वह तलवार-
सिकन्दर ने सुना था भारतवर्ष में बड़े प्रतापी साधु और तत्त्वज्ञानी पंडित होते हैं, उनके पास जाकर जीवन कुछ का कुछ हो जाता है। उसकी बड़ी इच्छा थी कि वह किसी ऐसे तत्त्वज्ञानी महात्मा के दर्शन करे।
एक दिन सिकन्दर एक जंगल की ओर चल पड़ा। कुछ दूर जाकर उसने एक महात्मा को ध्यानावस्थित देखा। महात्मा के पास न तो कोई वस्त्र थे, न आभूषण और न ही कोई भोज्य पदार्थ पर वेदीप्य की आभा उनके मुख से ऐसी फूट रही थी जैसे वह कोई राजा हो।
सिकन्दर ने उन्हें प्रणाम कर पूछा-महाराज! साधनहीन होकर भी आप में सम्राटों जैसी तेजस्विता कहाँ से आई?”
साधु ने हँसकर उत्तर दिया-अरे मनुष्य! तुझे पता नहीं मेरा ईश्वर कितना दिव्य, तेजस्वी और महान् है, उसके समीप बैठकर मैंने भी तेजस्विता का एक कण पा लिया तो इसमें रहस्य क्या हो गया।”
सिकन्दर सन्त की उद्दीप्त मुखाकृति से तो प्रभावित था ही शौर्य देखकर तो मुग्ध ही हो गया। उसने ऐसे महात्मा को गुरु बनाने का निर्णय किया। इसी आशय से उसने पूछा-महाराज! आप मेरे साथ चलिये वहाँ सारा राज्य-वैभव धन और सम्पत्ति आपके चरणों में न्यौछावर कर दूँगा।” महात्मा ने हँसकर उत्तर दिया-मणि हो जिसके पास वह तेरे साथ क्यों जायेगा, काँच के लिये।”
सिकन्दर को अपनी उपेक्षा का बड़ा गुस्सा आया। तलवार खींचकर बोला-अभी तुझे काट कर रख दूँगा।” साधु खिलखिलाकर हँस पड़े और बोले-तात्! मैं तो यही चाहता हूँ कि तू मुझे काट डाले पर क्या बतायेगा ऐसी तलवार है कहाँ जो मेरे मैं को काट डाले?”
सिकन्दर यह सुनकर हतप्रभ रह गया। विलक्षण ईश्वरीय शक्ति के आग सिर झुकाया और वहाँ से चुपचाप लौट गया।