है। इस क्षेत्र में कोई ज्वालामुखी नहीं है फिर यह काँच कहाँ से आया उसके बारे में वैज्ञानिकों का अनुमान है कि किसी समय यहाँ कोई भयंकर उल्का टूट कर गिरी होगी उसकी सतह पर जल नहीं रहा होगा दूसरी धातुओं के साथ काँच बहुतायत से पाया जाता होगा। वह जब पृथ्वी से आ टकराया होगा तो उससे उस क्षेत्र में जीवन के लक्षण भी समाप्त हो गये होंगे। यह काँच के टुकड़े उसी से छितर गये होंगे। कई लोग यद्यपि उसे अन्तरिक्ष लोक की किसी बुद्धिमान जाति द्वारा प्रक्षेपित शस्त्र भी मानते है पर अब यह सिद्ध हो गया है कि वह कोई उल्का ही थी।
61 वर्ष पूर्व 30 जून 1908 की प्रातःकाल साइबेरिया सुगूस बनखण्ड (साइबेरिया) में एक उल्का पिण्ड प्रबल वेग से आ टकराया। 25 वर्ग मील क्षेत्र में सर्वत्र आग की लपटें फैल गई। 30 वर्ग मील क्षेत्र के भीतर जो भी मनुष्य जीव जन्तु और वृक्ष थे उनका नाम विधान तक नहीं बचा था। अनुमान है कि वह एक हजार टन से भी वजनदार उल्का रही होगी। 39 वर्ष बाद उसकी घटना की पुनरावृत्ति तायगा क्षेत्र में हुई 12 फरवरी को सबेरे के 10 बज कर 40 मिनट हो रहे थे तभी एक क्षुद्र ग्रह सुहाते आलिन की पहाड़ी पर आ टकराया। उस आघात के फलस्वरूप ढाई वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में एक भी वृक्ष खड़ा दिखाई नहीं देता था ऐसी विनाश लीला देखने को मिली। यहाँ से प्राप्त उल्का खण्ड 1745 किलोग्राम घी, वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया कि वह 2500 मन से भी अधिक की उल्का थी। अधिकांश क्षुद्र ग्रह छोटे होते है इसलिए ये पृथ्वी पर आते आते या तो जल कर राख हो जाते है या फिर वह इकट्ठा किया जाना भी सम्भव नहीं होता। कुछ बड़े आकार के ही पिण्डों के अवशेष बच पाते है और उन्हीं से आकाश के ही पिण्डों के अवशेष बच पाते है और उन्हीं से आकाश की स्थिति के बारे में कोई अनुमान करना संभव होता है। इस दृष्टि से 36॥ टन वजन की टूटी एक उल्का ग्रीनलैण्ड के अजायब घर में सुरक्षित है उसका आयतन 11फुट 7फुट 5 फुट है। यह उल्कायें अधिकांश वह क्षुद्र ग्रह ही होते है जो अपनी कक्षा से विचलित हो- होकर समीपवर्ती ग्रह नक्षत्रों को उत्पीड़ित किया करते हैं।
अभी भी जब कभी आकाश में धूमकेतु तारे उदित होते है तो मनुष्य जाति किसी भयंकर विस्फोट की आशंका से भयभीत हो उठती है। पर हम यह नहीं जानते कि सूर्य के भण्डार में ऐसे क्षुद्र ग्रह जिन्हें “एस्टरायड” कहते हैं असंख्य मात्रा में भरे हैं वे भले ही छोटी-छोटी आँखों से दिखाई न देते हों पर दूरबीनों ने उनकी उपस्थिति को असंदिग्ध सिद्ध कर दिया है और इस तरह एक प्रलय का खतरा हर क्षण हमारे मस्तिष्क पर मंडराया करता है और मनुष्य है कि ऊपरी दुनियाँ की इस भयानक हलचल की बात सोचता तक नहीं केवल अपने पार्थिव सुखों की मृगतृष्णा में ही भटकता रहता है। अनियमित ग्रह कीटों की रचना भगवान ने लगता है मनोविनोद में पृथ्वी वासियों को समय-समय पर डराने के लिए और यह समझाने के लिए की है कि हमारा दृष्टि कोण अपनी क्षुद्र वासनाओं तक ही सीमित न रहे। बड़े ग्रह तो अपनी नियमितताओं और मर्यादाओं में बँधे है इसलिए मनुष्य उनसे आँख मूँद सकता है पर इन स्वेच्छाचारी विदूषकों से तो उसे डरना ही पड़ेगा ये कभी भी हमला बोल सकते है और पृथ्वी को समूची नष्ट-भ्रष्ट कर सकते है।
इन क्षुद्र ग्रहों की उत्पत्ति और जीवन काल के सम्बन्ध में वैज्ञानिकों में उतना ही मतभेद है जितना मनुष्य की उत्पत्ति और जीवन काल के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। कुछ का अनुमान है कि दो ग्रहों की झड़प हुए टूट-फूट के कारण यह क्षुद्र ग्रह बने है क्योंकि यह गोलाकार ही नहीं। पेंदेनुमा और पहाड़ों की तरह के ऊबड़ खाबड़ किस्म के भाग है। इनमें आकार-प्रकार की तरह आयु और कक्षा का भी कोई नियमित स्वरूप नहीं है। कुछ खगोल शास्त्रियों का मत है कि मंगल और बृहस्पति के बीच कोई ग्रह रहा होगा उसके विघटन से यह सब बने होंगे। उनमें पाये गये तत्त्वों से अनुमान लगाया गया है कि अरबों वर्ष पूर्व भी आकाश में यह क्षुद्र ग्रह थे। अभी यह निश्चित नहीं हो सका कि उनकी संख्या केवल घटती है या बढ़ती भी है पर वैज्ञानिक उस लालच में अवश्य है कि जिस तरह मंगल ने फ्रोबोस और डेइमोस नामक दो क्षुद्र ग्रहों को, जो कुल 10 या 20 मील व्यास वाले ही होंगे अपनी अधीनता में रखकर शोभा बढ़ाई है। उसी प्रकार कुछ क्षुद्र ग्रहों को लाकर पृथ्वी में “पार्ट टाइम” सूर्य या चन्द्र प्रकाश की व्यवस्था की जाये। ऐसे अधीनस्थ ग्रह शनि के पास भी है, बृहस्पति के पास तो उनकी संख्या सात है।
अन्तरिक्ष की विलक्षण दुनियाँ में इन अन्तरिक्ष कीटों की विलक्षणता और भी रहस्यमय है जब उनके अस्तित्व के बारे में कोई तुक नहीं बैठती तो यही मानना पढ़ता है यह सब भगवान का मनोरंजन है और इस मनोरंजन में ही वह लोगों को दुष्कर्म न करने के लिए डराता भी रहता है दण्ड भी देता रहता है।