यह संसार मनुष्यों तथा मनुष्येत्तर प्राणियों से परिपूर्ण है। इसमें भूमि पर चलने वाले सरकने, रेंगने और घिसटने वाले प्राणी हैं। आकाश में दूर तक उड़ने वालों से लेकर पृथ्वी से थोड़ी ऊँचाई पर हवा में विचरने वाले और मगर, मत्स्य आदि भीमकाय जल जीवों के साथ-साथ नन्हे-नन्हे कीड़े-मकोड़े तक इस संसार में वर्तमान हैं। इन सभी प्राणियों को एक ही परमपिता परमात्मा ने उत्पन्न किया है। उसका सब पर प्रेम हैं। सबके जीवनयापन की सुविधा का प्रबन्ध उसने किया है। साथ ही वह सब का अधिष्ठाता एवं नियन्ता भी है।
सही है कि संसार के सारे प्राणियों का उत्पन्न कर्ता एक परमपिता ही है। किन्तु उस एक ही पिता की असंख्य सन्तानों के बीच बड़ा भारी अन्तर भी पाया जाता है। उस पिता ने किन्हीं एक प्राणियों को अन्य प्राणियों की उपेक्षा श्रेष्ठ स्थिति का अनुग्रह किया है। मानवेत्तर प्राणियों के बीच ही यदि तुलना की जाये तो कीटाणुओं से कीट-पतंग और कीट-पतंगों से वन-पशु वन-पशुओं से गृह पशु और गृह-पशुओं से पक्षी अच्छी स्थिति में दिखलाई पड़ेंगे। उनमें भी कोई पशु अधिक बलवान्, रूपवान्, स्वच्छ एवं सौम्य है, कुछ गंदे और बर्बर। पक्षियों में कुछ पक्षी तो सुन्दर रंगों वाले, सुडौल और नीलकंठ वाले मिलेंगे। दूसरे कुरूप, भौंड़े और कर्कश कण्ठ वाले गंदे और गलोज दृष्टिगोचर होंगे।
प्राणियों का यह अन्तर काफी बड़ा, स्वाभाविक और समीचीन है। यों तो देखने में यह परमात्मा का पक्षपात पूर्ण अन्याय-सा लगता है कि उसने कुछ को सुन्दर, पवित्र और आकर्षक बनाया और कुछ को ठीक इसके विपरीत। किन्तु इसमें परमात्मा के पक्षपात का रंच-मात्र भी नहीं परमपवित्र और सबके पिता परमात्मा में इस प्रकार के दोष की कल्पना भी नहीं कर सकते। वह तो सर्वकाल और देश में सम्मान रूप से पक्षपात रहित एवं न्यायपूर्ण है। यह श्रेष्ठ एवं निकृष्ट योनियों और स्थितियों का बटवारा हर प्रकार सही तथा निश्चित ही है।
सत्य यह है कि इस सृष्टि में नीचे से लेकर ऊपर तक, निकृष्ट से लेकर श्रेष्ठ तक योनियों में एक स्तर क्रम चला आया है। यह वस्तुतः जीवों की निम्नोत्तर कक्षाओं की एक सम्बद्ध शृंखला चली गई है। जीव अपने कर्मानुसार नीचे से उच्चतर योनियों अथवा कक्षाओं को उत्तीर्ण करता हुआ उच्चतम स्थिति में पहुँचता रहता है। इन श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर योनियों का क्या क्रम है, इनमें सबसे निकृष्ट कौन सी योनि है, अथवा किस शरीर की यात्रा समाप्त करने के बाद कौन-सा शरीर, कौन-सी योनि मिलती हैं? इसका स्पष्ट ज्ञान अभी मनुष्य को प्राप्त नहीं हो सका है। इतना तो स्पष्ट है ही कि मानवीय कर्मयोनि को छोड़कर अन्य सारी भोग-योनियों में जीवों को एक के बाद एक उच्चतर योनि ही मिलती जाती है, जिसकी परिसमाप्ति मानव योनि में आकर हो जाती है, और तब पुनः यही से कर्मानुसार या तो मनुष्य और ऊपर बढ़कर देवयोनि प्राप्त करता है अथवा अपने पुरुषार्थ एवं कर्म के अनुसार ऊँची-नीची भोग-योनियों में लौट जाता है। कीट से लेकर मोक्ष तक की स्थिति मनुष्य का कर्मानुसार अपना स्वयं का उपार्जन है। इसमें न तो परमात्मा का हस्तक्षेप होता है और न उसका पक्षपात
