समस्त दुःखों का एकमात्र कारण- अज्ञान

July 1969

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योगवाशिष्ठ का वचन है-

आयघो व्याधयश्चैव

द्वय दुःखस्य कारणम।

तन्निवृत्तिः सुखं विद्यात्

तत्क्षयों मोक्ष उच्यते॥

- आधि, व्याधि- अर्थात् मानसिक और शारीरिक यह दो ही प्रकार के दुःख इस संसार में है। इनकी निवृत्ति विद्या अर्थात् ज्ञान द्वारा ही होती है। इस दुःख निवृत्ति का नाम ही मोक्ष है।

इस प्रकार इस न्याय से विदित होता है कि यदि मनुष्य जीवन से दुःखों का तिरोधान हो जाय तो वह मोक्ष की स्थिति में अवस्थित हो जाये। दुःखों को अत्यन्त अभाव ही आनन्द भी है। अर्थात् मोक्ष और आनन्द एक दूसरे के पर्याय है। इस प्रकार यदि जीवन के दुःखों को नष्ट किया जा सकें तो आनन्ददायी मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है।

बहुत बार देखा जाता है कि लोग जीवन में अनेक बार आनन्द प्राप्त करते रहते है। वे हँसते, बोलते, खाते, खेलते, मनोरंजन करते, नृत्य- संगीत और काव्य कलाओं का आनन्द लेते, उत्सव- समारोह और पर्व मनाते, प्रेम पाते और प्रदान करते, गोष्ठी और सत्संगों में मोद विनोद करते और न जाने इसी प्रकार से कितना आमोद प्रमोद पाते और प्रसन्न बना करते है- तो क्या उनकी इस स्थिति को मोक्ष कहा जा सकता है?

नहीं, मनुष्य की इस स्थिति को मोक्ष नहीं कहा जा सकता। मोक्ष का आनन्द स्थायी, स्थिर, अक्षय, समान अहैतुकी और निष्पक्ष हुआ करता है। वह न कही से आता और न कही जाता है। न किसी कारण से उत्पन्न होता है। और न किसी कारण से नष्ट होता है। वह आत्म-भूत और अहैतुकं होता है। वह संपूर्ण रूप में मिलता है संपूर्ण रूप में अनुभूत होता है संपूर्ण रूप में सदा सर्वदा ही बना रहता है। वह सार्वकालिक, सर्वव्यापक और सर्वस्व सहित ही होता है। मोक्ष का आनन्द पाने पर न तो कोई अंश शेष रह जाता है और न उसके आगे किसी प्रकार के आनन्द की इच्छा शेष रह जाती है। वह प्रकाश पूर्ण और परमार्थिक ही होता है।

पूर्वोक्त लौकिक आनन्दों में यह विशेषताएँ नहीं होती। उनकी प्राप्ति के लिए कारण और साधन की आवश्यकता होती है। वह किसी हेतु से उत्पन्न होता है और हेतु के मिट जाने पर नष्ट हो जाता है। इतना ही क्यों- यदि एक बार उसका आधार बना भी रहे तो भी उस आनन्द में जीर्णता, क्षीणता, प्राचीनता और अरुचि आ जाती है। लौकिक आनन्दों की परिसमाप्ति दुःख में ही होती है। आज जो किसी कारण से प्रसन्न है, आनन्दित है वह कल किसी कारण से दुखी होने लगता है। लौकिक आनन्द की कितनी ही मात्रा क्यों न मिलती जाये, तथापि और अधिक पाने की प्यास बनी रहती है। उससे न तृप्ति मिलती है और न सन्तोष। जिस अनुभूति में अतृप्ति, असन्तोष और तृष्णा बनी रहे वह आनन्द कैसा? लौकिक आनन्द के कितने ही सघन वातावरण में क्यों न बैठे हों एक छोटा सा अप्रिय समाचार या छोटी सी दुःखद उसे समूल नष्ट कर देती है। तब न किसी ने मुख पर हँसी रह जाती है और न हृदय में पुलक! लौकिक आनन्द और मोक्षानन्द की परस्पर तुलना ही नहीं की जा सकती।

