वैज्ञानिक अन्ध-विश्वास और उसकी लाल रोशनी

July 1969

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नन्हा-मुन्ना-सा कोमल वालों एक छोटा-सा खरगोश जिसकी आँखों से करुणा-करुणा टपक रही थी, रस्सी से बँधा बैठा था एक महाशय ने कन्सन्ट्रेटेड नाइट्रिक एसिड या कन्सन्ट्रेटेड सलफयूरिक एसिड जैसा कोई तेज रसायन उसके कानों में डाल दिया। निरीह खरगोश बुरी तरह तड़फड़ा उठा पर भागने और प्राण बचाने के लिये स्थान वहाँ कहाँ था वह भावना विहीन असुरत्व को काल-कोठरी में जकड़ा हुआ खरगोश केवल तड़पता रहा

रसायन के प्रयोग से कान के पास की सब नसें उभर आई। उन महाशय ने एक चाकू निकाला और उस उभरे हुए हिस्से में घुसेड़ दिया। रक्त तेजी से बह निकला। उससे बोतलें भरी जाने लगीं। खरगोश की देह का सब रक्त निकल आया तो उसे चीमटे में दाब कर इस तरह फेंक दिया गया जिस तरह नीबू का रस निचोड़ लेने के बाद छिलके को फेंक देते हैं।

एक और सज्जन का परिचय पाने के लिए आपको अमेरिका चलना पड़ेगा। लीजिये एक और दरवाजा खोलिये। यहाँ एक महत्त्वपूर्ण प्रयोग चल रहा है। यह देखना है कि शरीर से अलग रहकर भी क्या मस्तिष्क काम कर सकता है? इसी का अध्ययन करने के लिये लिब्बी बन्दर को मेज़ पर जकड़ कर बाँध दिया गया है। किसी मनुष्य का आपरेशन करना हो तो उसे बेहोश किया जाता है पर यहाँ तो परीक्षण चल रहा है। बेहोश किये बिना बन्दर का आपरेशन किया गया। इस कदर चीखा-चिल्लाया और छटपटाया कि सारा कमरा वीभत्सता से भर गया। किन्तु जंजीरें टस से मस न हुई। मस्तिष्क काटकर शरीर के एक हिस्से में सी दिया गया। मस्तिष्क काट देने के बाद 5 घंटे तक चेतनशील रहा उतने समय कोंचने, चुभाने, नोंचने, काटने के अनेक प्रयोग चलते रहे तब कहीं जाकर बन्दर को मुक्ति मिली। अर्थात्, वह मर गया और लाश बिजली की भट्टी में झोंक दी गई।

ऐसा ही एक प्रयोग रूस के एक शल्य-वैज्ञानिक ने किया। एक कुत्ते का गर्दन कलम एक दूसरे एर्ल्सशियन कुत्ते की गर्दन में जोड़ दी गई। दोनों कुत्ते एक ही शरीर में जी रहे है। प्रयोग-परीक्षण और मानव-सेवा के नाम पर जीवों की जो हत्या की जाती हैं उससे आज का ‘सभ्य’ कहलाने वाला युग आँख मूँद सकता है पर आत्मचेतना चुप होकर बैठ नहीं सकती। आज का विज्ञानवादी मस्तिष्क इस बात पर गौरव अनुभव कर सकता है कि उसने अनेक महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं किन्तु उसे अपने आत्मिक पतन की खबर नहीं है। किस प्रकार कुरूपता और भयंकरता बढ़ रही है। इसका उन्हें अनुमान भी नहीं है। बुद्धि में पाशविकता चेतनता से दूर लिये जा रही है। दवाइयाँ 10 प्रतिशत-रोग 25 प्रतिशत। बुद्धि सवा हुई तो पागलपन ड्यौढ़ा बढ़ रहा है। आत्म-हत्याओं की संख्या तेजी से बढ़ रही है। हत्याएँ, लूट-पाट विश्वासघात, शोषण, उत्पीड़न आदि छल की बाढ़ आ गई और भ्रष्टाचार, चोरी, बेईमानी और ठगी द्वारा एक मनुष्य ने दूसरे मनुष्य से इतनी दूरी पैदा कर ली है कि पास-पास रहते हुये भी उनमें न प्रेम है सहानुभूति न विश्वास। सब अपनी-अपनी घात में रहते हैं। अविश्वास-अविश्वास पति-पत्नी पिता-पुत्र बहन-भाई सौदागर-खरीदार नेता, प्रजा सब एक दूसरे से खिंचे हुये है। यह सब आत्म-चेतना में पाशविक दुर्बुद्धि छा जाने का ही परिणाम है।

