श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्

July 1969

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सूर्योदय को अभी थोड़ा विलम्ब था पर अन्तरिक्ष में भगवती ऊषा का आगमन हो चुका था। ऋषियों के आश्रमों में रहने वाले स्नातक एवं वानप्रस्थी सब अपने-अपने साधना गृहों में आसीन भगवती गायत्री के ध्यान, स्मरण, स्तोत्र और जप में तल्लीन हो चुके थे। ऐसी पुण्य बेला में भी महर्षि व्यास के आश्रम का एक तरुण साधक- साधक ही क्यों उनके ही यशस्वी पुत्र स्वयं शुकदेव ने शैया का परित्याग नहीं किया था। यद्यपि वे जग चुके थे पर उनकी मुखाकृति देखने से पता चलता था उसके अन्तस्तल में अन्तर्द्वन्द्व चल रहा है। मन कुछ खोजने का प्रयत्न कर रहा है किन्तु बुद्धि उचित समाधान कर पाने में असमर्थ है।

शयन -शैया का परित्याग किया पर शुक का अवसाद यथावत। शौच, मुख मार्जन और देह प्रक्षालन करने के बाद भी आज वह अपने उपासना स्थल में नहीं गये। एक वृक्ष की चौपालिका पर तने का आश्रय लिए शुक तब तक एक सी स्थिति में बैठे रहे जब तक पिता श्री अपने साधना भवन से बाहर नहीं निकले। शुक ने उन्हें सादर प्रणाम किया। विवर्ण मुख मुद्रा देखते ही भगवान् व्यास ने पूछा- शुक तुमने उपासना कर ली? यज्ञ की समिधाएँ और हविव्पात्र यज्ञ स्थल पर पहुँचा दिया? कहो-कहो आज कुछ बेचैन से दिखाई दे रहे हो कोई बात हुई है क्या?

पिता के स्नेह पूर्ण शब्दों से आश्वस्त होते हुए शुक ने अपनी अंतर्व्यथा व्यक्त करते हुए बताया-भगवन् दो दिन से मैं समाधि के लिये निरन्तर प्रयत्न करता हूँ, किन्तु जब भी उसके लिये चित्त एकाग्र करता हूँ तभी मेरे मन में - यह संसार कहाँ से बना, इस की निवृत्ति क्या है, मैंने अपना संसार क्यों बनाया, मुझे पूर्ण आनन्द क्यों नहीं प्राप्त- ऐसे प्रश्न उठने लगते है उनसे चित्त की एकाग्रता भंग हो जाती है और मैं हर बार समाधि में प्रविष्ट होने से वंचित रह जाता हूँ?

भगवान् व्यास ने कुछ क्षण रुककर विचार किया और बोले- तात्! तुम्हारे प्रश्नों को समाधान करने को स्थिति मुझ में नहीं है। पर मुझे मालूम है महाराज शौरध्वज सर्वत्र ज्ञाता है उन्होंने वेद-तत्त्व का अध्ययन भी किया है अवगाहन भी निःसंदेह तुम्हारे सभी प्रश्नों का उचित समाधान वही कर सकते है। तुम वही चले जाओ

शुक ने उसी दिन मिथिला के लिये प्रस्थान किया। और सायंकाल होने से पूर्व ही वहाँ पहुँच गये। द्वारपाल से उन्होंने महाराज जनक तक अपना संदेश पहुँचाया। द्वारपाल ने भीतर जाकर महाराज को बताया-विद्वान् शिरोमणि व्यास के पुत्र कुमार शुकदेव पधारे है आपसे भेंट करना चाहते है।

व्यास के पुत्र शुकदेव का मेरे पास आना साधारण बात है। व्यासदेव धर्म-तत्त्व ज्ञाता है विद्वानों की उलझी हुई गुत्थियाँ उन्हीं से सुलझती है अवश्य ही उन्होंने शुक को पात्रता की परीक्षा के लिये भेजा है- ऐसा विचार करके जनक ने प्रहरी से कहा-तुम जाओ-शुक से कुछ मत कहना केवल उनकी गतिविधियों पर दृष्टि रखना।

प्रतीक्षा करते हुए बहुत समय बीत गया। कोई उत्तर न मिलने से शुकदेव अपने स्थान पर निश्चल खड़े रहे। रात्रि भी उन्होंने प्रतीक्षा में ही काटी। दूसरे दिन किसी ने उन्हें जल और भोजन के लिये भी नहीं पूछा पर शुकदेव अपने स्थान पर यथावत् खड़े रहे। “यदि मेरे पिता ने मुझे महाराज जनक के पास भेजा है तो अवश्य ही उन्होंने किसी विश्वास पर ही भेजा होगा। मुझे अपने प्रश्नों का निर्णय लेकर ही लौटना चाहिये” शुक के मस्तिष्क में ऐसे ही भाव उठते रहे। इसी स्थिति में उन्होंने सात दिन व्यतीत किये।

