मानवेत्तर प्राणियों की दुनिया भी मनुष्यों जैसी

July 1969

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मनुष्य-जाति अपने को सर्वश्रेष्ठ प्राणी माने तो यह भी देखना आवश्यक होगा कि उसमें ऐसी कौन-सी विशेषताएँ है जिनके आधार पर उसे बड़ा माना जा सकता है। गृहस्थी बसा लेना, बच्चे पैदा करना, बड़े-बड़े उद्योग खड़े करके धन कमाना और हास-विलास की जिन्दगी बिताना ही उसकी सर्वश्रेष्ठता का आधार रहा होता तो पशु-पक्षी भी उसी को कोटी के श्रेष्ठ कहलाने का अधिकार रखते। आहार-विहार ही क्यों बौद्धिक क्षमता, शिल्प और स्थापत्य में तो कई बार मानवेत्तर जीवों की कल्पना ही मनुष्य को सीख देती है। कहने को मनुष्य बड़ा है पर यदि साँसारिक लोकाचार ही श्रेष्ठता की इकाई होते तो पशु-पक्षी मनुष्य की अपेक्षा अधिक सम्माननीय और पूज्यास्पद होते। यह तो कोई और ही बातें है जिनके विकास से ही मनुष्य वस्तुतः प्राणि जगत का सिरमौर हो सकता है।

पक्षियों और कीट-पतंगों की दुनियाँ तो बहुत समय पहले ही मनुष्य के लिये कौतूहल पूर्ण रही है। अनेक बार तो उसे यह भ्रम हुआ है कि मनुष्य अन्य जीवों का ही विकसित रूप है। चिम्पाजी नामक बन्दर पर कई प्रयोग करके देखा गया कि उसके रक्त-कणों और मनुष्य के रक्त-कणों में जबर्दस्त समानता है यदि मनुष्य का रक्त किसी चिम्पाजी के शरीर में पहुँचा दिया जाता है तो उससे किसी प्रकार की हानि नहीं होती। चिम्पाजी का गर्भाधान और गर्भ-विकास मनुष्य के समान ही होता है। “सिमियन” जाति के इन बंदरों में और मनुष्य के क्रिया-कलाप में तो इतना अधिक साम्य है कि पाश्चात्य वैज्ञानिक मनुष्य को उसी का एक विकसित रूप मानने लगे। यदि पाश्चात्यों के सिद्धान्त को मान लिया जाये तो मनुष्य भी एक बन्दर है ऐसा कहने में उसे थोड़ा बुरा भले ही लगे।

कीवी, कैसोबरी, रही, मौआ, एमू, शुतुरमुर्ग और पेन्गुइन आदि पक्षियों के जीवन का विस्तृत अध्ययन करने के बाद चार्ल्स डारविन ने लिखा है- इन पक्षियों का गृहस्थ और पारिवारिक जीवन बड़ा सन्तुलित, समर्पित और चुस्त होता है। नर-मादा आपस में ही नहीं बच्चों के लालन-पालन में भी बड़ी सतर्कता, स्नेह और बुद्धि-कौशल से काम लेते है। मनुष्य-जाति की तरह इनमें भी परिवार के पालन-पोषण का अधिकांश उत्तरदायित्व नर पर रहता है। मादा से शरीर में छोटा होने पर भी वह घोंसला बनाना, अण्डे सेहना और जिन दिनों मादा अण्डे सेह रही हो उन दिनों उसके आहार की व्यवस्था करना, सब प्रसूत बच्चों को संभालने से लेकर उन्हें उड़ना सिखा कर एक स्वतन्त्र कुटुम्ब बसा कर रहने की प्रेरणा देने तक का अधिकांश कार्य नर ही करता है। वह इनकी दुश्मनों में रक्षा भी करता है।

गृहस्थी बसाने में स्वभावतः मनुष्य को इतनी आपाधापी नहीं करनी पड़ती होगी जितना बेचारे पेंगुइन पक्षी को। उसके लिये पेंगुइन दो महीने सितम्बर और फरवरी में दक्षिणी ध्रुव की यात्रा करता है। पेन्गुइन जानते है अपने अभिभावक अपने मार्गदर्शक के अनुशासन में रहना कितना लाभदायक होता है। उसके अनुभवों का पूरा-पूरा लाभ उठाने के लिये ही पेंगुइन अपने मुखिया के चरण चिह्नों पर ही चलता है।

