ईश्वरीय सत्ता पर अविश्वासी न करें

July 1969

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ईश्वर तथा धर्म पर अविश्वास रखने वाले प्रायः यह प्रश्न उठाया करते हैं कि “जब ईश्वर दयालु और कल्याणकारी है तो संसार में पाप और दुःख की अधिकता क्यों? आस्तिक लोग स्वयं भी कहते हैं कि संसार में धर्मात्मा कम और धर्मविमुख ज्यादा है। ईमानदारी की अपेक्षा बेईमानी की संख्या अधिक हैं।” ऐसी स्थिति में इस बात पर कैसे विश्वास किया जाय कि एक महान् चैतन्य सत्ता इस सृष्टि की रचयिता और संचालक हैं? यदि वास्तव में इसकी रचना किसी बुद्धि-भण्डार शक्ति द्वारा हुई होती तो संसार में सर्वत्र सुख आनन्द और पुण्य-कर्मों का ही प्रसार देखने में आना चाहिये था।

वास्तव में यह एक टेढ़ा प्रश्न है और इसका उत्तर देने में बहुत से आस्तिक लड़खड़ा जाते है। जिन योरोपीय ईश्वरवादियों ने इसका उत्तर दिया है, उन्होंने कहीं-कहीं अपनी असमर्थता भी स्वीकार की है। ‘थीइज्म (आस्तिकवाद) के लेखक श्री फिलण्ट ने सबको उत्तर देते हुये कहा है-यदि हमसे पूछो कि ईश्वर ने सबको धर्मात्मा क्यों नहीं बनाया तो इसका मेरे पास कोई उत्तर नहीं है। यह एक ऐसा प्रश्न है, जिसका उत्तर हो ही नहीं सकता और न उससे कुछ लाभ है। यदि तुम कहो कि ईश्वर ने मनुष्य को देवताओं की तरह क्यों नहीं बनाया तो तुम यह भी प्रश्न कर सकोगे कि उसने देवताओं से भी बहुत ऊँचे दर्जे के प्राणी क्यों नहीं बनाये। इस प्रकार अनास्था-द्वेष उत्पन्न होता है।”

फिलण्ट को इस प्रकार का समाधान इस कारण करना पड़ा है कि उनका ईश्वर पर विश्वास ईसाई धर्मानुकूल हैं, जिसका कहना है कि पहले ईश्वर ही अकेला था, वह एक मात्र अनादि हैं। उसी ने जीव और अन्य समस्त साँसारिक पदार्थों की रचना की है। इस प्रकार की मान्यता के विरुद्ध हो नास्तिकों द्वारा यह आक्षेप किया जाता है कि ईश्वर को ऐसी सृष्टि बनाने की क्या आवश्यकता थी, जिसमें सदैव पाप और वैमनस्य की वृद्धि होती रहे? पर भारतीय धर्म की मान्यता में ऐसी त्रुटियों नहीं है। उनके अनुसार ईश्वर जीवों को बनाता नहीं, वरन् उनका अस्तित्व स्वयमेव है और ईश्वर उनकी भलाई के लिये सृष्टि के पदार्थों की रचना करता है। पर उसने जीव का परतन्त्र अथवा दास की तरह नहीं बनाया है, जैसा अन्य कई धर्मों में विचार किया जाता है। हमारी मान्यता यह है कि ईश्वर जीवों की उन्नति के लिये तरह-तरह के साधन उपस्थित करता है। उनको सत्कर्मों के लिये प्रेरणा भी देता है, पर उसने कर्म करने में उनको स्वतन्त्र ही रखा है। पाप या पुण्य करना उनकी रुचि और मनोवृत्ति पर ही आधारित है। जब वे पुण्य कर्म करते हैं तो उसके बदले में वे शुभ फल-सुख पाते हैं और जब पाप करने पर उतारू हो जाते हैं तब उनको दण्ड मिलता है। पर यह शुभ परिणाम और दण्ड भी स्वयं ईश्वर नहीं देता वरन् उसने ऐसी व्यवस्था बना दी हैं कि प्रकृति स्वयं ही यह कार्य पूरा कर लेती है। भारतीय धर्म के अधिकांश विचारकों ने प्रकृति को ईश्वर की सहचरी या अनुचरी माना है इसलिये वह जो कुछ करती हैं उसका कर्ता ईश्वर ही समझा जाता है।

जिस प्रकार का आक्षेप लोग पाप के विषय में करते हैं वैसा ही भाव दुःख के विषय में भी प्रकट करते है। वे कहते हैं कि जब ईश्वर सर्वशक्तिमान है और जीवों का भला ही चाहता है तो उसने ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं की कि संसार में दुःख का नाम ही नहीं रहता? इस शंका का उत्तर देते हुये आलफ्रेड रसेल वालेस ने अपने ग्रन्थ ‘द वर्ल्ड आफ लाइफ’ (जीवन जगत) में लिखा है-

