रंगों में शोभा ही नहीं, शक्ति भी हैं-

July 1969

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द्वितीय महायुद्ध के दौरान रंगों के संबंध में कई विचित्र बातें प्रकाश में आई इसलिये कई देशों में “रंगों के जीवन पर प्रभाव” विषय पर व्यापक खोजें प्रारम्भ हुईं। विभिन्न प्रकार के रंग, विभिन्न प्रकार के मनोभाव जागृत करने की चमत्कारिक क्षमता रखते हैं। विवाह शादियों और ऐसे किन्हीं धर्मोत्सवों में हरी, पीली, लाल, नीली झण्डियों से द्वार सजाते हैं तो संबंधित व्यक्ति ही नहीं सभी वहाँ से गुजरने वाले दर्शक भी प्रसन्न हो उठते हैं यह रंगों का अज्ञात मनोवैज्ञानिक प्रभाव ही है।

जर्मनी की एक कैमरा बनाने वाली फैक्टरी में एक प्रयोग किया गया। उसकी दीवारें, दरवाजे सब गहरे नीले रंग से रंग दिये गये। श्रमिकों पर उसका यह प्रभाव हुआ कि वे अधिक फुर्ती और परिश्रम से काम करने लगे। उत्पादन बढ़ने लगा आय भी बढ़ने लगा। आय भी बढ़ने लगी। किन्तु बाद में उस रंग के ऊपर काला जैसा कोई रंग पोतकर बिगाड़ दिया गया उसका फल कुछ और ही हुआ। मजदूरों में निराशा, आलस, उद्वेग की भावनायें भड़कने लगीं। उससे उत्पादन बहुत अधिक गिर गया।

यह विषय इसलिये प्रस्तुत किया जा रहा है कि रंगों का सौंदर्य और साज-सजावट से सीधा संबंध है। सौंदर्य आत्मा का एक गुण है यदि उसकी उपयुक्त जानकारी न हो तो लाभ उठाने के स्थान पर हानि हो सकती हैं घर, दरवाजे, खिड़कियाँ, दीवालों के बेल-बूटों वस्त्रों का चयन इस संबंध में कौन सा रंग कैसी मनोभूमि उत्पन्न करता है इसकी जानकारी हो जाये तो जीवन में प्रसन्नता का अभिवर्द्धन किया जा सकता हैं, उसे सुधारा और सँवारा जा सकता है।

बुद्धिशाली लोगों को गहरा लाल रंग पसन्द नहीं होता। एक अस्पताल में एक मानस चिकित्सक के पास एक प्रोफेसर आये उन्होंने बताया कि उनके मस्तिष्क में न जाने क्यों क्षोभ और उद्विग्नता बनी रहती है उन्हें प्रसन्नता नहीं रहती। चिकित्सक महोदय ने परिस्थितियों का सूक्ष्म अध्ययन किया पर कोई विशेष कारण जब समझ में न आया तो वे एक दिन उनके घर पहुँचे। घर जाकर देखा कि उनकी बैठक में खिड़कियों, दरवाजों के अधिकांश पर्दे लाल हैं। पूछने पर मालूम हुआ कि उनकी धर्मपत्नी भी अधिकांश लाल रंग की साड़ी और ब्लाउज पहनती हैं। उन्हें घर के सब फर्श पर्दे बदल कर हरे और नीले रंग के कर देने की सलाह दी गई उसी प्रकार उनकी धर्मपत्नी ने भी अपनी वेशभूषा बदल डाली उसका तात्कालिक प्रभाव परिलक्षित हुआ। प्रोफेसर की सारी उद्विग्नता और परेशानी जाती रही।

भगवती सरस्वती ज्ञान और मधुरता की देवी है उनकी कल्पना में रंग का विशेष महत्व है। ऋषि ने उनको-

या कुन्देन्दु तुषार हार धवला-

या शुभ वस्त्रावता॥

वह श्वेत वर्ण के वस्त्र धारण किये हुए हैं। यहाँ श्वेत रंग ज्ञान, मधुरता, गंभीरता एवं पवित्रता का उद्बोधक है। इसलिये कुँआरी कन्याओं और उन महिलाओं को जिनके पतियों का निधन हो गया होता है श्वेत वस्त्र धारण कराने की भारतीय परम्परा है। श्वेत वस्त्र से दूसरों के मन में भी द्वेष दुर्भाव नहीं आते इसलिये विद्यालयों में जाने वाली कन्याओं को श्वेत अथवा हल्की एक रंग की ही साड़ी पहननी चाहिये।

नीले रंग के संबंध में यह माना जाता है कि उसे देखकर उदारता और सौंदर्य की प्रेरणा मिलती है। माध्यमिक कक्षाओं के विद्यार्थियों के चरित्र-निर्माण में नीले रंग का विशेष प्रभाव देखा गया है। इस आयु के बच्चे-बच्चियों को नीले रंग के वस्त्रों का संपर्क मिले तो अति लाभदायक होता है। अमेरिका में एक प्रयोग करके देखा गया कि यदि बिजली का प्रकाश उसके ट्यूब नीले कर दिये जाते हैं तो मच्छर दूर भागते हैं। नीला रंग मच्छरों को कष्ट दायक होता है। वहाँ धूल के रंग का प्रयोग करके अन्य कीटाणुओं से रक्षा करने में सफलता मिली है।

