सौंदर्य और प्रेम मनुष्य जीवन में दो ही आनन्द के मूल स्त्रोत हैं। समर्पण और साक्षात्कार-अपने को देना और अपने को पाना -यही मनुष्य जीवन की दो सर्वश्रेष्ठ साधनायें है। प्रेम की साधना-समर्पण और सौन्दर्य की साक्षात्कार। मनुष्य जीवन में जो इतना-सा दर्शन जान गया उसे ईश्वरीय की प्राप्ति के लिये और कहीं भटकने की आवश्यकता नहीं
सौंदर्य भी अन्ततः प्रेम का ही दूसरा स्वरूप है, उसकी आवश्यकता यों पड़ी कि मनुष्य प्रेम जैसी प्रति सूक्ष्म सत्ता को भूल सकता था। सौंदर्य तो उसकी गुण है ही पर जब वह व्यक्त होता है तब ही प्रेम की अनुभूति होती है, इसलिये सौंदर्य एक अन्य नाम देना पड़ा। सुन्दर वस्तुएँ देखकर अन्तःकरण, हृदय और मन में आकर्षण पैदा होता है। बार-बार उस वस्तु को स्पर्श करने का मन करता है। इसी आकर्षण का नाम ही प्रेम है और जहाँ प्रेम है वहाँ सुख और स्वर्ग विद्यमान् है।
सौंदर्य स्पर्श नहीं किया जा सकता। स्पर्शनीय ही आसक्ति और अज्ञान है सौंदर्य को देखकर जिसके मन में वासना की अग्नि प्रज्वलित हो उसे अपने आपको अपवित्र मानना चाहिये। सौंदर्य का आविर्भाव परमात्मा ने इसलिये किया है कि मनुष्य यह समझे कि दृश्य के भीतर जो चेतन प्राण-तत्त्व भरा हुआ है। वही दुःख, स्वर्ग और आत्म-साक्षात्कार का केन्द्र-बिन्दु है। जिस तरह उसे देखने मात्र से पुलक और प्रसन्नता का उदय होता है, उसी प्रकार यह भी आवश्यक है कि उसे बिगाड़ा या नष्ट न किया जाये इसलिये इस विराट्-विश्व में जो भी अगाध सौंदर्य बिखरा पड़ा है, उसे सच्चे ढंग से प्राप्त करने का एक ही उपाय है और वह है प्रेम।
प्रेम की परिधि बड़ी लघु, बड़ी विशाल है। प्रेम अणु और प्रेम ही विराट् ब्रह्माण्ड एक आदमी दूसरे के प्रति पुरुष, स्त्री के प्रति-स्त्री पुरुष के प्रति-इतर जन्तु-इतर जन्तु के प्रति आकृष्ट होता है। यदि कहें-क्यों? तो यही मानना पड़ेगा कि उनके भीतर कोई चैतन्य आत्मतत्त्व भरा हुआ है, जो सबको अपनी ओर खींचता है। आकर्षण की यह क्रिया छोटे-से-छोटे जीवों में भी हो रही है और बड़े-से-बड़े ग्रह-उपग्रह में भी। क्षुद्रता परमाणु से लेकर उच्चतम प्राणी तक सभी के विकास में संलग्न हैं। यह प्रेम सर्वशक्तिमान् और सर्वव्यापी है। प्रेम की प्रेरणा से ही विश्व में चेतनता गति, प्राण और हलचल दिखाई देती है। प्रेम न होता तो निराकार सृष्टि में रूखापन और उदासीनता ही दिखाई देती होती।
प्रेम व्यक्ति से नहीं आत्मा से किया जाता है। माँ के लिये बच्चे में कौन-सा आकर्षण होता है। वह न तो देखने में ही सुन्दर होता है और न उसकी वाणी में ही मधुरता होती हैं। जन्म से ही मल-मूत्र और कर्ण-अप्रिय रोने के सिवाय बच्चा और क्या देता हैं? कुछ
नहीं तो भी उसे बच्चे के लिये माता का हृदय रो उठता है। जैसे सिवाई गाय परवश जंगल चली तो जाती है पर जहाँ कहीं अवसर मिलता है, वह तृण आहार सब कुछ छोड़कर घर को भागती है भागने और अपने सध प्रसूत बच्चे के समीप तक पहुँचने से उसकी विरह व्यथा देखते ही बनती है। उसके रोमांच, श्वाँस से फूटती हुई प्रेम धारायें और उद्वेलित हृदय की प्यास, बच्चे के पास पहुँचकर उसके गन्दे शरीर को चाटने लगना यह सब देखकर कोई भी हो यही कहेगा-प्रेम ही भीतर की मान्यता है। मनुष्य पदार्थों से नहीं अपनी आत्मा से प्रेम करता है तो इसका एक ही अर्थ है कि उसने अपने आपको अज्ञान और धोखे में डाल रखा है। आत्मतत्त्व की प्राप्ति का मूल उद्रेक प्रेम है। प्रेम से ही आत्मा और प्रेम से ही परमात्मा को प्राप्त किया जाता है।”
