छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा-मैं हूँ’

July 1969

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“गैसीय स्थिति में जीवन सम्भव है” यद्यपि यह मत अभी कुछ वैज्ञानिक ही स्वीकार करते हैं पर यदि इसी तरह विज्ञान बढ़ता गया तो वह निश्चित ही भावनाओं को तह तक पहुँचेगा और उक्त मान्यता के आधार पर यह अनुभव करना सरल होगा कि सूर्य-चन्द्रमा भी मनुष्य की तरह संवेदनशील शक्तियाँ है। उनके देवता होने की कल्पना तब भी निराधार न होगी, जब लोग चन्द्रमा पर पहुँच जायेंगे। जिस प्रकार मनुष्य शरीर का ही एक भाग दृश्य और स्थूल है पर उसका प्रकाश वाला चेतन स्वत्व देखने में नहीं आता। एक मिला-जुला रूप ही दिखाई देता हैं, उसी प्रकार व्यक्तियों को गैसीय स्थिति को दृश्य के साथ मिला-जुला अनुभव किया जाना नितान्त सम्भव ही जायेगा।

जीव-चेतना की उस खोज का सिलसिला अब आगे बढ़ता है। जीव-विज्ञानवेत्ताओं ने अभी कुछ समय पहले ही अमेरिका की नेशनल एरोनॉटिक्स एण्ड स्पेज एडमिनिस्ट्रेशन’ को बताया-पृथ्वी के अतिरिक्त अन्य ग्रहों पर जिस जीवन की कल्पना हम करते हैं, उसके अंतर्गत उन ग्रहों पर मनुष्य की तरह न तो सामान्य आकृति वाले प्राणी होंगे और न कथाओं वाले दैत्याकार मानव वरन् वहाँ जीवन अणु-जीवों के रूप में होगा, इसलिये अपने अनुसन्धान कार्य में ऐसे यन्त्रों को सम्मिलित किया जाना चाहिये, जो मंगल आदि ग्रहों के सम्भावित जीवन के बारे में सूचनाएँ देंगे यह यन्त्र इलेक्ट्रानिक होंगे, अनुमान है कि इस खोज को व्यापक रूप देने के लिये इलेक्ट्रानिक उपकरणों से सुसज्जित एक प्रयोगशाला मंगल ग्रह पर 1970 तक पहुँचा दी जायेगी।

अभी इन शोधों के लिये कुछ समय है पर धरती में जीवाणु विज्ञान सम्बन्धी जो खोज कार्य हुआ है, वही इतना पर्याप्त है कि उससे संसार में चेतना के अस्तित्व की संगति बैठाई जा सकती है। मुख्य कठिनाई यह है कि अमेरिका, रूस, इंग्लैण्ड या फ्राँस आदि में अनेक विद्वान् वैज्ञानिकों हैं पर उनके ज्ञान और उपलब्धियों का क्षेत्र नितांत एकांगी है। जिसे रसायन-शास्त्र का अध्ययन है वह भौतिक शास्त्र के कुछ पन्ने ही जानता है, सम्पूर्ण नहीं मनोविज्ञान खगोल विद्या और जीव-रचना शास्त्र आदि अनेकों बातें जो जीवन को अहं समस्याओं से उतनी ही घनिष्ठता रखती हैं, जितना रसायन शास्त्र। फल यह होता है कि उससे विद्वता भी भ्रामक ही रह जाती है, सिवाय इसके कि उससे कुछ बौद्धिक जानकारी बढ़ जाये मनुष्य जीवन सम्बन्धी किसी भी तथ्य या निष्कर्ष पर पहुँचना सम्भव नहीं होता। यह बात सभी प्रकार के पाश्चात्य विद्वानों के सम्बन्ध में भी है। यदि सभी वैज्ञानिक उपलब्धियों को एक स्थान पर लाकर उनसे फैसला कराना सम्भव हो जाता तो जीव विज्ञान की अब तक की वैज्ञानिक उपलब्धियाँ ही उक्त संदर्भ में भारतीय तत्त्व-दर्शन की पुष्टि कर देतीं और उससे आत्म-निरीक्षण की पद्धति का एक नया विज्ञान ही चल पड़ा होता। उसके लिये शोध और कठिनाई का सामना

नहीं करना पड़ता, वह सब मसाला भारतीय ग्रन्थों में तैयार रखा हैं, उसके सहारे आत्म-कल्याण और विश्व-शांति का मार्ग खोज निकालना प्रत्येक व्यक्ति के लिये सम्भव हो गया होता।

