आत्मवत् सर्वभूतेषु

July 1969

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दार्शनिक कवि हेमचन्द्र सूरि को भला किसी प्रकार का अभाव क्यों हो सकता था। वैभव विलास तो उनके आँगन में खेलता था। वे सौराष्ट्र राजा के राज्यकवि थे। राजधानी-पाटन कवि की भक्ति, श्रद्धा और विद्वता पर अपना सर्वस्व लुटा सकती थी। उतना सम्मान राज्य में और किसी को नहीं मिला था। स्वयं सौराष्ट्र नरेश आचार्य प्रवर की पद-धूलि अपने माथे पर चढ़ाते और उनको किसी भी इच्छा पूर्ति में अपने जीवन की सार्थकता अनुभव करते।

ऐश्वर्य के बीच पलते हुए भी कवि की भावनाएँ विशुद्ध संन्यासिनी थी। उनके अन्तःकरण में वह करुणा थी कि एक पिल्ले की चोट देखकर भी उनके दृग झरने लगते। वह एक ऐसे विश्व की कल्पना किया करते थे, जिसमें कोई दीन न हो, दुःखी न हो, रोगी और अस्वस्थ न हो। उनके काव्य की एक-एक पंक्ति में प्राणिमात्र के प्रति प्रेम, दया, करुणा और आत्म-जीवन भरी होती थी यही कारण था एक राज्य कवि गाँव के ग्वालों से लेकर सिंहासनाधीश तक परमप्रिय हो गये।

चीनाशुक धारण किये हुये हेमचन्द्र एक दिन ग्राम्यौर्न्दय के दर्शनों के लिये घर से निकल पड़े। कृत्रिम प्रसाधनों से विभूषित राजधानी में जो लालित्य देखने को नहीं मिल सके, वह लावण्य लहलहाते हुए खेत, वृक्षों पर गीत गाते पक्षियों का कलरव, कल-कल झरने और निर्धनता में मौज मस्ती के गीत गाते हुये भोले-भोले ग्राम-वासियों में देखने को मिला। हेमचन्द्र बढ़ते ही गये। बढ़ते ही गये। उन्मुक्त कृति में सौंदर्य देखकर उन्हें जितनी प्रसन्नता हुई, अभावग्रस्त ग्रामीणों का दैन्य देखकर उनकी करुणा भी उससे अधिक उमड़ती गई। कवि आज सारे संसार का दुःख दर्द अपने भीतर आत्मा में रखकर कहीं अन्तर्धान हो जाना चाहता था पर उस बेचारे के पास भावनाओं के अतिरिक्त भी क्या?

ग्रामवासियों ने सुना-आज राज्य-कवि हेमचन्द्र पधारे है। तो लोग उनके दर्शनार्थ उमड़ पड़े। भेंट तो क्या दे सकते थे, किसी ने कन्द लाकर रख दिये, किसी ने फूल और फल। कवि जिसने षट् रस व्यंजनों का रसास्वादन किया था, उसके लिये भला सूखे मेवों का क्या महत्व हो सकता था? पर आत्मा की सरसता हो तो थी, जो वह ग्रामीण भाइयों को इन साधारण वस्तुओं में उतनी तृप्ति अनुभव कर रहे थे, जितनी अन्तःपुर के किसी भोज में भी उन्हें न मिली होगी। सच बात तो यह थी कि वह पदार्थ नहीं प्रेमरस पान कर रहे थे।

कवि लोगों से खड़े प्रिय वार्ता कर रहे थे, तभी एक किसान आया। एक मोटा परिधान-लगता था उसे सूत और सन मिलाकर बनाया गया है-लाकर आचार्य के चरणों में समर्पित करते हुये उसने अभ्यर्थना को-यह वस्त्र मेरी पत्नी ने आपके लिये बुना है, आप इसे स्वीकार करें तो हम अपने जीवन को कृतार्थ हुआ समझें।”

एक दृष्टि उस मोटे परिधान पर और दूसरी दृष्टि अपने वस्त्राभूषणों पर डालते हुये कवि की आंखें छलक उठों। ओह! घोर

वैषम्य? कितना परिश्रम करते है, यह लोग और उनके परिश्रम का आनन्द राज्य के थोड़े से लोग लूटते हैं। इनकी दीनता के कारण हम हैं, जिन्हें अपने बड़प्पन का मिथ्या अभिमान हो गया है। हमने कभी यह नहीं सोचा कि हम भी उसी माटी के बने हैं जिसने इन गरीब किसानों को शरीर दिया हैं। एक ही माँ के बेटों में इतना अन्तर-इससे बड़ा कलंक सत्ताधारियों और लोक-सेवकों के लिये दूसरा

नहीं हो सकता।

आचार्य ने वह परिधान हाथ में ले लिया। माथे से लगाया और शरीर पर धारण कर लिया। राजकीय वस्त्राभूषण उतार कर उस ग्रामीण को दे दिये, स्वयं उस मोटे वस्त्र में राजधानी लौट आये।

राजकवि के वस्त्रों पर दृष्टि जाते ही महाराज द्रवीभूत होकर बोले-आचार्य देव यह क्या देख रहा हूँ? आप ऐसे वस्त्र पहने पारण के लिये यह जीवन-मरण का प्रश्न है, क्या मैं उसका कारण जान सकता हूँ क्या मैं उसका कारण जान सकता हूँ, इन वस्त्रों की क्या आवश्यकता आ पड़ी?”

आचार्य जो अब तक सरलता की प्रतिमा लगा करते थे, आज उनमें सूर्य-सी प्रखरता फूट रही थी, उन्होंने कहा-महाराज! अधिकांश प्रजा ऐसे ही कपड़े पहनती है तो फिर मुझे ही बहुमूल्य वस्त्र पहनने का क्या अधिकार? यदि मैं ग्रामीण जनों को कुछ दे

नहीं समता तो उनसे लू भी क्यों? और आप जो देते हैं, वह भी तो उन्हीं का है।”

महाराज ने अपनी भूल अनुभव की और उसके बाद प्रजा की समुन्नति में जूट गये।


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