ध्रुवों पर पहुँचने के बाद पुराने पेंगुइन तो अपने पहले वर्षों के छोड़े हुए घरों में आकर रहने लगते है किन्तु नव-युवक पेंगुइन अपने माता-पिता की आज्ञा लेकर नया परिवार बसाने के लिये चल देता है। उसकी सबसे पहली आवश्यकता एक योग्य पत्नी की होती है। वह ऐसी किसी मादा को ढूँढ़ता है जिसका विवाह न हुआ हो। अपनी विचित्र भाव-भंगिमा और भाषा में वह मादा से सम्बन्ध माँगता है। मनुष्य ही है जो जीवन साथी चुनाव करते समय गुणों का ध्यान न देकर केवल धन और रूप-लावण्य को अधिक

महत्व देता है। पर पेंगुइन यह देखता है कि उसका जीवन साथी क्या उसे सुदृढ़ साहचर्य प्रदान कर सकता है।

सम्बन्ध की याचना वह स्वयं करता है। ऐसे नहीं, उसे मालूम है जीवन में धर्मपत्नी का क्या महत्व है इसलिये पत्नी को खुश करके। पत्नी की प्रसन्नता भी सुन्दर चिकने पत्थर होते है। नर चोंच में दबा कर एक सुंदर-सा कंकड़ लेकर मादा के पास जाता है। मादा कंकड़ देखकर उसके गुणी, पुरुषार्थी एवं श्रमजीवी होने का पता लगाती है। यदि उसे नर पसंद आ गया तो वह अपनी स्वीकृति दे देगी अन्यथा चोंच मारकर उसे भगा देगी। चोट खाया हुआ नर एक बार पुनः प्रयत्न करता है। थोड़ी दूर पर उदास-सा बैठकर इस बात की प्रतीक्षा करता है कि मादा सम्भव है तरस खाये और स्वीकृति दे दे। यदि मादा ने ठीक न समझा तो नर बेचारा कही और जाकर सम्बन्ध ढूँढ़ने लगता है।

मादा की स्वीकृति मिल जाये तो पेंगुइन की प्रसन्नता देखते ही बनती है। नाच-नाच कर आसमान सिर पर उठा लेता है। पर मादा को पता होता है। गृहस्थ परिश्रम से चलते है इसलिये वह नर को संकेत देकर घर बनाने में जुट जाती है। नर तब दूर-दूर तक जाकर कंकड़ ढूँढ़कर लाता है। मादा महल बनाती है। इस समय बेचारा नर डाँट-फटकार भी पाता है पर उसे यह पता है कि पत्नी के स्नेह और सद्भाव के सुख के आगे मीठी फटकार का कोई मूल्य नहीं दोनों मकान बना लेते है तब फिर स्नान के लिये निकलते है और जल को निर्मल लहरों में देर तक स्नान करते है। स्नान करके लौटने पर कई बार उनके बने-बनाये मकान पर कोई अन्य पेंगुइन अधिकार जमा लेता है। दोनों पक्षों में युद्ध होता है जो विजयी होता है वही उस मकान में रहता है। पर युद्ध के बाद भी स्नान करने जाना आवश्यक है इस बार वे पहले जैसी भूल नहीं करते। बारी-बारी से स्नान करने जाते है और लौट कर फिर गृहस्थ कार्य में संलग्न होते है। मादा अण्डे देती है पर बच्चों की पालन प्रक्रिया नर ही पूर्ण करते है। पेंगुइन की इस तरह की घटनायें देख कर मनुष्य को उससे तुलना करने को जी करता है। मनुष्य भी उनकी तरह लूट-पाट और स्वार्थ पूर्ण प्रवंचना में कितना अशान्त और संघर्ष रहता है। पर वह सुखी गृहस्थी के सब लक्षण भी इन पक्षियों से नहीं सीख सकता और परस्पर घर में ही लड़ता-झगड़ता रहता है। पेंगुइन-सी सहिष्णुता भी उसमें नहीं है।