इस विषय का विज्ञान सम्मत प्रतिपादन करें इससे पूर्व भारतीय उपलब्धियों को जान लेना आवश्यक है। कैवल्योपनिषद् में जीव की व्याख्या इन शब्दों में की है-सूक्ष्मत्वात् सूक्ष्मतरे नित्यं तत्वमेव त्वमेद तत्’ अर्थात् जिसे सूक्ष्म से सूक्ष्म यन्त्रों से भी नहीं देखा जा सकता, जिसका कभी नाश भी नहीं होता वही तुम हो, तुम वही हो।”

इसी उपनिषद् के 20, 21, 22, 23 और 24 मंत्रों में विस्तारपूर्वक बताते हुये लिखा है-

अरणारणीयनहमेव न तद्वन्महानहं विश्वमिंहविचित्रं।

पुरातमोहं पुरुषोडहमीशो हिरणमयोंडहं

शिवरुपमस्मि॥

अपाणि पायाडहमचिन्त्य शक्तिः पश्योम्यचक्षुः

सश्रृणोम्यकर्णः।

अंह विजानामि विविक्त रुपों न चास्ति वेत्ता मम-

चित्तसदाहम्॥

वेदरनेकरहमेव वेद्यो वेदान्त कृद्धेदविवेव चाहम्।

न पुणयपापे ममनास्ति नाशो न जन्मदेहेन्द्रिय

बुद्धिरंस्त॥

न भूमिराया मम वह्निरस्ति न चानिलो मेडस्ति न

चाम्बरं च।

एवं विदित्वा परमात्मरुपं गुहाशयं निष्कल

म्द्वितीयम्।

समस्त साक्षिं सदसद्विहींन प्रयाति शुद्धं परमात्मरुपम्॥

-कैवल्योपनिषद् 20-24

अर्थात्-मैं (जीव) छोटे से भी छोटा और बड़े से भी बड़ा हूँ, इस अद्भुत शरीर को मेरा ही रूप मानना चाहिये। मैं ही शिव और ब्रह्मा स्वरूप हूँ, मैं ही परमात्मा और विराट पुरुष हूँ, मेरे न हाथ है, न पैर कल्पना भी जिस तक नहीं पहुँच सकती, वह परब्रह्म भी मैं ही हूँ, मैं सदैव अपने चेतन स्वरूप में रहता हूँ। मुझे कई स्थूल नेत्रों और बुद्धि से देख और समझ नहीं सकता, किन्तु मैं बुद्धि के बिना ही सब कुछ समझता, नेत्रों के बिना ही सब कुछ देखता, कानों के बिना ही सब कुछ सुनने को सामर्थ्य रखता हूँ। वेद का उपदेश और वेदान्त की रचना मैंने ही की है। वेदों में मेरा ही वर्णन है। मैं जन्म और मरण से परे हूँ, पाप और पुण्य मुझे स्पर्श नहीं कर सकते, क्योंकि शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियों से मैं रहित हूँ, मेरे लिये भूमि, जल, अग्नि, वायु और आकाश भी कुछ नहीं है जो इस तरह स्थूलता से रहित मुझे जान लेता हे, वही परमात्मा को प्राप्त करता है। भारतीय विद्वानों को तत्त्वदर्शन की अपनी एक शैली रही हैं। उन्होंने विज्ञान की उन सब बातों का प्रतिपादन तो किया है पर उन्हें खींचकर उन प्रेरणाओं तक बार-बार ले गये हैं, जिनसे मनुष्य इस संसार में आने के अपने उद्देश्य को समझ ले और उसे प्राप्त कर जीव-मुक्ति का आनन्द ले। यह ठीक ऐसा ही है जैसा कि जीवाणु को खोज करते हुये पाश्चात्य वैज्ञानिक नई-नई औषधियों की रचना करते जाते हैं, उससे लोग भ्रम में तो पड़ते है पर जिस तरह जीव-अणु की खोज पाश्चात्य दृष्टि में औषधियों का महत्व है उसी प्रकार हमारे पूर्वजों ने जीव का सम्बन्ध भावनाओं से जोड़कर उसे विराट् के साथ तादात्म्य कराने का प्रयत्न किया है, जिससे ज्ञान केवल शब्द सामर्थ्य ही बनकर न रह जाये वरन् उसका आत्म-कल्याण के लिये उपयोग भी हो।