भोग-योनि में पड़े प्राणियों के बीच किसको, किसमें अधिक क्या सुविधा मिली हैं? इस विषय में विचार किया जाये कि मानवों और मानवेत्तर प्राणियों के बीच सुविधाओं एवं साधनों के सम्बन्ध में क्या अन्तर है और उसका क्या उद्देश्य है। क्योंकि हम सब मानव है और दूसरों के विषय में विचार करने से पूर्व अपनी दशा पर, अपने कर्तव्यों और उद्देश्यों पर विचार करना अधिक उचित है।
मनुष्य शरीर ईश्वर का सर्वश्रेष्ठ उपहार है। इन्द्रियों, वाणी, बुद्धि, विद्या, ज्ञान और कल्पना-शक्ति के रूप में जो सुविधाओं मनुष्य को प्राप्त है, जो आनन्द एवं उल्लास की सम्भावनायें मनुष्यों के लिये सुरक्षित हैं, वे सृष्टि के अन्य प्राणियों के लिये अप्राप्य हैं, आहार, निवास, सुरक्षा, सामाजिकता, सहयोग, पारस्परिकता, चिकित्सा, यातायात, मनोरंजन, कला-कौशल साहित्य, धर्म, अध्यात्म आदि की उपलब्धियाँ एवं कलायें जिनको कि हम मानव-जीवन में देखते सुनते तथा उपभोग करते है, संसार के अन्य प्राणी उन उपहारों से सर्वथा वंचित है। वे न तो इसके लिये प्रयत्न ही कर सकते हैं और न प्रयत्न करने पर पा ही सकते है। मनुष्य की तरह उनको वर्तमान स्थिति से आगे बढ़ सकने का कोई अधिकार नहीं है। क्योंकि वह भोग-योनि है, उसमें कर्म द्वारा उन्नति करने का अवसर नहीं है। यह अवसर केवल मनुष्य मात्र को ही उपलब्ध है कि वह अपने कर्मों द्वारा अपना वर्तमान स्थिति का बदल सकता है। इस प्रकार अन्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य कितना सुखी, सम्पन्न, समृद्ध एवं भाग्यवान् है, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। अब यदि इस अलभ्य अवसर को मनुष्य योंही प्रमाद में व्यसन एवं वासनाओं में नष्ट-भ्रष्ट कर देता है तो यह उसके लिये भयानक दुर्भाग्य की ही बात होगी।
हम मनुष्य मात्र संसार के सभी प्राणियों की अपेक्षा अधिक बुद्धिमान् तथा शक्ति सम्पन्न है। जो शक्तियाँ परमात्मा में बतलाई जाती है, वे सब हममें बीज रूप में निहित है। मनुष्य संसार में ईश्वर का अंश, उसका प्रतिनिधि ही माना गया है। उसे संसार के अन्य प्राणियों पर विद्या, बुद्धि एवं विवेक द्वारा शासन करने का अधिकार मिला हुआ है। इस प्रकार हम जीव सृष्टि में प्राणि मात्र में प्राणियों के सर्वोच्च स्तर पर विद्यमान् है।