लाल रंग आक्रामकता, हिंसा और स्फूर्ति का प्रतीक हैं। साँड़ को यदि लाल रंग दिया जाये तो वह तुरन्त भड़क उठता है। इसी तरह केसरिया रंग वीरता और बलिदान का प्रेरक है यह दोनों ही रंग इसीलिये युद्ध में प्रयुक्त होते हैं। मिलिटरी के बड़े अफसरों के कन्धे पर भी-कैम्पों पर लाल पट्टे इसीलिये बाँधे जाते हैं। उन्हें देखकर जवानों में रोष और जोश पैदा होते हैं यह रंग व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन के उपयोग का नहीं होता। इसी कारण काले और भूरे रंग भी शक्ति के प्रतीक तो हैं किन्तु उनका आँशिक उपयोग साज-सज्जा में ही हो सकता हैं।

जीवित प्राणियों को प्रभावित करने में गुलाबी रंग के महत्व को बहुत पहले से ही लोग जानते रहे हैं। गुलाबी प्रकाश से पौधे अच्छी तरह उगते हैं, पक्षियों की संख्या में वृद्धि होती हैं, ज्वर, छोटी चेचक, जलकेन्सर जैसी बीमारियों पर भी गुलाबी रंग के प्रकाश से आशातीत लाभ होता पाया गया हैं। आत्माअता के प्रसिद्ध जीव शास्त्री विक्टर इन्यूशियन ने मालेक्युलर बायोलॉजी के नये प्रयोगों के दौरान यह सिद्ध किया है कि गुलाबी रोशनी के जैविक कार्य-कलाप उसकी आत्मिक प्रकृति के साथ सम्बद्ध है उन्होंने अल्वर्ट जेन्ट जोजी (नोबुल पुरस्कार विजेता बायोकेमिस्ट) के जैविक ऊर्जा सिद्धान्त को विकसित करते हुये बताया कि गुलाबी रंग के प्रकाश के प्रति जीवधारियों की अत्यधिक संवेदनशीलता उसके अस्तित्व के लिए बहुत अनुकूल पड़ती है। हमारे देश में भी पूजा स्थल में गुलाबी रंग के वस्त्र और लघु सर्वतो भद्र चक्र आदि में लाल रंग का बहुत प्रयोग होता रहा है। स्त्रियाँ गुलाबी रंग महावर के रूप में पैरों में लगाती और सिन्दूर के रूप में मस्तक में धारण करती है उससे सौंदर्य वृद्धि के साथ ही देखने वालों की अन्तर्भावनाओं में शक्ति और पवित्रता का विकास होता है।

इन्यूशियन ने सूर्य किरणों के विश्लेषण के समय पाया कि जैविक क्रियाकलापों में खर्च हुई शक्ति का 660 से 680 मिली-माइक्रोन तक अंश मनुष्य किस प्रकार फिर से ग्रहण कर लेता है उसे और वर्णक्रम (स्पेक्ट्रम) नारंगी रंग के हिस्से के अध्ययन द्वारा ठीक-ठीक जा सकता है। इन्यूशियन ने इन खोजों में 5 वर्ष से अधिक समय लगाया। एक्सरे उपकरणों द्वारा, प्रकीर्ण द्वारा जानवरों के शरीरों में घातक रेडियेशन द्वारा बीमारियाँ उत्पन्न की और फिर गुलाबी प्रकाश से उसका इलाज कर यह पाया गया कि 25 प्रतिशत रोगग्रस्त जानवर 20 दिन में पूर्ण स्वस्थ हो गये। उनका रक्तचाप सामान्य हो गया तथा वे पूर्ण स्वस्थ हो गये। उनका कहना है कि गुलाबी रंग के प्रकाश में अत्यधिक प्रवेशनीयता (ट्रान्सपेरेन्टल) के कारण इलेक्ट्रान तेजी से विस्फुटित होते हैं किसी भी अवयव की संवेदनशीलता की गति बड़ा देते हैं साथ ही विषाणुओं को मार कर उन्हें बाहर निकाल देते हैं। इसमें जीव की प्रकृति भी एक अंश तक हिस्सा लेते हैं किन्तु रंगों के मेल-जोल का समान प्रभाव सभी से होता है। अर्थात् बहुरंगी सजावट से प्रायः सभी लोगों को प्रसन्नता होती है। विवाह, उत्सवों में या सभा में पर अनेक तरह के रंगों की झंडियों में काले, भूरे रंग की झण्डियाँ भी लगा दी जाये तो उनसे भी अप्रसन्नता नहीं होती।

