धर्मोंरक्षित रक्षिता

July 1969

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पुरन्ध्री पुण्य और पुरुषार्थ के प्रतीक माने जाते थे। वे ब्राह्मण थे केवल इसीलिए उन्हें सम्मान मिला हो सो बात नहीं थी, पुरन्ध्री ज्ञान और गुणों की दृष्टि से भी महान् थे। देदीप्यमान मुख-मण्डल पर खेलती हुई प्रसन्नता के साथ सन्तोष और शान्ति ने भी उनका कभी साथ नहीं छोड़ा। धर्मशील पुरन्ध्री के जीवन में किसी तरह का अभाव नहीं था।

पुरन्ध्री थे ब्राह्मण पर वे उतना परिश्रम करते थे जितना एक किसान। इसलिये उनके साथ सौभाग्य-लक्ष्मी निवास करती थीं। चरित्र उनके जीवन का आधार था इसलिये यश-लक्ष्मी भी उनके कुटुम्ब में आ गई थीं। वह अपनी धर्मपत्नी पुत्र, कन्या और पुत्र-वधू सबको भगवान् के प्रतिबिम्ब मानकर उनका यथोचित आदर-सत्कार और सेवा करते थे। फलस्वरूप घर के सभी लोग नेक, ईमानदार और गुणग्राही थे। सद्भाव के इस वातावरण से आकर्षित होकर ही कुल-लक्ष्मी ने भी उनके साथ वास किया। पुरन्ध्री का जीवन सुखपूर्वक बीतने लगा।

पाप बहुत दिनों तक इस सुखी परिवार के आस-पास चक्कर काटता रहा पर उसे गृह-प्रवेश के लिये कोई द्वार न मिला। एक-एक परिजन के मस्तिष्क, इन्द्रियाँ और इच्छाओं को उसने उकसाया और भ्रमित करने का प्रयत्न किया पर पाप के प्रहार ऐसे नष्ट हुए जैसे ज्वलित अग्नि में सुखा काठ गिर कर जल जाता है। पाप सिर धुनता-पछताता घर लौटा।

उसे दुःखी देखकर एक दिन उसकी भार्या अलक्ष्मी ने पूछा-स्वामी कई दिन से कुछ दुःखी दिखाई दे रहे हैं। क्या आपकी सहचरी आपका दुःख बँटा सकती हैं? श्रुति कहती है जो स्त्री केवल सुख में ही पति का साथ दे और दुःख में दूर रहे उसके पुण्य क्षीण होते और नरक को जाती है। आप मुझे उस दुर्गति से बचाये और अपने दुःख का कारण बतायें ताकि आपका कुछ साथ दे सकूँ।

पाप और अलक्ष्मी (दरिद्रता) दोनों रात भर कूट मंत्रणा करते रहे। पाप ने अपने दुःख का कारण बताया और अलक्ष्मी ने वह योजना जिसके द्वारा पुरन्ध्री को जीता जा सकता था। प्रातःकाल दोनों बड़े प्रसन्न थे। बड़ी-चढ़ी सफलताओं के स्वप्न देखकर प्रसन्न होने वाले कुटिल और कुविचारी लोगों की तरह पाप और अलक्ष्मी भी उस दिन फूले नहीं समा रहे थे।

शाम होने तक दोनों पुरन्ध्री के पास जा पहुँचे। पाप वृद्ध ब्राह्मण के वेश में और अलक्ष्मी सौंदर्य विभूषित कन्या के रूप में। जो उन्हें पहचानते थे वे हँस रहे थे कि देखें पाप कितना चतुर हैं, लोगों को फँसाने के लिये वह कैसे-कैसे आकर्षक रूप रचता हैं। पुरन्ध्री पाप के माया जाल से भला कैसे बचता है यह देखने के लिये वे सब लोग चुप रहे,

ब्राह्मण वेशधारी पाप ने पुरन्ध्री को पुकार कर कहा-महाभाग मुझे आज रात ही एक गाँव पहुँचना हैं, रात होने को है ऐसे में मैं अपनी युवती कन्या को साथ नहीं ले जा सकता। मार्ग में चोर-डाकुओं का भय, नदी-नालों और हिंसक जानवरों का भी भय हैं। आप इसे लौटने तक अपने घर में रख लें। मुझे मालूम है आप महान् धर्मपरायण है।

द्वार पर आये हुए अतिथि की बात न मानना भी धार्मिक मर्यादा के प्रतिकूल होगा इस विचार से पुरन्ध्री ने ब्राह्मण कन्या के रूप में आई हुई अलक्ष्मी को अपने घर में आश्रय दे दिया। पाप वहाँ से विदा हो गया। उसे प्रसन्नता थी अब मुझे इस घर में प्रवेश का द्वार मिल जायेगा।

ब्राह्मण कन्या के रूप में आई हुई अलक्ष्मी ने पुरन्ध्री को अपने साथ अटकाये रखना प्रारम्भ किया। वह सबसे पहले उठती। पुरन्ध्री के लिये शौच के लिये जल से लेकर स्नान-पूजन तक सब सामान वह अपने हाथों जुटाती। इनसे निवृत्त होते ही वह मीठी-मीठी बातें करने लग जाती। पुरन्ध्री का बहुत-सा समय यों ही बातों में बीतने लगा। अब वे पहले की तरह श्रम नहीं कर पाते थे उन्हें आलस्य घेरने लगा। स्वाभाविक था कि आय के स्त्रोत टूटते। सम्पन्नता निर्धनता में बदलने लगी।