मनुष्य अपनी उपस्थित अवस्था से सदैव उदासीन रहता है। वह अपने जीवन में एक ऐसे स्त्रोत को देखना चाहता है, जिसमें निरन्तर संगीत की मधुर-ध्वनि का-सा आनन्द करता हो वह उस स्त्रोत की खोज में रहता है जिसका सुख क्षणिक और आशिक न हो। जिसमें थकावट न हो। उसकी प्राप्ति में ही अनेक लालसाओं और इच्छाओं का जन्म हुआ। यद्यपि इच्छाएँ और लालसायें मनुष्य को भटकाती है, किन्तु उस मनःक्षेत्र में भी शांति, प्रसन्नता, अमरता, पवित्रता और निस्वार्थ प्रेम का अनुभव करना चाहता है, यदि उसकी समझ ने काम न दिया तो वह साँसारिक इच्छाओं और वासनाओं से संसार में निर्बल होता रहता है। मनुष्य आकर्षण का दास है, यदि इन्द्रिय भोगों की ओर आकर्षण पैदा हो गया तो वह अपने जीवन की चेष्टाएँ उसी ओर केन्द्रित कर देता है और अपने भीतर के चैतन्य तत्त्व को नष्ट करता है।,
निर्बल होते हुये प्राणी की भी एक ही इच्छा रहती है। और वह यह कि उसे प्रेम का अभाव न हो। ऐसे लोग न हों जो यह कहें-तुम मुझे अच्छे नहीं लगते।” मनुष्य अपने आप में अगाध सौंदर्य है पर अपनी भूल के कारण वह उस सौंदर्य से वंचित होता है पर आत्मा तो सौंदर्य और प्रेम की ही प्रतिमा है। इसलिये इस स्वाभाविक इच्छा को मनुष्य कभी त्याग नहीं सकता। यह परमात्मा की कृपा ही है कि आकर्षण हीन मनुष्य भी जब अपने भीतर प्रेम और सौंदर्य ढूँढ़ने का प्रयत्न करने लगता है तो उस भटकते हुए प्राणी को एक उजला प्रकाश दिखाई देने लगता हैं, उसे ऐसा लगता है कि अभी भी विश्व में एक ऐसी सर्वोपरि सत्ता विद्यमान् है, जो केवल प्रेम की ही सौदागर है। वह मनुष्य से धन नहीं चाहती, फल, फूल, कन्दमूल कुछ भी नहीं चाहती, उसे एक ही आकांक्षा है, प्रेम, प्रेम प्रेम-प्यार प्यार, प्यार। और उसे जो भी प्रेम देता है, बदले में वह उस पर अनन्त कृपा की जल-वृष्टि करता रहता है। वह शर्त नहीं लगाता, किन्तु प्रेम का बदला वह इतने गहरे प्रेम से चुकाता है, जिसे पाकर मनुष्य को और कुछ पाने की इच्छा भी नहीं रह जाती। अष्ट-सिद्धियाँ उसे हाथ जोड़ती, नव-सिद्धियाँ उसे हाथ जोड़ती, नव-सिद्धियाँ उसके पैर चाटती है।
वह विशुद्ध और निष्काम प्रेम भावना का है, आत्मसाक्षात्कार का हैं। इसका तात्पर्य यह नहीं कि संसार में और किसी का प्रेम तुच्छ और विभाज्य है। सच में तो प्रेम की परीक्षा ही यह है कि मनुष्य कुरूप-से-कुरूप और प्रत्येक समीपवर्ती वस्तु को भी उतना ही प्यार करता है या नहीं जितना वह अपने आपसे करता है। विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त चेतनाएँ परमात्मा के ही कण है। सोने की डली से प्रेम करने वाला जानता है कि उसका एक कण भी उतना ही मूल्यवान वस्तु के एक अणु को भी वह फेंकना और गिराना नहीं चाहता। एक-एक को बटोर कर ही तो स्वर्ण-राशि पाई जाती है, इसी तरह प्रेम के उपासक के लिये भी यह कटौती है कि वह कुरूप वस्तु से भी प्रेम कर सकता है या नहीं