चेतन सृष्टि परमात्मा की समीपी मित्र और सखा है। उसको जितना ही सताया जाता है उतना ही उसमें क्षोभ उत्पन्न होता है और जितना क्षोभ उत्पन्न होता है उतना ही वह सताने वालों का अपकार करता है। आज संसार में जो अशान्ति हो रही है कलह, लड़ाई, बीमारी और दुष्कर्म हो रहे हैं उस सबका कारण चेतन क्षोभ ही। इन विभीषिकाओं को देख कर ही प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक एडल्फ जस्ट ने अपनी “रिटर्न टु नेचर” पुस्तक में यह उद्धृत किया है कि मनुष्य यदि परपीड़न की दुष्प्रवृत्ति से अपने को रोकता नहीं तो एक दिन भयंकर विस्फोट होगा और मनुष्य जाति परस्पर एक दूसरे को मारकर खा जायेगी।

ईश्वर, आत्मा, देवता, उपासना, यज्ञ आदि भारतीय दर्शन की मान्यताओं को अब अन्ध-विश्वास कहा जाता है किन्तु यदि बुरा न लगे तो विज्ञान को भी अन्ध-विश्वास मानना और उसके पद-चिह्नों पर चलने वालों को वैज्ञानिक अन्ध-विश्वासी कहना अनुपयुक्त नहीं होगा। आज फैशन के नाम पर तरह-तरह के प्रयोग हो रहे हैं। महिलायें बाल साफ करने के लिये शैम्पू का प्रयोग करती हैं किन्तु उन्हें यह पता नहीं होता कि यही शैम्पू जिन कारखानों में तैयार किया जाता है वहाँ छोटे-छोटे खरगोश, गिलहरी आदि जीव पाले गये होते है। शैम्पू तैयार होता है तो यह देखने के लिये कि वह ठीक है या नहीं उसे खरगोश की आँखों में डाला जाता है यदि खरगोश की आँख फूट जाये तो यह माना जाता है कि वह तेज है। जब तक उसके अच्छे होने का उत्पादकों को विश्वास नहीं हो जाता ऐसे प्रयोग होते हैं और उनमें बेचारे निरीह जीवों की हत्या और उत्पीड़न होता रहता है। जब कोई क्रीम तैयार की जाती है तो उसे भी बिल्ली की खाल छील कर उस पर लगाई जाती है। इन परीक्षणों में बिल्लियों की चमड़ी में फफोले और घाव हो जाते हैं। उस उत्पीड़न को वे रो-रोकर झेलती है और बाद में उसे ही सुन्दरता बढ़ाने के लिये चेहरों पर चुपड़ा जाता है। जीव उत्पीड़न और हिंसा का साथ देने वाले इन फैशनपरस्तों को, उत्पीड़ित शरीरों से प्राप्त औषधियों को सेवन करने वालों को वैज्ञानिक अन्धविश्वासी कहा जाये तो उसमें बुरा क्या है। धार्मिक अन्ध-विश्वास जितना बुरा है वैज्ञानिक अन्ध-विश्वास उससे बढ़कर क्योंकि उसमें सामूहिक विनाश की परिस्थितियों का तेजी से विकास होता चला जा रहा है।

मनुष्य जाति की इस क्रूरता और बर्बरता का इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि अकेले ब्रिटेन में चिकित्सा सम्बन्धी खोजों में एक वर्ष में 50 लाख पशुओं और जीव-जन्तुओं का जीवन नष्ट किया जाता है इनमें से 87 प्रतिशत वे जीव होते हैं जिनकी चीरफाड़ सीधे बिना बेहोश किये होती है। उसे हत्या नहीं क्रन्दन, तड़पन और घोर उत्पीड़न ही कहना चाहिये। निरीह प्राणियों का यह मूक व्यथा क्या आकाश को शुद्ध और शान्त रख सकेगी। उससे प्राकृतिक परमाणुओं में ऐसी हलचल होगी जो पृथ्वी को उद्देश्य और उच्छृंखल मानवों से पाट देगी। विषाणुओं की मात्र इतनी बढ़ जायेगी कि हत्या उत्पात से जो बचेंगे उन्हें बीमारियाँ खा जायेंगी और इस तरह वर्तमान विज्ञान सामूहिक आत्महत्या के दुःखद अन्त में बदल जायेगा।

मानवीय भावनाओं और जीव दया का अन्त किस तेजी से हो रहा है उसका अनुमान करना हो तो चौधरी युद्धवीर सिंह द्वारा दिये गये 10 सितम्बर 1963 के लोक-सभा वे वक्तव्य को ढूँढ़ना पड़ेगा। उन्होंने बताया था कि पशुओं का जिस तेजी से वध किया जा रहा है वह न केवल मानवता पर कलंक है वरन् कृषि व्यवस्था में भारी संकट आने की सम्भावना है। उनके एक पत्र के उत्तर में कृषि-मन्त्री सरदार र्स्वर्णसिंह ने 1960-61 के 1314 सरकारों और 770 गैर सरकारी बूचड़खानों में बँधे हुये पशुओं की संख्या बताई वह इस प्रकार है-15649 सुअर, 277977 भैंस और 315512 अन्य पशु 4234888 भेड़े और 4502578 बकरियाँ थीं। तब से बूचड़खानों की संख्या में भी बढ़ोत्तरी ही हुई है। विज्ञान की यह पाशविक बुद्धि तो मनुष्य को अपने स्वार्थ के लिये किसी भी जीव का उत्पीड़न करने की सहमति प्रदान करती रहतीं है। मानवीय गुणों, दया, करुणा, प्रेम, उदारता, सहयोग, सौजन्य, सद्भाव का अन्त करके ही छोड़ेगी और उसके परिणाम निःसन्देह मानव जाति के लिये बहुत घातक होंगे

