एषणाओं की आग में न जल मरे

July 1969

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बुद्धिमान का एक लक्षण यह बतलाया गया है कि वह अपने विचार जगत में किसी ऐसे कारण को प्रवेश नहीं करने देता है जिसके साथ असन्तोष के अग्निकण आने की सम्भावना होती है। मानसिक शांति मानव जीवन की बहुमूल्य निधि है, सन्तोष ही मनुष्य का सच्चा धन है।

सर्व सुख सम्पदाओं से भण्डार भरा हो, किन्तु मन में शान्ति की शीतलता न हो, हृदय हर समय अभाव जैसे सन्ताप से जलता रहे तो उस सारी सुख सम्पदा का क्या महत्व तब तो वह मिट्टी माल की भी नहीं रहो। घर की स्थिति सामान्य है, मजे से रोटी दाल चल रही है, कोई आवश्यकता रुकने नहीं पाती, थोड़े से प्रयत्न से समस्या हल होती जा रही है और साथ ही मन में प्रसन्नता, शान्ति तथा अखेद की शीतल छाया विद्यमान् है तो वह सामान्य गृहस्थ सौ धन कुबेरों से भी अधिक सम्पन्न माना जायेगा। निर्धन होने पर भी धनवान् और अनाधिक्य में भी प्राचुर्यवान ही कहा जायेगा। धन, वैभव, साधन, सम्पदायें अपने में कोई मूल्य नहीं रखती, प्रमुख वस्तु तो मानसिक शान्ति तथा सन्तोष ही है।

मनुष्य मन में असन्तोष की आसुरी आग तब भयानक रूप से प्रचण्ड हो उठती है, जब वह किन्हीं एषणाओं से घिर जाता है। एषणायें बड़ी ही दुष्ट एवं दुःखदायिनी होती है, जिसके पीछे लग जाती है प्रेत की तरह उसके सुख सन्तोष का हरण कर लेती है। मनुष्य की कोई भी कामनायें जब तृष्णा के रूप में बदलकर अनियन्त्रित अथवा अमर्यादित हो जाती है तब एषणाओं की संज्ञा पाती हैं। संसार की तीन एषणायें बड़ी प्रबल बतलाई गई हैं। वित्तैषणा, पुत्रैषणा तथा लोकैषणा

मनुष्य की यह तीनों तृष्णायें कभी तृप्त नहीं होती। आवश्यकता भर ही नहीं, आवश्यकता से हजार लाख गुना अधिक क्यों न हो तिजोरी, बैंक, डाकखाने धन से भरे पड़े हों तब भी पेट नहीं भरता और और की रट लगी ही रहती है। सारे समय, सारे श्रम तथा प्रयत्न के साथ धन बटोरने में लगे रहते है। नोटों की गड़रियों पर गड्डियाँ संभालते है आय का विस्तार संभाल तथा गणना के परे है तब भी और और की प्यास नहीं बुझती। पहले आवश्यकता पूरी हो जाये, फिर कुछ बचे भी, अनन्तर बचत ही नहीं, आय भी बढ़े हजार हो जाय, लाख हो जाये, करोड़ों अरब हो जाये इस तरह यह पूर्ण होती रहने पर भी यह पिशाचिनी वित्तैषणा बराबर बढ़ती और असन्तोष बढ़ाती ही चली जाती है। जिसके जीवन के साथ इस प्रकार की ‘और’ की हाय लगी हो उसका जीवन दो क्षण की सुख सन्तोष की शीतल छाँह अनुभव कर लें, ऐसा उसके भाग्य में नहीं होता। वह तो इसी आवश्यक ‘और’ की हाय-हाय में जलता-गलता हुआ अपना सारा जीवन समाप्त करेगा।