प्रतिपाद्य विषय का ऐसा ही महत्त्वपूर्ण विश्लेषण गर्भोपनिषद् में मिलता है। सूक्ष्मातिसूक्ष्म जीव अपनी सूक्ष्मतम स्थिति तक पहुँचकर स्थिति तक पहुँचकर विराट् के साथ किस प्रकार तादात्म्य को यह कैवल्योपनिषद् में बताया गया। गर्भोपनिषद् में प्राणी के सूक्ष्म से सूक्ष्म में परिवर्तित होने का वर्णन है। रज-वीर्य के संयोग से किस प्रकार जीव गर्भ में प्रवेश करता है, पलता, बढ़ता और जन्म लेता है, इस प्रक्रिया का वर्णन करते हुये उस समय की जीव की भावनाओं का दिग्दर्शन कराया गया है, वह मानव-ज्योति के महान् उपयोग का ज्ञान और उसकी सर्वोच्च आवश्यकता भी है, किन्तु भावनाओं के अस्तित्व से इनकार करते रहने के कारण आज के मनुष्य ने अपना भारी अहित किया। गर्भोपनिषद् में इस बात का बार-बार संकेत करते हुये बताया है कि गर्भाधान होने पर शुक्र और शोणित के एक-एक अणु मिलकर कलल बनाते हैं, शुक्र का स्वरूप तेजस और शोणित को पदार्थ या स्थूल तत्त्व कहा गया है। यहीं वह तेज-बिन्दु शोणित के साथ स्थूल संरचना में आता है। 7 रात्रियों में वह कलल ही बुदबुदलनता, एक पखवार में पिण्ड और फिर इसी तरह विकसित होता, माता के द्वारा सेवन किये हुए अन्न से ज्ञान और कर्मेन्द्रियों का विकास करता हुआ जीव नौवें महीने में गर्भ से बाहर आता है। गर्भ में रहने तक उसे अपनी सूक्ष्म स्थिति का पता रहता है। वह बोलता नहीं संकल्प और विचार कर सकता है। जीव विकास की स्वाभाविक प्रक्रिया कहें या भगवान् का विधान उसी के अनुसार जल, वायु,, पृथ्वी, अग्नि और आकाश इन पाँचों तत्त्वों से उसके शरीर में कपाल, केश, दर्भ, मुख, एक सौ अस्सी संधियाँ, एक सौ सात मर्मस्थान, एक सौ नौ स्नायु, सात सौ शिरायें, पाँच सौ मज्जायें, तीन सौ साठ हड्डियाँ और साढ़े चार करोड़ वाला यह विराट् शरीर विनिर्मित होता है, यह विराट् शरीर उसका लोक है, ब्रह्माण्ड है, उसमें यजमान रूप से वह सूक्ष्मतम-सूक्ष्म आत्मा ही काम कर रही होती है, जो गर्भाधान के दिन नारी के मैथुनी कोष में प्रविष्ट हुआ था।

उस अवस्था में जीव के संकल्प विकल्प आदि के सम्बन्ध में तब तक कोई पुष्टि नहीं दी जा सकती, जब तक कि मनुष्य की स्वयं को बुद्धि उस सूक्ष्म विषय की ग्रहणशीलता की योग्यता न प्राप्त कर लें पर पाश्चात्य वैज्ञानिकों की खोजों ने यह अवश्य निश्चित कर दिया है कि जीव अत्यन्त सूक्ष्म अवस्था में भी चेतना की सभी अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करता है।

पाश्चात्य विज्ञान के अनुसार जीवित प्राणियों में जीवाणु सबसे छोटा जीव है। इसके शरीर में तरल प्रोटोप्लाज्मा भरा होता है उसके ऊपर सेल्यूलोज की पहली झिल्ली होती है। प्रोटोप्लाज्म के बीच बैठा हुआ जीवाणु 124000 इंच से भी छोटा होता है। इनके आविर्भाव की प्रक्रिया भी बड़ी विचित्र है, ये सर्दी-गर्मी जल-वायु मिट्टी आदि का संयोग पाकर स्वयं ही बढ़ते हैं, कुछ ही सेकेण्डों में वह अपने जैसे हजारों जीवाणु न जाने कहाँ से पैदा कर देता है। एक जीवाणु 10 मिनट के अन्दर में वह 170000000 जीवाणु पैदा कर डालता हैं। जिस प्रकार मनुष्य सर्दी-गर्मी के आवर्तन-परिवर्तन में कमजोर, स्वस्थ, प्रजनन आदि किया करता है, उसी प्रकार गर्मी-सर्दी के निश्चित सह्य ताप में वह भी यह क्रियायें किया करता है। तो भी वह आँखों से दिखाई नहीं देते। इन्हें अणुवीक्षण यन्त्रों द्वारा हो 800 से 2000 गुना अधिक बढ़ाकर देखा जा सकता है। यह जीवाणु भी जीव की सूक्ष्मतम स्थिति नहीं वरन् कोई बीच का रोग उत्पन्न करने और वस्तुओं के गुण बदलने (फारमन टेशन) वाली जाति है। जीवधारी के सूक्ष्मतम जीव द्रव्य की लघुता का तो अभी कोई अनुमान ही नहीं किया जा सका।