अब विचार यह करना है कि हम मनुष्यों को क्या यह सत्ता, यह शक्ति, यह शासन, यह सुविधा और यह साधन पूर्ण गुण-गौरव योंही व्यर्थ में निरुद्देश्य ही दे दिया गया हैं? अथवा इसके पीछे कोई उद्देश्य भी निहित है।
सृष्टि का एक साधारण नियम है कि किसी भी ऊँचे अनुदान के पीछे कोई ऊँचा उद्देश्य भी निहित रहता है। अधिकारों की पूर्ति कर्त्तव्यों में ही होती है। जैसे 2 जिसका अधिकार बढ़ता जाता है, पदोन्नति होती जाती है। वैसे वैसे उसी अनुपात से उसका कर्त्तव्य तथा उत्तरदायित्व भी गुरुतर होता जाता है। एक सिपाही जब तक सिपाही है, तब तक उसका अधिकार क्षेत्र भी सीमित है और उत्तरदायित्व भी न्यून है। पर ज्यों ही वह उन्नति करके कप्तान हो जाता हैं, त्यों-ही उसकी सुविधाओं तथा अधिकारों के साथ अधिकार भी बढ़ जाता है। सिपाही रहने तक उसका उत्तरदायित्व केवल उस क्षेत्र की व्यवस्था तक ही सीमित था, जिस स्थान पर वह नियुक्त था। किन्तु कप्तान का उच्च पद पाते ही उस सारे नगर का ही नहीं, पूरे जिले की व्यवस्था का उत्तरदायित्व आ जाता है। वास्तविक बात यह है कि अधिकार अपने में कोई अस्तित्व नहीं रखते। पद, पदवी, अधिकार एवं सत्ता, कर्तव्यों तथा उत्तरदायित्व की ही परिचायक स्थितियाँ हैं। जो व्यक्ति भी अधिकारों को केवल अधिकार मानकर उनका दुरुपयोग करने लगता है, शीघ्र ही उसका अधिकार छीन लिया जाता है और उस पर मुकदमा चलाकर समुचित दण्ड भी दिया जाता है।
मनुष्य प्राणि जगत् में सबसे बड़ा पदवी पति है। निदान उसका उत्तरदायित्व भी अन्य प्राणियों से कही अधिक बड़ा और विशाल है। उसे यह सब साधन, सत्ता तथा अधिकार मिलने का उद्देश्य यही है कि वह अपनी उपलब्धियों को अपनी सारी विशेषताओं को, धन-वैभव और ऐश्वर्य को, विद्या एवं विभूति को भगवान् की इस अखिल सृष्टि की अधिक सुन्दर, अधिक सुखी, अधिक समृद्ध, विकसित, उन्नत तथा सम्पन्न बनाने में उपयोग करे। उसे समझना चाहिये कि उसके विशाल अधिकार इस बात के सूचक हैं कि वह संसार के सारे प्राणियों को उनका हित सम्पादित करने के अपने कर्त्तव्य का पालन करें। उसे यह सब प्रसाद एवं प्रभुता इसलिये नहीं दी गई है कि वह इन सब का उपयोग मात्र अपनी अथवा अपने परिवार की उन्नति, विकास एवं सुविधा के लिए ही करे। यदि इस पुरस्कार का केवल यही उद्देश्य रहा होता, तब तो इस अनुमान का कोई अर्थ ही न रहता। अपना स्वार्थ तो कीड़े-मकोड़े योंही बिना किसी विशेष अधिकार एवं सुविधा के ही पूरा कर लेते हैं। यदि केवल अपना पेट भरते रहना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य रहा होता तो निश्चय ही परमात्मा ने इस मनुष्य को एक स्वरूप, एक आकार भर देने के अति-