सर्वसाधारण की बुद्धि में इस तरह की कुरूपता इतनी चिन्ताजनक नहीं है जितनी उन वैज्ञानिकों की दुर्बुद्धि जिनको श्रेष्ठ मान कर आज का शिक्षित वर्ग अपने जीवन की मान्यतायें और धारणायें जमाता है। आज औषधि जगत में सल्फानोमाइड और एण्टीबायोटिक दवाओं की प्रसिद्धि से सब परिचित हैं किन्तु उनके घातक प्रभाव को कम ही लोग जानते होंगे। आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित एक पुस्तक में इन औषधियों के विषाक्त प्रभाव की चर्चा की गई है। मई 1959 के मेडिकल वर्ल्ड में ए॰ मेलविन रेमजे, एम़ ए एम डी रॉयल फ्री हॉस्पीटल लन्दन के कीटाणु जन्य रोग विभाग के चिकित्सक ने भी इनके प्रयोग को बंद करने की चेतावनी दी है। “लाँसेट” के सम्पादक ने अंक दो वर्ष 1955 में लिखा है कि इन दवाओं के प्रयोग से अस्पतालों में अनेक रोग फैल रहे है जैसे न्यूमोनिया और आँतों की सूजन। 1 सितम्बर 1956 के पृष्ठ 440 पर पेन्सलीन के घातक प्रभावों का वर्णन है। अमेरिका में 1954-1955 और 1956 की जाँच की गई और यह पाया गया कि देश भर में एण्टीबायोटिक दवाओं से 1665 लोगों पर घातक प्रतिक्रिया हुई, 1070 व्यक्ति तो बुरी तरह पीड़ित हुए 601 कर अन्त हो गया। जर्नल आफ अमेरिकन मेडिकल ऐसोसिएशन में डा0 डब्ल्यू हेरता ने लिखा है “इन दवाओं से अनेक नई बीमारियाँ पैदा होंगी” (1955 अंक 198 1815)। वैज्ञानिकों की चेतावनियों के बावजूद भी विज्ञान लोगों के जीवन में किस तरह हावी है इसे अन्ध-विश्वास न कहें तो और क्या कहें? उसे मानवीय संस्कृति के लिये लाल रोशनी या खतरे की घण्टी ही कहना चाहिये।

गाँधीजी की अहिंसावादी नीति के समर्थक डा0 हाल्डेन उन व्यक्तियों में से थे जिन्होंने प्रयोगशालाओं और बूचड़खानों में होती हुई निर्दयता को देखा था और उनका हृदय करुणा से भर गया था। तभी उन्होंने कहा था-प्राणियों पर प्रयोग करने की अपेक्षा मनुष्य स्वयं पर या अपने मित्रों पर प्रयोग करके कही अधिक सही परिणाम उपलब्ध कर सकते हैं।” प्रसिद्ध जीवशास्त्री डा0 जे0 बी0 एस॰ डाल्टेन ने अनुरोध किया था-मनुष्य स्वपीड़न का अनुभव करके पर-पीड़न का अनुभव करते उसे पता चले कि वह कितना बड़ा पाप प्रयोगशालाओं में विज्ञान के नाम पर कर रहा है। लोगों को और विशेष रूप से भारतीयों को अहिंसा की पद्धति से विज्ञान का विकास करना चाहिये, कट्टरता, नृशंसता और हत्या की पद्धति पर नहीं क्योंकि उससे मानवीय गुणों का अन्त होता है। जिस दिन ये गुण नहीं रहेंगे उस दिन मनुष्य स्वयं हो अपना शत्रु हो जायेगा।

हमारे ऋषि महान् वैज्ञानिक थे। उन्होंने गणित और सूक्ष्म बुद्धि से ब्रह्माण्ड की उन शक्तियों का पता लगाया था जिनके आगे चन्द्रमा की यात्रा बहुत छोटी है। औषधियों के जितने सात्विक प्रयोग और परिणाम एवं नाम हमारे सुश्रुत चरक और माधव निदान आदि ग्रन्थों में है उनका एक अंश भी एलोपैथी चिकित्सा में नहीं। सर्जरी का विकास भी भारतवर्ष में हुआ था। उसके लिये लोग अपने शरीर दे देते थे पर कभी किसी जीव को मारा या बचाया नहीं जाता था क्योंकि वे जानते थे कि उत्पीड़न और परपीड़न एक ऐसी सत्ता है जो चैतन्य विद्युत की तरह हैं जो अंततः मानव-जाति को ही नष्ट कर डालती हैं। मनुष्य को यह खतरा मोल न लेकर भावनाओं की अभिवृद्धि द्वारा अपनी सुख-शान्ति बढ़ानी चाहिये, वही सनातन नियम और मनुष्य का शाश्वत धर्म है।


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