जिसको पुत्र न हो उसकी बात छोड़ दीजिए- हालाँकि पुत्र अथवा पुत्री में कोई अन्तर नहीं होता, तथापि कुछ सामाजिक मान्यताओं की न्यूनता और कुछ विचार दोष के कारण भारतीय समाजों में पुत्र को पुत्री से अधिक महत्व दिया जाता है। जिसके पुत्रियाँ ही पुत्रियाँ हों पुत्र न हो वह अपने को अभागा अथवा सन्तान हीन सा ही अनुभव करता है। उसके सोचने का ढंग यह होता है कि कुछ दिन बाद बेटियाँ अपनी ससुराल चली जायेंगी और तब हमारा घर सन्तान हीनता जैसी स्थिति में हो जायेगा। पुत्र होने पर ऐसा नहीं होता। यद्यपि, यदि पुत्र होने पर उनकी शिक्षा दीक्षा ठीक न हुई और वे निकम्मे, आवारा हो गये तो वह त्रास, वह शोक सन्ताप पुत्र न होने से भी गुना बढ़कर होता है तथापि लोग ऐसी दशा में भी पुत्रों के लिए रोते कलपते रहते है। बेटियाँ यदि एक बार न भी पढ़ लिख जायें तब भी उनकी अशिक्षा उन्हें लड़कों जैसा दृष्ट तथा उद्दण्ड नहीं बना पाती। वे कुशल एवं कलापूर्ण गृहिणी भले न हों पायें किंतु नालायक लड़कों जैसी दुःखदायिनी नहीं होती।

लड़कियाँ हों और लड़का न हों तो इसमें किसी प्रकार का असन्तोष नहीं होना चाहिए। लड़कियों में ही लड़कों का भाव रखा जा सकता है। उन्हें ही लड़का मानकर सारा लाड़-प्यार दिया जा सकता है। लड़कों की तरह उनकी शिक्षा-दीक्षा को भी उन्नत से उन्नतोतर स्थिति में उठाया जा सकता है और यह भी सत्य है कि वे इस उपकार का लड़कों से कही बढ़कर तथा सन्तोषप्रद उत्तर देती है। लड़कियाँ स्वभावतः लड़कों से अधिक कृतज्ञ भावना वाली होती है। लेकिन पुत्रैषणा का प्रेत मनुष्य को पुत्रियों पर ही सन्तुष्ट नहीं होने देता।

पुत्रैषणा पुत्र पाकर भी तो सन्तुष्ट नहीं होती एक-दो चार-छः-दस क्यों न हो तब भी ग्यारहवाँ पाने की इच्छा बनी रहती है और होने पर खुशी ही रहती है। यह जानते हुए भी कि पुत्रों की यह परम्परा जी की जंजाल बन जायेगी। इन सबको पढ़ा-लिखाकर योग्य तथा सुसभ्य नहीं बनाया जा सकता। इनमें से अनेक निकम्मे बनकर जीवन भर सर पर चढ़े रहेंगे तब भी लोगों का पुत्रों से पेट नहीं भरता। भरे भी कैसे पुत्रों की कामना उनके पीछे ‘एषणा’ बनकर पीछे जो लग गई है।

फटे हाल, नंगे, रोगी और निकम्मे क्यों न फिरें, किन्तु पुत्रैषणा पिता पुत्रों की परम्परा से कभी तृप्त नहीं होता। उसे अनेक के बाद और की कामना सताया ही करती है। ऐषणाओं में अतृप्ति का दोष होता ही है।

लोकैषणा भी कुछ कम दुःखदायी नहीं होती। साधारण नागरिक है। सभ्यतापूर्ण ढंग से पास-पड़ोस में सहयोग तथा सौजन्य से रह रहे है। चार आदमियों से भले कहे जाते है। जीवन निरुपद्रव तथा शांतिपूर्ण ढंग से चल रहा है कि इतने से संतोष नहीं सारा नगर क्यों नहीं जानता। जुबान-जुबान पर चर्चा क्यों नहीं है, कही भी कोई सभा-समिति क्यों न हो, उन्हें पहले बुलाया और स्थान दिया जाना चाहिये। अधिकारियों में पूछ होना चाहिये, जनता में प्रतिष्ठा की योजना बनी रहे।

किन्तु यह कामना यही तक कहाँ रुकती है? एषणा बनते ही आगे बढ़ चलती है। पूरा प्रान्त, पूरा देश नाम ले, संसार में प्रतिष्ठा तथा कीर्ति फैले- इस तरह संसार की ऊँची-ऊँची कल्पनाएँ लोकैषणा व्यक्ति को सताया ही करती है। उकसा जितना मान-सम्मान होता है उतना वह उसको अधिक पाने के लिये लालायित रहा करता है। अपने हर सम्मान को वह कम ही अनुभव करता है। लोग सिर आँखों पर ही क्यों न बिठा ले तब भी लोकैषणा का पिशाच हृदय में संतोष की शीतलता नहीं आने देता।

