परलोक को भूल कर कहीं आपको भी पछताना न पड़े?

July 1969

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“प्रजा के कार्यों में संसार ने मेरा लोहा माना। मेरा नाम सुनकर लोग दहल जाते थे। मुझे यह भी मालूम हैं कि मेरा नाम सदा-सर्वदा के इतिहास में जुड़ दिया गया है किन्तु मेरे दुर्भाग्य का किसी को पता नहीं। मेरे पास जो शक्ति और सामर्थ्य थी उसका कैसा अच्छा उपयोग कर सकता था किन्तु मैंने जीवन के स्थायी महत्व को जानने का कभी प्रयत्न नहीं किया। मेरी मानसिक स्थिति बड़ी कष्टदायक है और मैं समझ नहीं पाता कि जीवित अवस्था की हुई भूलों से छुटकारा किस प्रकार मिलेगा। मेरे जीवन की तख्ती (स्लेट) में जो धब्बे पड़े हुए हैं मुझे परलोक में भी कुछ हैं, कुछ नहीं, मैं संपूर्ण रूप से स्थित हूँ इसका पता पहले चल गया होता तो जीवन को बड़े परिश्रम और ईमानदारी से बिताकर सन्तोष की नींद ले रहा होता।”

आप कल्पना भी नहीं कर सकते होंगे कि यह शब्द विश्व-विजयी नैपोलियन बोनापार्ट के हैं और उसकी मृत्यु के बाद के है। मृत्यु के बाद जीवन का अस्तित्व भी हैं? ऐसी आशंका उन लोगों को भी है जिनकी बौद्धिक क्षमताएँ रेत में से तेल निकाल लाने जैसे चमत्कार दिखा रही है किन्तु इतना विशाल ब्रह्माण्ड और गणित के सिद्धान्त पर चल रहे अरब-खरब नक्षत्र, सारे जीवन की विविध प्रकार की हलचलों, प्राणियों की चेतना के समान स्तर, जन्म-मृत्यु स्वप्न सुषुप्ति जागृत अवस्थाओं को देखकर भी आज का भौतिकवादी मनुष्य यह नहीं समझ पा रहा है कि मनुष्य देह में हमारा आविर्भाव किसलिए हुआ है और क्या हम इसका बहुत अच्छा उपयोग जीवन को दिव्य शक्तियों से ओत-प्रोत बनाने, पारलौकिक सुख प्राप्त करने में कर सकते हैं? मनुष्य की सबसे बड़ी भूल है। उसे न सुधार पाने के फलस्वरूप ही वह इस जीवन की सीढ़ी को पार करके भी अशान्ति और असन्तोष ही अनुभव करता है। ऐसी ही अशान्ति एक दिन नैपोलियन ने अनुभव की।

आप विश्वास नहीं करेंगे और कहेंगे कि यह कथन नैपोलियन का कैसे हो सकता है। उसकी प्रामाणिकता क्या है? यदि आप मि0 नार्थ क्लिफ नामक इटेलियन परलोकवादी से भेंट कर सके होते तो यह प्रमाण जुटाने की आवश्यकता न पड़ती। प्रेतात्माओं को बुलाकर उनसे अनेक गुप्त से गुप्त जानकारियाँ प्राप्त कर लेने वाले भारतीय परलोकवादी डा0 बी0 डी0 ऋषि (अहमदनगर) की तरह क्लिफ भी मृतात्माओं को एक विशेष ढंग से बुलाते थे उनमें से कई घटनायें ऐसी प्रकाश में आई जिन्हें इटली के कुछ बड़े लोग ही मानते थे बाद में उनके उन सत्यों को स्वीकार भी किया था और उसके फलस्वरूप इटली को राजनीति में व्यापक परिवर्तन हुए थे। उन्होंने ही नैपोलियन बोनापार्ट की आत्मा का आवाहन किया था। वह शब्द, उपरोक्त समय के ही है।