सारिकोडिना वर्ग के विख्यात जन्तु अमीबा को भी जीव की सूक्ष्मावस्था के उदाहरणार्थ लिया जा सकता है। पाश्चात्य वैज्ञानिक तो मनुष्य जाति को अमीबा की ही पूर्ण विकसित अवस्था मानते हैं, अमीबा की लम्बाई 1100 इंच होती है, उसे भी स्थूल आँखों से देखा नहीं जा सकता। प्रसिद्ध-वैज्ञानिक मास्ठ ने अमीबा का चार भागों में-(1), प्लाज्मा, (2) बाह्य-द्रव्य (एक्टोप्लाज्मा), (3) प्लाज्मा जेल और (4) प्लेजसोल-विभक्त कर मनुष्य के लिये सूक्ष्म-आत्मा के सम्बन्ध में और भी गूढ़ रहस्य में डाल दिया अर्थात् वह तो पूरे अमीबा से भी सूक्ष्मतम स्थिति है और एक निश्चित शरीर से आबद्ध होने के कारण ठीक मनुष्य की तरह ही संवेदनशील भी है। जब उसे सुई से छेदा जाता है तो वह उत्तेजित हो उठता है और अपने को बचा कर भागने का प्रयत्न करता है, बिजली के करेंट से भी वह दूर भागता है। पर विचित्रता यह कि वह अपने शरीर के किसी के भाग से भोजन कर सकता है, उसको मुख नहीं। थोड़े से जल के साथ वह भोजन ग्रहण करता है और मल विसर्जन भी किसी भी हिस्से से कर देता है। अमीबा का मूल चेतन भाग केन्द्रक या नाभिक स्वयं ही विभक्त होकर नये अमीबा पैदा करता है। विश्व के और प्राणी तो गर्भाधान से बच्चे पैदा करते हैं पर यह सूक्ष्म जीवाणु स्वयं ही नई सृष्टि पैदा करने की स्थिति में होते है, उससे पता चलता है कि केन्द्रक या दिखाई देने वाले नाभिक के भीतर कोई ऐसी विलक्षण शक्ति है, जो या तो अक्षय शक्ति का भण्डार या विश्व-चेतना का मूल है, सृष्टि में जो भी स्पन्दन और स्फुरण है, सब उसी को इच्छानुसार होता रहता है।

अब आनुवांशिकी विज्ञान ने इस रहस्य को और भी सूक्ष्म रूप में ला दिया है। वैज्ञानिकों के अनुसार शरीर 70 खरब कोशिकाओं का एक विराट् जगत् है, प्रत्येक कोष के अन्दर 46-46 गुणसूत्र विद्यमान् है। यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि कोशिका शरीर की अन्तिम दवाई है, जिसमें जड़ और चेतना दोनों समन्वित रहते है। इन गुण सूत्रों के आधार पर ही पीढ़ियाँ चलती है। गुणसूत्र मनुष्य के स्वभाव और संस्कार ही नहीं बनाते शरीर का छोटा-बड़ा लम्बा, कुबड़ा, गोरा, काला या कुरूप होना सब गुण सूत्रों पर निर्भर है। जब बच्चा गर्भ की स्थिति में जाता है तो वह एक कोशिका अर्थात् 64 गुणसूत्रों से अपनी शुरुआत करता है। इनमें से 23 माता और 23 पिता की देन होते है। हमारे शरीर की प्रत्येक कोशिका में चूँकि 46-46 अणुसूत्र (क्रोमोज़ोम) हैं, इसलिये प्रारम्भ 62 गुणसूत्रों से होना चाहिये, किन्तु जनन कोशिकाओं में चाहें वह स्त्री हो या पुरुष 26-26 गुणसूत्र ही होते हैं, दोनों के मिलाप से एक पूर्ण गुणसूत्र सम्पन्न कोशिका का आविर्भाव होता है। इस क्रिया के बिना मनुष्य की उत्पत्ति सम्भव नहीं इसलिये मनुष्य के विकास वाली अमीबा या और सभी सिद्धांत गलत हो जाते है।