कछुए को नृत्य करते देखने की बात तो दूर की है किसी ने उसे तेज चाल से चलते हुये भी नहीं देखा होगा पर दाम्पत्य जीवन में आबद्ध होते समय उसकी प्रसन्नता और थिरकन देखते ही बनती है। कछुआ जल में तेजी से नृत्य भी करता है और तरह-तरह के ऐसे हाव-भाव भी जिन्हें देख कर मादा भी भाव विभोर हो उठती है। यही स्थिति है मगरमच्छ की। मगर भी प्रणय बेला में विलक्षण नृत्य करता है।

मछलियों में सील मछली की दुनियाँ और भी विचित्र है। नर अच्छा महल बनाकर रहता है। और उसमें कई-कई मादाएँ रखता है। नर अन्य नरों की मादाओं को हड़पने का भी प्रयत्न करते रहते है और इसी कारण उनमें कई बार तेज संघर्ष भी करना पड़ता है। कामुकता और बहु विवाह की यह दुष्प्रवृत्ति मछलियों में ही नहीं शुतुरमुर्ग और रही नामक पक्षियों में भी होती है। यह 7-8 मादाएँ तक रखते है फिर भी नर इतना धैर्यवान् और परिश्रमी होता है कि एक-एक मादा आठ-आठ दस-दस अण्डे देती है और नर उन सबको भली प्रकार सँभाल लेता है। लगता है इनकी दुनियाँ ही पत्नी जुटानी और बच्चे पैदा करने के लिये होती है इस दृष्टि से मनुष्य की कामुकता और दोष-दृष्टि को तोला जा सकता है। यदि मनुष्य भी इन दो प्रवृत्तियों तक ही अपने जीवन क्रम को सीमित रखता है तो इसका यह अर्थ हुआ कि वह रही और सील मछलियों की ही जाति का कोई जीव है।

कई बार तो अश्लीलता में मनुष्य सामाजिक मर्यादाओं का भी उल्लंघन कर जाता है किन्तु इन पक्षियों और प्राणियों ने अपने लिये जो विधान बिना लिया होता है उससे जरा भी विचलित नहीं होते। चींटी राजवंशी जन्तु है। उसमें रानी सर्व प्रभुता सम्पन्न होती है वही अण्डे देती है और बच्चे पैदा करती है। अपने लिये मधुमक्खी की तरह वह एक ही नर का चुनाव करती है शेष चींटियाँ मजदूरी, चौकीदारी और मेहतर आदि का काम करती है। अपनी-जिम्मेदारी प्रत्येक चींटी इस ईमानदारी से पूरी करती है कि किसी दूसरी को रत्ती भर भी शिकायत करने का अवसर न मिले जब कि उन बेचारियों को अपने हिस्से से एक कण भी अधिक नहीं मिलता। लगता है सामाजिक व्यवस्था में ईमानदारी को भी श्रम और निष्ठा यह आदर्श मनुष्य ने चींटी से सीख लिया होता तो वह आज की अपेक्षा कहीं अधिक सुखी और सन्तुष्ट रहा होता पर यहाँ तो अपने स्वार्थ अपनी गरज के लिए मनुष्य अपने भाई-भतीजों को भी नहीं छोड़ता। कम तौलकर, मिलावट करके कम परिश्रम में अधिक सुख की इच्छा करने वाला मनुष्य इन चींटियों से भी गया गुजरा लगता है।

एक बार अफ्रीका में वन्य पशु खोजियों का एक दल हाथियों की सामाजिकता का अध्ययन करने आया। संयोग से उन्हें एक ऐसा सुरक्षित स्थान मिल गया जहाँ से वे बड़ी आसानी से हाथियों के करतब देख सकते थे। एक दिन उन्होंने देखा हाथियों का एक झुण्ड सबेरे से ही विलक्षण व्यूह रचना कर रहा है। कई मस्त हाथियों ने घेरा डाल रखा है। झुण्ड में जो सबसे मोटा और बलवान हाथी वही चारों तरफ आ जा सकता था शेष सब अपने-अपने पहरे में तैनात। लगता था वह बड़ा हाथी उन सबका पितामह या मुखिया था उसी के इशारे पर सब व्यवस्था चल रही थी और एक मनुष्य है जो थोड़ा ज्ञान पा जाने या प्रभुता सम्पन्न हो जाने पर भाई-भतीजों की कौन कहे परिवार के अत्यन्त संवेदनशील और उपयोगी अंग बाबा, माता-पिता को भी अकेला या दीन-हीन स्थिति में छोड़कर चल देता है।