जीव-चेतना का गंभीर अध्ययन करने वाले भारतीय मनीष इसीलिये बार-बार यही चेतावनी देते रहे कि मनुष्य को यह देह और संयोग बड़े पुण्य से मिला है उसका उपयोग न करने वाला चाहे कितना ही शिक्षित क्यों न हो अज्ञान ही है और जो इस जीवन के रहस्य को मन में भली भाँति बैठा लेता है वह अशिक्षित होकर भी सौभाग्यवान् ही है क्योंकि वह शाश्वत जीवन के लक्ष्य और ईश्वरीय आनन्द को प्राप्त कर लेता है।

योगवाशिष्ठ में शास्त्रकार ने स्पष्ट चेतावनी देते हुए लिखा है-

मरणाविमयीमूर्च्छा प्रत्येकेनानुसूपते।

यैषो ताँ विद्धि सुमते महाप्रलययामिनीम्॥

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तवन्ते तनुते सर्ग वर्ग एव पृथक् पृथक्।

सहजस्वप्नसंकल्पार्न्सभ्रमाचलनुत्यवत्॥

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म्हाप्रलयराम्यन्ते चिरावात्ममनोवयुः।

यवेयं तनुते तद्वत्प्रत्येक मृत्यनन्तरम्॥

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अन्ये स्वमिव ये जीवास्तेषाँ मरणवन्मसु।

स्मृतिः कारणतामेति मोक्षाभाव वशाविह॥

/-/

अर्थात् जिस तरह महाप्रलय की रात्रि में सब कुछ सुषुप्त सा लगता है उसी तरह मृत्यु के बाद जीव मूर्च्छा को स्थिति में चला जाता है और स्वप्न एवं संकल्प की तरह अपनी एक विलक्षण पारलौकिक सृष्टि रचता है। महाकाल की रात्रि समाप्त होने पर जिस प्रकार परमात्मा नई सृष्टि प्रारम्भ करता है उसी प्रकार जीव भी उस स्थिति को पार करने के बाद ही नया जीवन धारण करता है जब तक मोक्ष प्राप्त नहीं हो जाता अपनी स्मृति के कारण जीव जन्म और मरण का अनुभव करता रहता है।

योगवाशिष्ठ के इसी अध्याय में अगले श्लोकों में महर्षि वशिष्ठ ने यह भी बताया है कि पुण्यात्मायें मोक्ष प्राप्त न होने पर भी परलोक में उस अवस्था को प्राप्त होती है जिनमें उन्हें सुख और प्रसन्नता की अनुभूति होती है किन्तु हिंसा, जड़ता, पाप, कुटिलता और दुष्प्रवृत्तियों से घिरे लोग उस स्थिति में बड़ी बेचैनी अनुभव करते है। उस समय तो उन्हें यह संकल्प उठता है कि अब नये जन्म में वे इस प्रकार जीवन बितायेंगें कि आत्मा सद्गति अनुभव करे पर शरीरगत चेतना में आते ही वे उसे भूल जाते हैं और वासनाओं में पड़े रहकर फिर-फिर कर दुर्गति का कष्ट भोगते रहते हैं।