हमारे लिये जो वस्तुएँ त्याज्य और बेकार की होती है, उन लकड़ी के डंडों, मिट्टी के खिलौनों को बच्चा इतनी प्यार की दृष्टि से देखता है कि कोई उन्हें छीनना चाहे तो वह इतना दुःखी हो जाता है, मानो उसके लिये अपना कोई अस्तित्व नहीं, मानो वह क्षुद्र
वस्तुएँ ही उसका जीवन है। वस्तुओं के प्रति प्रेम है, वह आत्मा की ही अभिव्यक्ति है उसी से विकसित होकर मनुष्य क्रमशः उपयोगी और आवश्यक वस्तुओं से प्रेम करना सीखता हैं। यदि वासनाओं और इच्छाओं की सीमायें घेरे नहीं तो इसी प्रेम-विकास के द्वारा वह एक दिन पूर्ण प्रेम अर्थात् परमेश्वर की प्राप्ति कर लेता है।
तात्पर्य यह कि हमारे लिये बच्चे का प्रेम, माता-पिता भाई और बहन का प्रेम भी परमात्मा के प्रेम की तरह विशाल और पवित्र हैं। कोई किसी वस्तु को उस वस्तु के लिये प्यार नहीं करता वरन् उसके अभ्यान्तरिक सत्य के लिये प्यार करता है, यहाँ तक कि यह स्वार्थपरता जिसको लोग इतनी निन्दा करते है, वह भी प्रेम का ही रूपान्तर है। यह छोटे-छोटे दृश्य मिलकर ही पूर्ण नाटक का आनन्द देते है। स्व और अहं का विस्तार क्रमशः घटता जाता है तो धीरे-धीरे उसे सम्पूर्ण जगत् ही आत्म-स्वरूप दिखाई देने लगता है। इस विराट् अनुभूति का ही नाम ‘ईश्वर प्राप्ति’ है।
प्रेम अमृत है, मधुर है और परमेश्वर भी। किन्तु वह एक कठिन परीक्षा भी है। क्योंकि उसमें देना ही देना है पाने की आशा प्रेम की परिभाषा के विपरीत है। यदि कोई अति भावुकता में आकर धैर्य की परित्याग करता है तो वह वास्तविक बुद्धि और पवित्रता बनाये
नहीं रख सकता। इन्द्रिय सुखों के आकर्षण बार-बार घेरते हैं, शीघ्र बाजी में कई बार उस साधना से लोग भ्रष्ट है। जाते है और फिर गिरते ही चल जाते है। इस अवस्था से बचने का एक ही उपाय है, प्रेम के ईश्वरीय और दिव्य स्वरूप को अन्तःकरण में मजबूती से धारण कर लेना। जब यह विश्वास हो जाये कि अब मेरे मन से क्षुद्र वासनाओं का, स्वार्थ, मोह माया आसक्ति का, अन्त हो गया तो फिर अपनी प्रेम-परिधि को जितना बढ़ाया जायेगा उतना ही आनन्द मिलेगा। ऐसा करना निष्काम कर्मयोगी और तपस्वी के लिये ही सम्भव है। परिधि बढ़ती है तो अपने जीवन की प्रत्येक सम्पत्ति चाहे वह बौद्धिक हो, आत्मिक या शारीरिक घुलानी पड़ती है प्रेमास्पद के लिये। तिल-तिल गलने में ही प्रेम की वास्तविकता है। वही एक दिन सच्ची तृप्ति और आत्मसाक्षात्कार का मार्ग खोल देती है।
यह जीवन देने के लिये ही है। अपने को उत्सर्ग करने, देने का नाम ही प्रेम हैं। इसे जितना देते हैं, जितना औरों की सेवा में लगाते है, यह उतना ही बढ़ता है। सब कुछ देकर भी वह पूरे का पूरा बच जाता है। देना उत्सर्ग और समर्पण नाम अलग-अलग है, सब एक ही प्रेम के पर्याय है। शाश्वत चेतना से हमारा सम्बन्ध-विच्छेद हो गया है उसे पाने के लिये अपने आपको पूरी तरह घुला देने का नाम ही प्रेम और साक्षात्कार है। उसके बिना जीवन अपूर्ण ही बना रहता है। प्रेम ही मानव का स्वभाव है और उसी से वह अपनी अपूर्णता पूरी करता है, जो उससे इतर सौंदर्य की खोज करता है वह तो भटकता ही है। प्रेम से मधुर और कुछ भी इस संसार में नहीं है।