मुखिया के आदेश से 5-6 हथिनियाँ उस घेरे में दाखिल हुई। बीच में गर्भवती हथिनी लेटी थी। सम्भवतः उसकी प्रसव पीड़ा देख कर ही हमलावरों से रक्षा के लिए हाथियों ने यह व्यूह रचना की थी। परस्पर प्रेम, आत्मीयता और निष्ठा का यह दृश्य सचमुच मनुष्य को लाभदायक प्रेरणाएँ दे सकता है यदि मनुष्य स्वयं भी उनका परिपालन कर सकता होता।

बच्चा हुआ, कुछ हथिनियों ने जच्चा को संभाला कुछ ने बच्चे को। ढाई-तीन घण्टे तक जब तक प्रसव होने के बाद से बच्चा धीरे धीरे चलने न लगा हाथी उसी सुरक्षा स्थिति में खड़े रहे। हथिनियाँ दाई का काम करती रही। बच्चे और मादा के शरीर की सफाई से लेकर उन्हें खाना खिलाने तक का सारा काम कितने सहयोग और संकुचित ढंग से हाथी करते है वह मनुष्य को देखने, सोचने, समझने और अपने जीवन में भी धारणा करने के लिए अनुकरणीय है।

पेंगुइन पक्षी बच्चों पर कठोर नियन्त्रण रखते है। बड़े बूढ़ों के नियन्त्रण के कारण बच्चे थोड़ा भी इधर-उधर नहीं जा सकते। जब शरीर और दुनियादारी में वे चुस्त और योग्य हो जाते है तो फिर स्वच्छन्द विचरण की आज्ञा भी मिल जाती है जब कि मनुष्य ने बच्चे पैदा करना तो सीखा पर उनमें से आधे भी ऐसे नहीं होते जो सन्तान के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह इतनी कड़ाई से करते हों। अधिकांश तो यह समझना भी नहीं चाहते कि बच्चों को किस तरह योग्य नागरिक बनाया जाता है।

थोड़ी भी परेशानी आये तो मनुष्य अपने उत्तरदायित्वों से कतराने लगता है किन्तु अन्य जीव अपने गृहस्थ कर्तव्यों का पालन कितनी निष्ठा के साथ करते हैं यह देखना हो तो अफ्रीका चलना चाहिए। यहाँ कीवी नाम का एक पक्षी पाया जाता है। कामाचार को वह अत्यन्त सावधानी से बरतता है ताकि उसे कोई देख न लें। काम सम्बन्धी मर्यादाओं को ढीला छोड़ने का ही प्रतिफल है कि आज सामाजिक जीवन में अश्लीलता और फूहड़पन का सर्वत्र जोर है। कीवी को यह बात ज्ञात है और वह अपने वंश को सदैव सदाचारी देखना चाहता है इसलिए सहवास भी वह बिलकुल एकान्त में और उस विश्वास के साथ करता है कि वहाँ उसे कोई देखेगा नहीं मादा जब अण्डे देने लगती हे तो नर उनकी रक्षा करता है और सेहता भी है। उसे लगातार 80 दिन तक अंडे की देख−भाल करनी होती है। बच्चा पैदा होने के बाद वह जहाँ पुत्रवान् होने पर गर्व अनुभव करता है वहाँ यह प्रसन्नता भी कि अब उसे विश्वास मिलेगा पर होता यह है कि इसी बीच मादा ने दूसरा अण्डा रख दिया होता है बेचारे नर को फिर 80 दिन का अनुष्ठान करना पड़ जाता है। इस तरह वह कई-कई पुरश्चरण एक ही क्रम में पूरे करके अपनी निष्ठा का परिचय देता है। मनुष्य क्या उतना नैतिक हो सकता है? इस पर विचार करें तो उत्तर निराशा जनक ही होगा।

़ऋताचार की दृष्टि से मेंढक बड़ा संयमी होता है। बसंत ऋतु के कामोद्दीपक से उसके रक्त में गर्मी आती है। किन्तु वर्षा ऋतु न आने तक वह अपना संयम भंग नहीं करता। वर्षा ऋतु में वह एक विचित्र ध्वनि से अपनी मादा को बुलाकर प्रणय निवेदन करता है। मादा की स्वीकृति से ही वह एकान्त क्रिया करता है।


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