जीव-चेतना के वैज्ञानिकों को भी इस तरह की आशंका अवश्य है यद्यपि वे उसे स्पष्ट स्वीकार नहीं करते हैं। अपने शरीर की सूक्ष्मतम स्थिति में विज्ञान के माध्यम से ही चलें तो पता चलेगा कि सूक्ष्म से सूक्ष्म अणु में भी व्याप्त होकर चेतना एक प्रकार का विस्तार या अवस्था है उसका कभी अन्त नहीं होता। हमारे शरीर का प्रत्येक भाग कोशिकाओं (सेल्स) से बना है। यह एक छोटा सा परमाणु है जिसका आकार इतना छोटा है कि एक इंच में 6000 कोशिकाएँ बैठ जायेंगी। यह कोशिका भी अपने आप में एक ईश्वरीय चमत्कार है। प्रत्येक कोशिका के चारों ओर अत्यन्त पतली झिल्ली का खोल होता है उसके भीतर पतला चिकना पदार्थ भरा रहता है जिसे प्रोटोप्लाज्म कहते हैं। इस प्रोटोप्लाज्म में भी हलचल हैं। यह हवा खींचता है और कार्बन (दूषित वायु) बाहर निकालता है। तात्पर्य यह है कि हम अकेले साँस नहीं लेते हमारे शरीर का प्रत्येक अवयव साँस लेता है तब तक ही हम जीवित है। प्रोटोप्लाज्म के भीतर एक केन्द्र पिण्ड (न्यूक्लियस) होता हे उसे वैज्ञानिक जीवन का आधार मानते हैं वही नई कोशिकाएँ बनाने की विचित्र क्षमता रखता है जब न्यूक्लियस की शक्ति निर्बल पड़ने लगती है तब प्रोटोप्लाज्म भी सूखने लगता है। एक दिन केवल सूखा पदार्थ रह जाता है मूल चेतना कहीं और गायब हो जाती है। डायटम जो दुनियाँ का सबसे छोटा जीव है जिसे पौधों की इकाई भी कहते हैं और चेतन जीव की भी अभी वैज्ञानिकों में इस संबंध में मतैक्य नहीं है पर यह निश्चित है कि उसके प्रोटोप्लाज्म में से भी चेतना का अन्त हो जाता है उस स्थिति में चेतन की स्थिति और क्रियाशीलता का स्वरूप क्या होगा इसे वैज्ञानिक नहीं केवल तत्त्वदर्शी ऋषि ही समझ सके हैं फिर गुणों की धारायें गुणों में बरतती है और उसी अनुरूप दुःख या सुख का अनुभव करती हैं। अपनी पाप-वासना के कारण अधोगामी योनियाँ अधोलोकों का संताप करती हों और ऊर्ध्वलोकों वाली पुण्य आत्मायें सुख और शान्ति तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं मानना चाहिये।

परलोक न कोई स्थान है न दृश्य पदार्थ, वह तो चेतना की विभिन्न अवस्थायें है जिसकी अनुभूति की जा सकती है स्वरूप का विश्लेषण नहीं किया जा सकता। उसकी प्रामाणिकता उन दृष्टान्तों से जो प्रेत आत्माओं या मृत आत्माओं के आह्वान से संबंध रखते हैं उसी से साबित की जा सकती है। सामान्य स्तर के लोगों के साथ घटित ऐसी घटनाओं को अन्ध-विश्वास कहा जा सकता है ऐसे बनावटी अध्यात्म की तो निन्दा को जानी चाहिये किन्तु अध्यात्म एक विज्ञान भी है वह बुद्धि और जीवन का प्रधान लक्ष्य है उसकी अपेक्षा भी नहीं की जा सकती। इसलिये वह ऐतिहासिक और असामान्य घटनायें दी जा रही है जिनकी सत्यता को अन्ध श्रद्धा न कहा जा सकेगा।

द्वितीय महायुद्ध में “मोन्स” की लड़ाई का दस्तावेज बड़ा आश्चर्य जनक और वस्तुस्थिति को प्रमाणित करने वाला है। इस युद्ध में ब्रिटिश सेना बुरी तरह मारी-काटी गई। कुल 500 सैनिक शेष रहे थे। जर्मन सेनाएँ उन्हें भी काट डालने की तैयारी में थी। उनकी संख्या उस समय दस हजार थी। ब्रिटिश सैनिकों में से एक सिपाही ने कभी सेंट जार्ज की तस्वीर एक होटल में देखी थी। यह तस्वीर एक प्लेट में कढ़ी थी और उसके नीचे लिखा था “सेंट जार्ज इंग्लैण्ड की सहायता करने को उपस्थित हों” वह कभी इंग्लैण्ड के प्रख्यात सेनापति थे और अपने कई हजार सैनिकों के साथ युद्ध में मारे गये थे। उनकी याद आते ही सैनिकों ने अपनी सम्पूर्ण भावना और आत्म-शक्ति से सेंट जार्ज का स्मरण किया और दूसरे क्षण स्थिति कुछ और ही थी। बिजली सी कौंधी और 500 सैनिकों के पीछे कई हजार श्वेत वस्त्रधारी सैनिकों की सी आभा दिखाई देने लगी। दूसरे ही क्षण दस हजार जर्मनी सेना मैदान में मरी पड़ी थी। रहस्य तो यह था कि किसी भी सैनिक के शरीर में किसी भी अस्त्र को कोई चोट या घाव तक नहीं था। इस घटना ने इंग्लैण्ड में एक बार तहलका मचा दिया कि सचमुच मृत्यु के उपरान्त आत्मा का अस्तित्व नष्ट नहीं होता वरन् रूपान्तर होता हे और यह आत्मायें अदृश्य होते हुए भी स्थूल सहायताएँ पहुँचा सकती हैं।