“कुछ आलोचकों ने संसार के दुःख देखकर प्रायः घृणा हो जाती है और वे कहने लगते हैं कि यह सृष्टि सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और दयालु सत्ता की बनाई नहीं है सकती। पर इन लेखकों (अर्थात् आक्षेप करने वालों) और विकासवादियों ने कभी दुःख की जड़ तक पहुँचने का यत्न नहीं किया। उन्होंने यह नहीं सोचा कि दुःख या कष्ट विकास के लिये बड़ी आवश्यक वस्तु है। स्वयं डार्विन ने इस नियम पर बड़ा बल दिया है कि कोई इन्द्रिय, शक्ति या वेदना किसी प्राणी में उस समय तक नहीं उत्पन्न होती, जब तक उसका जाति के लिये उपयोग न हो। इस नियम पर यदि गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाय तो यही निष्कर्ष निकलता है कि ईश्वर प्रत्येक प्राणि-वर्ग में उतना ही दुःख उत्पन्न करता हैं, जितने कि उसके लिये आवश्यकता है।”

फिलण्ट महोदय ने अपनी ‘थीइज्म’ में इसका समाधान कुछ भिन्न शब्दों में किया है-

“दुःख परिश्रम के लिये प्रेरणा करता है और परिश्रम द्वारा ही हमारा जीवन, हमारी शक्तियाँ नियमित और विकसित हो सकती हैं। इच्छा आवश्यकता का अनुभव कराती है और आवश्यकता का अनुभव ही दुःख माना जाता है। परन्तु यदि जीवों में इच्छाएँ न हों और इन इच्छाओं द्वारा उत्पन्न हुये प्रयत्न न हों, तो फिर जीव रहेंगे ही क्या? क्या वह ऐसे ही सुन्दर और विशाल होंगे, जैसे अब हैं? यदि खरगोश को भय न हो तो क्या वह तीव्रगामी होगा जैसा अब है? यदि शेर को भूख न लगे तो क्या वह उतना ही बलिष्ठ होगा, जितना कि अब हैं? यदि मनुष्य को समय-समय पर संघर्ष न करना पड़े तो क्या वह ऐसा प्रयत्नशील, ऐसा बुद्धिमान् ऐसा चतुर, शिक्षित होगा जैसा अब हैं? इस प्रकार आवश्यकता से उत्पन्न दुःख प्राणियों की प्रगति और पूर्णता का साधन है। अर्थात् चाहे आरम्भ में यह बुरा जान पड़े पर इसका परिणाम अच्छा होता है। पूर्णता स्वयं भी एक-एक महत्त्वपूर्ण वस्तु है और उससे हमें आनन्द न भी प्राप्त हो तो वह एक उच्चकोटि का साध्य (प्रयोजन) माना जायेगा। इसलिये जो दुःख इस प्रयोजन की पूर्ति करता हैं, उसे बुरा कैसे कह सकते हैं।”

दूसरी बात यह भी है कि दुःख पूर्णता का ही साधन नहीं है वरन् वही सुख का साधन भी है वरन् वही सुख का साधन भी है। शायद प्राणियों के शरीर ही ऐसे बने है यदि वह दुःख का अनुभव न करते तो सुख का अनुभव भी नहीं कर पाते। चाहे यह बात बिलकुल ठीक हो या न हो परन्तु एक बात तो स्पष्ट ही है कि समस्त जीवन जगत् में वह ‘दुःख’ वास्तव में आनन्द का साधन होता है, जो प्राणियों को परिश्रम के लिये उत्तेजित करता है। दुःख की उपयोगिता का परिचय छोटे प्राणियों में उतना नहीं मिलता जितना विवेकयुक्त मनुष्य में मिलता है। दुःख का महत्व जितना शारीरिक बातों में है उनसे कहीं अधिक मानसिक बातों में मिलता है। यह दुःख आत्मा को शुद्ध बनाने और शिक्षा देने में परम सहायक है। दुःख से हृदय की कठोरता कम हो जाती है, दुःख से अभियान का दमन होता है, दुःख से साहस और धैर्य बढ़ता है, दुःख से सहानुभूति का आधिक्य होता है, दुःख से धर्म के लिये श्रद्धा होती है। ऐसी अवस्था में कोई भी संसार में दुःखों को देखकर उसके लिये परमात्मा को दोषी बनाने के बजाय धन्यवाद ही देगा।”