हिन्दुओं में यह प्रथा बहुत पहले से ही विकसित थी। अभी भी राजस्थान और उत्तर प्रदेश के कई भाग में दीवारों पर रंगीन चित्र बनाने की प्रथा है उससे जान-अनजान में मानव प्रकृति प्रभावित होने का बड़ा रहस्य छिपा हुआ है। आजकल फोटोइन रंगों थैरेपी में क्वान्टम इलेक्ट्रानिक्स का तेजी से विकास हो रहा है उससे इन विषय में और भी रहस्यपूर्ण जानकारी बढ़ेगी और सम्भवतः अधिक लोग रंगों की शक्ति का लाभ उठा सकेंगे विद्यालयों और सार्वजनिक स्थानों में रंगी डिज़ाइन, कलाकृतियाँ खींचने, खिड़कियों, दरवाजों में रंगीन परदे टाँगने, कई रंगों और बेलबूटों से सजे सद्वाक्य लिख कर अभी भी अधिक तत्परता पूर्वक रंगों के इस प्रभाव का लाभ लोग ले सकेंगे

पीले रंग का प्रेम-भावनाओं से संबंध है इस बात को भारतीयों ने बहुत पहले जाना था प्रकृति के अनुरूप बासंती परिधान पहनने की परम्परा अति प्राचीन हैं उपासना अनुष्ठानों में तो उसका महत्व और भी अधिक है वह बौद्धिक क्षमताओं को विकसित करने वाला और आरोग्यवर्धक भी माना गया है। प्रातःकाल उगते हुए पीतवर्ण सूर्य का दर्शन और ध्यान करने से बुद्धि और मेधा विकसित होती है। विवाह-शादियों ओर उपासना पुरश्चरणों पर पीत वस्त्र धारण करने की भारतीय परम्परा भी इसीलिये विकसित हुई कि इस रंग के प्रभाव से प्रेम और विवेक का उदय हो यह दोनों भाव मनुष्य-जीवन के कल्याण में बड़े सहायक होते हे इसीलिये पीले रंग का भी अपना विशिष्ट महत्व है।

हरा रंग आनन्द और प्रसन्नता प्रदान करता है। अधिक बौद्धिक श्रम करने वाले और अस्वस्थ लोगों को यदि उपलब्ध न हो तो हरे रंग का प्राकृतिक उपयोग करना चाहिये। जंगलों या पहाड़ों पर जाकर प्रकृति की हरियाली देखकर मन को बड़ी शान्ति और प्रसन्नता होती है। प्राकृतिक स्थानों के दर्शन और यात्रा का लाभ जिसे भी मिल सके अवश्य उठाना चाहिए उससे जीवन की थकावट दूर होती है पर जिसके लिये वह सुलभ न हो यह अपने घर के आस-पास हरे वृक्ष, साग-भाजी के पौधे और बेलें उगाकर भी उस आवश्यकता की पूर्ति कर सकते हैं।

हरे रंग से कार्य क्षमता भी बढ़ती है। बरसात के दिनों में किसान जितना काम अकेला कर लेता है ज्येष्ठ में उतना कई आदमी मिलकर नहीं कर पाते। एक बार एक हवाईजहाज बनाने वाले कारखाने में घास के रंग का प्रयोग किया गया। उस पर कृत्रिम रीति से सूर्य का प्रकाश डाला गया तो मजदूरों की कार्य क्षमता में व्यापक वृद्धि हुई।

जीवन को प्रभावित करने वाले मुख्य रंग यही हैं पर अन्य रंगों का भी महत्व किसी प्रकार कम नहीं हैं। सभी रंगों का मैल कई बार बहुत आकर्षक होता है। इन्द्रधनुष की सतरंगी छवि बड़ी प्यारी लगती है। धार्मिक दृष्टि से गेरुआ रंग का महत्व हिन्दू एवं बौद्ध मतावलम्बी दोनों ने स्वीकार किया है। यह रंग पवित्र और सात्विक जीवन के प्रति प्रेम और श्रद्धा भाव जगाता है।

यह रंग सूर्य की किरणों से बने बताये जाते हैं। सूर्य के प्रकाश को “स्पेक्ट्रो मीटर” यन्त्र से तोड़ा जाता है तो वह सात रंगों में विभक्त हो जाता है। प्राकृतिक जगत् में जो भी रंग-बिरंगापन है वह इन किरणों का ही खेल है। अपने जीवन में भी स्थिति, अवस्था और उपयोग की दृष्टि से रंगों का समावेश रहना चाहिये। यह भी एक कला है। इस कला का विकास भी धार्मिक महत्व रखता है। वेषभूषा के अतिरिक्त अपने घरों को रंग-बिरंगे रंगीन-चित्रों से, डिजायनों से सजाने की परम्परा पहले चलती थी अब भी चलनी चाहिए। विद्यालयों, वाचनालयों, देवालयों को तो रंगों की आभा देकर फूल-बेलों से अवश्य ही सजाना चाहिए। उत्सवों और मांगलिक कृत्यों के समय तो उस स्थान को रंग-बिरंगा बनाने का पूरा प्रयत्न करना ही चाहिए क्योंकि उससे शोभा ही नहीं शक्ति और आन्तरिक गुणों का विकास भी होता है।


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