बम्बई में एक पारसी श्री पोस्टन जी. डी. महालक्ष्मी वाला ने अपनी पुस्तक “परलोकवाद" में साहसपूर्ण घटनायें” (एडवेर्न्चस आफ स्प्रिचुअलिज्म) में एक अमरीकी डा0 पी0 बल्स का वर्णन किया है। पो0 बल्स ने परलोक विद्या की बड़ी खोज की थी। श्री पेस्टनजी की उपस्थिति में 3 सितम्बर 1925 को एक प्रयोग किया गया। एक कोरा कागज रखकर डा0 पी0द बल्स की आत्मा का आवाहन किया गया। श्री पोस्टनजी उनसे लास एजेल्स (अमरीका) में मिल चुके थे। जब उनकी आत्मा का आवाहन किया गया तो मृतात्मा ने उन कागज पर हस्ताक्षर किये जब उसे पलटकर देखा गया तो सचमुच डा0 पी0 बल्स के हस्ताक्षर थे। उन्हें उनके पिछले हस्ताक्षरों से मिलाया गया तो उनमें जरा भी अन्तर नहीं था।

“स्प्रिचुअल हीलिंग” नामक पुस्तक में लेडबीटर ने भी यह स्वीकार किया है कि मृत्यु के उपरान्त जीव विचारों के लोक में जीवित रहता है। भौतिक जगत में हम पदार्थ को बहुत महत्व देते हैं किन्तु यह तो उस जीवन की प्रतिछाया मात्र है।

परलोक को प्रमाणित करने में आध्यात्मिक फोटोग्राफी अब एक महत्त्वपूर्ण विज्ञान बन रही है। क्रू0 के डा0 विलियम होप और श्रीमती बम्सरन तथा लन्दन की श्रीमती डीन ने प्रसिद्ध वैज्ञानिक विलियम क्रुक्स होप और कूस्कल का वर्णन करते हुए लिखा है। उन्होंने मृतात्माओं के कुछ ऐसे दुर्लभ चित्र छापे जिन्हें कुछ ही लोगों ने देखा था और बाद में उन्होंने पहचाना भी कि उस समय मृतात्मा की ठीक वैसी ही स्थिति थी जैसी फोटो में आई। ऐसे प्रयोग भारतवर्ष में बहुत होते हैं उनमें मृतात्माओं से बातचीत भी की जाती है। उस गहराई में न जाये तो भी हमें यह मानना पड़ेगा कि इसी देह से मनुष्य जीवन की इतिश्री नहीं हो जाती। वरन् अपने अच्छे-बुरे कर्मों के अनुसार जीव को दूसरी अवस्थाओं में भी अनिवार्य रूप से जाना ही पड़ता है। मनुष्य जीवन उस गहन सत्य की अनुभूति और आत्मकल्याण के लिये परमात्मा के वरदान स्वरूप मिला है जो उसका उपयोग नहीं कर पाते वह नैपोलियन के समान ऐश्वर्यशाली होते हुए भी पछताते हुए जाते हैं।


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