एक दिन पुरन्ध्री सो रहे थे तभी किसी दिव्य ज्योति-युक्त स्त्री ने उन्हें जगाया और कहा-पुरन्ध्री अब मैं तुम्हारे घर से जा रही हूँ। लेकिन तुम हो कौन और क्यों जा रही हो? पुरन्ध्री ने करुणाजनक शब्दों से पूछा। देवी ने उसी गंभीर भाव से बताया-मैं तुम्हारी सौभाग्य लक्ष्मी हूँ, तुमने अलक्ष्मी को आश्रय दिया है सो तुम्हें छोड़कर जा रही हूँ। अब मैं यहाँ नहीं रह सकती। यह कहकर सौभाग्य लक्ष्मी चल दीं। पुरन्ध्री बोले कुछ नहीं, केवल उनका जाना देखते रहे।

सौभाग्य छिन जाने से पास-पड़ोस में तरह-तरह की बातें चल पड़ी। कोई कहता पुरन्ध्री ने ब्राह्मण-कन्या से अवैध संबंध जोड़ लिया है। कोई कहता पुरन्ध्री अब पापी हो गया है। जितने मुँह उतनी बात। पर पुरन्ध्री को मानो इन सबसे कोई प्रयोजन ही न था। वह अब भी संध्या और नैमित्तिक कर्म उसी प्रकार करते थे जैसे पहले। अलक्ष्मी के कूट-जाल को वह समझते थे पर वह उनकी कन्या की तरह धरोहर थी। उनके नेत्रों में एक क्षण भी दूषण उदय नहीं हुआ पर लोगों को समझाया तो नहीं जा सकता था क्योंकि अलक्ष्मी अब और भी अधिक समीप रहने लगी थी पुरन्ध्री की पत्नी को भी उतना समय न मिलता जितना अलक्ष्मी अपने आप हठात् उनके पास बनी रहती। पिता-पुत्री के समान पुरन्ध्री और अलक्ष्मी वाद-विनोद करते रहते।

एक रात उन्हें फिर एक स्त्री ने दर्शन दिया और कहा-पुरन्ध्री मैं हूँ तुम्हारी यश-लक्ष्मी तुम्हें छोड़कर जा रही हूँ।” यश-लक्ष्मी चली गई। पुरन्ध्री के नेत्र-नीर उमड़ पड़े, पर उनका खारा जल भीतर ही भीतर बहकर रह गया।

यश छिन गया तो घर में बेटे-बेटियाँ और पत्नी ने भी साथ छोड़ दिया। अपने-अपने घर बनाकर वे लोग अलग-अलग रहने लगे। पुरन्ध्री के साथ अलक्ष्मी के अतिरिक्त अब कोई नहीं रह गया। कुल-लक्ष्मी भी रूठकर चली गई। पुरन्ध्री ब्राह्मण की बाट जोहते रहे पर वह नहीं आया। चलो अलक्ष्मी की भी नहीं, वह पुरन्ध्री की पुत्रों हो बनी रही। पर किसी के अन्तःकरण की सच्चाई को कौन देखता। सब लोग पुरन्ध्री और अलक्ष्मी को दिन-रात कोसते उन्हें अपने पास तक नहीं बैठने देते।

उस रात घना अन्धकार छाया हुआ था। हाथ को हाथ नहीं सूझता था। कभी-कभी बादलों की चमक में हो कुछ दिखाई दे जाता था और फिर उसके बाद डरा देने वाली बादलों की गर्जना उस वातावरण को और भी वीभत्स बना रही थी। अलक्ष्मी पास ही सोई हुई थी। पुरन्ध्री को नींद नहीं आ रही थी। एकाएक उन्होंने देखा, एक दिव्य-ज्योति फूटी और कोई देव पुरुष सम्मुख आ खड़ा हुआ।

पुरन्ध्री उठ बैठे। उन्हें प्रणाम करते हुए पूछा-भगवन् आप कौन है? क्या आपके आगमन का कारण जान सकता हूँ?

पुरन्ध्री के इस प्रकार प्रश्न करने पर उस दिव्यधारी पुरुष ने बताया-मैं धर्म हूँ, तुम्हारे घर सौभाग्य, यश और कुल सब चले गये, अब मैं ही यहाँ रहकर क्या करूँगा? मैं भी जा रहा हूँ।

यह कहकर धर्म ने जैसे ही पीठ फेरी पुरन्ध्री ने उनका हाथ पकड़ लिया और पूछा-देव बुरा न मानें, मैंने आज तक जो कुछ भी किया वह आपकी ही मर्यादा के लिये। अपनी रक्षा के लिये मैंने अलक्ष्मी को अपने पास रखा फिर क्या आप मुझे पापी ठहरायेंगे। मैंने भावनाओं को पाला हैं, वासनाओं को नहीं। फिर क्या आपका यों ठुकरा कर जाना अधर्म न होगा?

धर्मराज कुछ उत्तर दें उनमें इतनी भी हिम्मत न थी। चुपचाप पीछे लौटे और पुरन्ध्री को देह में अन्तर्लीन हो गये। धर्म को लोटता न देखकर सौभाग्य, यश और कुल-लक्ष्मी सब नई-नई प्रसन्नता लेकर लौट आयें। अलक्ष्मी को उस हलचल में नींद टूट गई। उसने सोचा जहाँ धर्म में इतनी आस्था है वहाँ मेरा रहना निरर्थक है। अपने कुचल को निष्फल हुआ देख पाप और अलक्ष्मी ने पलायन किया। दृढ़व्रती पुरन्ध्री पुनः पहले की तरह लक्ष्मी, कीर्ति तथा विभूतियों से परिपूर्ण हो गये।


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