लोकैषणा में एक दोष लोक भीरुता का भी होता है। जो जितना लोकप्रिय बनने का प्रयत्न करता और बनता है वह उतना ही इस बात से भयभीत रहता है कि कही उसकी प्रतिष्ठा कम न हो जाये। लोकप्रियता में व्यवधान न आ जाये कही ऐसा न हो कि लोग उसकी निन्दा करने लगे। जिसका फल यह होता है कि उसे न रात चैन आता है और न दिन में निश्चिन्तता मिलती है। उसे हर समय लोगों की गतिविधि देखने तथा मनो-भाव पढ़ने-जानने के लिये कौवे की तरह सतर्क तथा सचेष्ट रहना पड़ता है। लोकेष्णु व्यक्ति अपनी निन्दा तो दूर स्वस्थ आलोचना भी नहीं सहन कर पाता। वह आलोचना करने वाले का मन ही मन विद्वेषी बन जाता है और उसका बुरा ही नहीं चाहने लगता, नुकसान पहुँचाने, अहित करने की भी चेष्टा किया करता है।

दूसरों से ईर्ष्या करना, किसी को आगे न बढ़ने देना, बढ़े हुए को पीछे खीचना लोकेष्णु का सहज स्वभाव होता है। वह न तो किसी की उन्नति सहन कर सकता है और न किसी को आगे बढ़ा हुआ देख सकता है। दूसरों की लोकप्रियता की मृत्यु मालूम होती है। इसी कारण वह छुपी-छुरी की भाँति भीतर ही भीतर लोगों का काट करता रहता है। अपनी लोकप्रियता बनाये रखने और दूसरों की मिटाने के लिये दुरभिसंधियों, षड्यंत्रों तथा पूर्णता का आश्रय होता रहता है। हर समय लोक भय से भयभीत हो उसे कुचेष्टा के अंतर्गत अपना जीवन चलाना पड़ता है। मनुष्य के लिये ऐसी असंदिग्ध तथा अविश्वासपूर्ण जिन्दगी एक जीते-जागते नरक के समान ही होती है जो किसी प्रकार भी वाँछनीय नहीं कही जा सकती।

सामान्य कामनाएँ, फिर वह किसी विषय में क्यों न हो, स्वाभाविक अधिकार है। किन्तु एषणा का दोष उसे उसके जीवन को एक बन्दी जीवन में बदल देता है। बुद्धिमानी इसी में है कि एषणाओं के ‘मायावी’ जाल से बचते हुये और अपनी सहज सामान्य कामनाओं की पूर्ति का प्रयत्न करते हुये जीवन को अधिक से अधिक सन्तोष, शांति तथा सुख से बिताया जाये। एषणायें कितनी ही ऊँची क्यों न हो उनकी पूर्ति किसी सीमा तक क्यों न हो जाये किन्तु मनुष्य की तृप्ति नहीं होती।

पुत्रैषणा का दूसरा नाम कामवासना है। जिसमें पड़कर लोग व्यभिचारी, काम पशु तथा मर्यादाहीन बन जाते है। उसी प्रकार वित्तैषणा की पिशाचिनी मनुष्य को चोर भ्रष्टाचारी, काला बाजारी और बेईमान बना देती है। लोकैषणा से मनुष्य को आचरण मिथ्यात्व से दूषित हो जाता है। अपनी लोकप्रियता के लिये वह ऐसे-ऐसे काम तक कर बैठता है जिन्हें देख कर घृणा होती है।

मानव-जीवन एक अनुपम अवसर है। यह बार-बार नहीं मिलता। इसे इस प्रकार एषणाओं की आग में जलाकर नष्ट कर डालना किसी प्रकार भी उचित नहीं ईश्वर ने इसका अनुग्रह किया ही इसलिये है कि जीव इस शाश्वत सुख-शांति को पाने और स्थिर बनाने का उद्योग करे जो उसकी आत्मा के बन्धन काटने में सहायक होती है। आकांक्षाएँ बुरी नहीं यदि वे उचित तथा अनुकूल है। किन्तु एषणाएं तो हर प्रकार से दुष्ट तथा दुःखदायिनी ही है। यह लोक का सुख तथा परलोक की गति भ्रष्ट कर डालती है। अपनी आकांक्षाओं एवं महत्त्वाकाँक्षाओं का दोष तो नहीं है और यदि ऐसा हो तो तुरन्त ही उसे निकाल फेंकने के प्रयत्न में लग जाइये।


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