रिक्त अन्य कोई भी विशेषता न दी होती और तब यह मनुष्य केवल आकार-प्रकार में भिन्न अन्य प्राणियों की भाँति ही स्तरीय दृष्टिकोण से भोग-योनि वाला ही रहता और अपनी जन्मसिद्ध अवस्था से एक इंच भी इधर-उधर न हट पाता। पशु-पक्षियों की तरह नंग-धड़ंग शौचालय के विचार से रहित नाली, कूड़े में अपना आहार खोजता और पेट भरता घूमता है।
मानव जीवन का सारा उद्देश्य उपकार तथा आत्मोद्धार इन दो शब्दों में अन्तर्हित माना जा सकता है। न्याय, सत्य, शौच, साधना तथा संयम आदि भी धारणा कर मनुष्य को अध्यात्म अथवा धर्म मार्ग से अपनी आत्मा का उद्धार तो करते ही रहना चाहिये, साथ ही उसे दूसरों का दुःख-दर्द भी समझना और उसे दूर करने में यथायोग्य सहयोग भी देते रहना चाहिये। उसे चाहिये कि वह अपनी उपलब्धियों, उपार्जनों तथा प्राप्तियों का वह सारा अंश परोपकार में लगा ही देना चाहिये, जो उसके अपने-अपने आत्मउद्धार के लिये प्रयुक्त होने के बाद शेष रहे। लोग बड़ी-बड़ी विद्याएँ प्राप्त कर लेते हैं, असंख्य धन पैदा कर लेते हैं। किन्तु उसमें से थोड़ा बहुत अपने स्वार्थ में लगा कर शेष को योंही व्यर्थ में छिपाये रखते हैं और अन्त में धरती अथवा कुपात्रों के हाथ में सौंपकर चले जाते है। यह संकीर्णता, यह स्वार्थ परम्परा मानव-जीवन के उद्देश्य के सर्वथा प्रतिकूल है। ऐसा आचरण करने वाले को उसका दण्ड अवश्य ही मिलता है।
मानव-जीवन एक अलभ्य अवसर हैं, जो कि चौरासी लाख निकृष्ट योनियों की यातनापूर्ण यात्रा पूरी करने के बाद मिला है। यदि इस अवसर को योंही स्वार्थ अथवा प्रमाद में गवाँ दिया गया तो निव्य ही अनन्तकाल में हम जिस नीच कारा को काट पाये हैं, उसी में पुनः अनन्तकाल के लिये भेज दिये जायें। इस अवसर को परमार्थ एवं परोपकार के रूप में सदुपयोग कर हम न केवल अपने उज्ज्वल भविष्य का निर्माण कर सकते है, बल्कि मनुष्य जीवन से आगे देव योनि के अधिकारी बन सकते हैं और यदि सतर्क सावधान तथा पग-पग पर विचार पूर्वक जीवन को ठीक मार्ग से चलाये तो परमपद भी इस ही जीवन में पा सकते हैं।
मनुष्य जीवन पाने के बाद यदि हम उसके महान् उद्देश्य को विस्मृत कर देते हैं, इस सुकर्म योनि को अपने स्वार्थ में लिप्त होकर, विषय और वासना में डूबकर भोग−योग का रूप दे डालते हैं तो हम न केवल अपनी हानि करते हैं, बल्कि उस परमपिता परमात्मा का अपराध भी करता हैं, जितने हमें यह सब विभूतियाँ अनुग्रह की हैं और इसके लिये निश्चय ही हमें कठोर दण्ड का भागी बनना पड़ेगा।
अस्तु मानव-जीवन का सच्चा उद्देश्य समझें और अपने सुकर्मों द्वारा अपने लिये, उज्ज्वल भविष्य, समृद्ध परिस्थितियाँ, अक्षय शांति, संपूर्ण सन्तोष सुनिश्चित करने के साथ-साथ दूसरों के लिये प्रेरणा एवं प्रकाश के स्त्रोत बनकर अपने विशाल उत्तरदायित्व का निर्वाह करें, जिससे कि आगे भी परमात्मा के इस पुरस्कार के अधिकारी बने रह सकें और निकृष्ट योगियों को अपरिमित यातना से बच जायें।