यहाँ हम जीव के सूक्ष्मतम-सूक्ष्म और विराट् से विराट् स्वरूप की कल्पना कर रहे है, इसलिये विकास थ्योरी को यहाँ नहीं ले रहे हैं, इसलिये विकास थ्योरी को यहाँ नहीं ले रहे। हमारा ध्यान जीव उत्पत्ति की उस रहस्यपूर्ण स्थिति में, जिसकी सूक्ष्मता को आँखों से नहीं देखा जा सकता। प्रत्येक स्त्री-पुरुष में 2 घात 23 अर्थात् 8388608 जनन कोशिकाएँ बनाने की क्षमता है इनमें से कोई भी शुक्राणु गर्भाधान की क्रिया में भाग ले सकता है। स्त्री के 23 में से कोई या पुरुष के 23 में से कोई अर्थात् प्रत्येक जीवकोष के अन्दर 2 घात 46 तरह के बच्चे पैदा करने की क्षमता है। यह तो केवल 46 गुणसूत्रों का हिसाब है। प्रत्येक गुणसूत्र 10 हजार जीन्स से बने होते हैं, इस तरह 2 घात 46 और उसके गुणनफल से जो संख्या आये उसके 10000 घात इतने प्रकार का प्राणि जगत् एक मनुष्य के भीतर भरा हुआ है। जबकि सारी पृथ्वी की जनसंख्या ही कुल 2 घात 32 और 2 घात 34 के बीच में है। यदि सूक्ष्म का अन्त केवल जीन है तो ही एक मनुष्य के अन्दर सारी सृष्टि विद्यमान् माननी चाहिये, यदि जीन्स की भी कोई इकाई निकल आई तब तो वैज्ञानिक एक यह देखेंगे कि शुक्र, शनि, बुध, मंगल सहित 50 करोड़ प्रकाश वर्षों और 10 करोड़ निहारिकाओं वाला विराट ब्रह्माण्ड मनुष्य के भीतर ही है। आकाश में दौड़ लगाने का यह जो धन कष्ट और समय साध्य परिश्रम किया जा रहा है, वह सब व्यर्थ है, यदि यह परिश्रम मनुष्य अपने आपको खोज में करे तो वह अपने आप में ही द्वितीय आनन्द के स्त्रोत उपलब्ध कर सकता है। यही बात योगवाशिष्ठ में काफी समय पहले ही समझा दी गई थी। श्रुति का कथन है कि-

जगतोन्तरहंरुप महंरुपान्’तरे जगत्।

स्थितमन्योन्यबलितं कवलीवल पीठबत्॥

-6।2।22।26

परमाणु निमेषाणाँ लक्षाँशगलनास्वपि।

जगत्कल्प सहस्त्राणि सत्यानीय विमान्तयक्तम्॥

तेष्श्प्यन्त स्तयैवान्तः परमाणु कणं प्रति।,

भ्रान्तिरेव मनन्ताहो इयमित्यव भासते॥

-3।62।1-2,

ऊणावरुणावसंख्यानि तेन सन्ति जगत्तिखे।

तेषान्तान्व्यबहारौधान्संख्यातु क हव क्षमः॥

-6।2।176।6,

अर्थात्-आकाश में अनन्त द्रव्यों के असंख्य परमाणु बिखरे पड़े है, उन सब में अनोखे जगत् विद्यमान् हैं, जहाँ-जहाँ जीवाणु हैं, वह अपनी अपनी स्थिति के अनुसार सृष्टि का अनुभव करते हैं। प्रत्येक अणु के अन्दर अनन्त सृष्टियाँ विद्यमान् हैं। परमाणु के एक अत्यन्त सूक्ष्म अणु के लाख वें भीतर हजारों जगत् प्रत्यक्ष से दिखाई देते है। अणु-अणु के भीतर जगत् विद्यमान् है, जो इस बात को जानता और समझता है वही सच्चा ज्ञानी है।

आज का विज्ञान भी यही कहता है कि हर परमाणु के भीतर सौर मण्डल विद्यमान् है, किन्तु हमारा कितना दुर्भाग्य है कि हम उस सूक्ष्मतम-सूक्ष्म चेतन सत्ता का अनुभव न कर विराट्-दर्शन से वंचित रह जाते और दीन-हीन जीवन जीते रहते है।


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