जो बात फिलण्ट ने आज कही है यह बता हमारे धर्म-ग्रन्थ ‘महाभारत’ में हजारों वर्ष पर्व कह दी गई थी। जब भगवान् कृष्ण ने वनवास के पश्चात् कुन्ती से अभिलाषित वर माँगने को कहा तो उससे अपनी भावना इन शब्दों में प्रकट की कि “हे भगवान्! आप हमको दुःख की अवस्था में रखा करें, क्योंकि उस दशा में तो हमको आपका स्मरण और प्रेम बना रहता है, पर जब हम सुखों में पड़ जाते है तो आपकी भूल जाते है।” इस प्रकार संसार में सच्चा सुख ईश्वर और धर्म पर विश्वास रखते हुये पूर्ण परिश्रम के साथ अपना कर्त्तव्य पालन करने में ही है।

इस प्रकार जब समस्त सृष्टि के निर्माण और विभिन्न परिस्थितियों में होकर प्राणियों के विकास पर विचार करते हैं तो हमें ईश्वरीय योजना में कोई दोष लगाने का कारण प्रतीत नहीं होता। इस प्रकार का दोषारोपण दो ही प्रकार के व्यक्ति करते है। एक तो वे जो विद्या का अहंकार करने वाले है, जिन्होंने अभी वास्तविक ज्ञान के क्षेत्र में पदार्पण नहीं किया है और विश्व रचना और व्यवस्था जैसी विशाल समस्या पर सर्वांगपूर्ण तरीके से विचार कर सकना जिनके लिये असम्भव है।,

ऐसे व्यक्तियों की भर्त्सना करते हुये थियोसोफिकल-समाज की स्थापनकर्ता मैडम ब्लैटस्की ने बहुत जोरदार शब्दों में कहा है-

“ईश्वर भी नहीं? जीव भी नहीं? यह सब विनाशकारी कल्पना है। (नो गॉड, नो सोल? डै्रवफुल प्रनिहिलेशन।) यह एक ऐसे उन्मत्त (नास्तिक) का प्रलाप है, जो अपनी दूषित कल्पना के आधार पर विश्व-रचना की सामग्री की चिनगारियों की एक निरन्तर शृंखला को देखता रहता है और उसका कर्ता किसी को नहीं मानता। वह कहता है कि यह सामग्री स्वयं ही प्रकट हुई है, स्वयं ही स्थित है, स्वयं ही विकसित होती है। वह कहता है, यह समस्त सृष्टि चलती जा रही है पर इसका कोई स्त्रोत नहीं। इसका कोई कारण भी नहीं है। इस प्रकार उसकी दृष्टि में यह अनन्त-चक्र अन्धा, निष्क्रिय और अकारण है।”

वास्तव में इस प्रकार की विचार शून्य नास्तिक-धारा कभी लाभकारी नहीं हो सकती। इसके प्रभाव से मनुष्य के स्वार्थी, प्रमादी और शोषक बनने की ही अधिक संभावना है। जब मनुष्य यह विश्वास करने लगता है कि इस जगत् में कोई चैतन्य न्यायकारी शक्ति नहीं है और इसकी प्रक्रिया स्वयं ही संयोगवश अग्रसर होती जाती है, तो उसके मन में से नैतिक, चारित्रिक, सामाजिक कर्त्तव्य सम्बन्धी सभी नियम और उपदेश गायब होने लग जाते है, और वह किसी भी तरह खाओ-पियो और मौज उड़ाओ (ऋण कृत्वा धृंत पिबेत) के आत्मघाती सिद्धान्त पर चलने लग पड़ता है। यद्यपि इन दिनों विज्ञान ने जो नये करिश्मे दिखलाये है और लोक-लोकान्तर तक पहुँचने की कल्पना को सत्य कर दिखाया है, उससे वह अपने को ‘सर्वज्ञ’ के ही लगभग समझने लगा है, पर चोटी के वैज्ञानिक इस मान्यता के गलत बतलाते है और कहते है कि अभी तक जितना ज्ञान और जानकारी प्राप्त की गई है, वह समस्त ज्ञान-भण्डार का पचासवाँ भाग भी नहीं है। प्राचीन भारतीय इस तथ्य को अच्छी तरह समझते थे और इसी कारण उन्होंने कहा था-

तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यान्ति सूरयः।

विवीब चक्षु राततम्॥

अर्थात्-ज्ञानी पुरुष परमात्मा के उस परम-पद (उसकी महिमा और रचना) को सदा उसी प्रकार देखते और समझते रहते है, जैसे खुली हुई आँख सूर्य के प्रकाश को देखती है।


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