सातवें दिन महाराज जनक ने द्वारपाल को आज्ञा दी- उन्हें भीतर भेज दो। अन्तःपुर के एक अत्यन्त सुसज्जित भवन में राज-बंधुओं और सुन्दर बाराँगताओं ने शुक का स्वागत किया। महाराज की आज्ञा ही कुछ ऐसी थी। संसार के जो भी सुखोपभोग सम्भव थे वह सब जुटाये गये। मणि-विभूषित भवन और उसके चंदन चर्चित प्रकोष्ठ उस पर मुक्तकों और लता-बल्लियों की झालरे ही मन को विमोहित करने के लिये बहुत थी पर वहाँ की तो प्रत्येक वस्तु से सौंदर्य और विलास टपक रहा था। सौंदर्य राशि का मिनियों से लेकर वस्त्राभूषण और षट्रस व्यंजन तक किसी भी वस्तु का न कोई अभाव था और नहीं प्रतिबन्ध। शुक उन सबके स्वामी थे। वह किसी भी वस्तु का मनचाहा उपभोग कर सकते थे यह उन्हें अतिथि भव में प्रदेश कराते समय ही बता दिया गया था।

शुक कौमार्य की सीमा पार कर तारुण्य के प्रथम आरोह पर पदार्पण कर रह थे। यह वह समय होता है जब मन सुखोपभोग और वासना की तृप्ति के लिये मचलता है। फिर आज तो वह सब साधन शुकदेव को अनायास ही मिल गये थे उनके सौभाग्य का आज कोई अन्त न था।

पर तो भी शुक इस व्यवस्था से सन्तुष्ट नहीं दिखाई दे रहे थे। देखते तो वह सभी वस्तुएँ रहे पर पूर्णतया शोध-दृष्टि से उनके मस्तिष्क में जो प्रश्न अपने लिये चल रहा था, सृष्टि के प्रत्येक परमाणु के लिये भी वही कल्पना थी। नारियों का यह अक्षय सौंदर्य कहाँ से बना? इन लताओं और झालरों का उद्गम क्या है? क्या यह सब वस्तुएँ जरावस्था प्राप्त हुए बिना यों ही बनी रहेगी? नष्ट होकर यह सौंदर्य कहाँ चला जाता है? क्या ऐसा कोई उपाय नहीं जिससे उस सौंदर्य की राशि को अपने भीतर इस तरह उठाकर रख लिया जाये कि फिर कभी सुख और आनन्द के लिये कही भटकना ही न पड़े? शुक के मन में इन प्रश्नों में मोह-माया आकर्षण क्या वासना को बुझाकर रख दिया। जो सुन्दरियाँ शुक के तारुण्य का सुख लूटने के लिये एकत्रित हुई थी वह मध्याह्न के तपते तरणि से मुरझा गई लताओं की तरह आकर्षण-विहीन हो चली। शुक ने इसी अवस्था से सात दिन व्यतीत किये। न तो उन्हें वासना विचलित कर पाई और न साँसारिक सौंदर्य ही आकर्षण में बाँध सका।

महाराज जनक के चतुर संवाहक उन्हें शुक की एक-एक गतिविधि की खबर देते रहते। सात दिन तक इस अवस्था में भी बिता देने के पश्चात् शुक को सभा में आमन्त्रित किया। शुकदेव जिन्होंने सम्पूर्ण शास्त्रों का स्वाध्याय और अनुशीलन किया था जिनके पिता इतने प्रकाण्ड विद्वान् थे कि सारा संसार उन्हें मस्तक टेकता था वही शुक निरहंकार भाव से सभा मण्डप में गये और महाराज का गुरुभाव से प्रणाम कर एक ओर आसन पर बैठ गये। महापण्डित के इस विनम्र आचरण पर सम्पूर्ण सभा गद्-गद् हो गई।

आमात्यों, सचिवों और सभासदों के सामने बालक शुकदेव से जनक ने अपने प्रश्न पूछने को कहा- शुकदेव ने कहा-महाराज मैंने शास्त्रों का गहन अध्ययन किया है तो भी मुझे परमानन्द की प्राप्ति नहीं हुई। मैं उसका रहस्य जानने के लिये आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूँ।


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