लौकिक आनन्दों में इस असफलता का कारण यह होता है कि वे असत्य एवं भ्रामक होते है। उनकी अनुभूति प्रवंचना अथवा मृगतृष्णा के समान ही होती है। इस असत्यता का दोष ही लौकिक आनन्द को निकृष्ट एवं अब्राह्रा बना देते है। आनन्द केवल आत्मिक आनन्द ही होता है। मोक्ष का आनन्द की वास्तविक तथा अन्वेषित आनन्द है। लौकिक आनन्दों की अग्राहाता का प्रतिपादन इसलिए कहा गया है कि जो व्यक्ति उसके झूठे प्रवचनों में फँस जाता है, उन्हें पकड़ने, पाने के लिए दौड़ता रहता है, उनकी स्थिर और स्थायी बनाने में लगता है, वह अपना सारा जीवन इसी मायाजाल में उलझकर खो देता है। भ्रम में पड़े रहने के कारण उसे वास्तविकता का ध्यान ही नहीं आता। लौकिक आनन्दों के फेर में पड़कर जिसे वास्तविक आनन्द का ध्यान ही न आयेगा वह उसको पाने के लिए प्रयत्नशील भी क्यों होगा। जिस हिरन को मृगमरीचिका जल के भ्रम में भुला लेती है तन-मन से उसी को पकड़ने के पीछे पड़ा रहता है। अब पाया अब पाया करता हुआ वह निःसार दुराशा का यन्त्र बना भटकता रहता है और इस प्रकार वास्तविक जल की खोज से वंचित हो जाता है। परिणाम यह होता है कि भटक-भटक कर प्यासा ही मर जाता है। जिस जीवन में वह पानी और परितृप्ति दोनों को पाकर कृतार्थ हो सकता था वह जीवन यों ही चला जाता है, नष्ट हो जाता है। यही हाल लौकिक आनन्दवादियों का होता है। जिस जीवन में वे मोक्ष और उकसा वास्तविक सुख प्राप्त कर सकते है वे उसे माया छाया और भ्रामक सुख की मरीचिका में नष्ट कर अपनी आनन्द हानि कर लेते है। इसीलिए लौकिक सुखों की प्रबलता के साथ अग्राह्य एवं गर्हित बताया गया है। वास्तविक आनन्द लौकिक लिप्साओं और साँसारिक भोग-विलासों में नहीं है वह मोक्ष और मोक्ष की स्थिति में है। उसी को पाने का प्रयत्न करना चाहिए, वही मानव जीवन का लक्ष्य है, उसी में शांति और तृप्ति मिलेगी।

इस प्रकार स्पष्ट है कि दुःख तो दुःख ही है साँसारिक सुख भी दुःख का एक स्वरूप है। इनकी निवृत्ति से ही सच्चे सुख की प्राप्ति सम्भव है। किन्तु इनकी निवृत्ति का उपाय क्या है? इसके लिए पुनः योगवाशिष्ठ में कहा गया है-

“ज्ञानान्निर्दुः खतामेति

ज्ञानावज्ञान संक्षयः।

ज्ञानादेव परासिद्धि

नन्यिस्याद्राम वस्तुतः॥”

-हे राम! ज्ञान से ही दुःख दूर होते हैं, ज्ञान से अज्ञान का निवारण होता है, ज्ञान से ही परम सिद्धि होती है और किसी उपाय से नहीं

और भी आगे बताया गया है-

“प्रज्ञाँ विज्ञात विज्ञेयं

सम्यग् दर्शन माधयः।

न बहन्ति वनं वर्षा

सिक्तमग्निशिखा इव।”

-जिसने जानने योग्य को जान लिया है और विवेक दृष्टि प्राप्त कर ली है, उस ज्ञानी को दुःख उसी प्रकार त्रासक नहीं होते जिस प्रकार वर्षा से भीगे जंगल को अग्नि शिखा नहीं जला पाती।

अब यहाँ पर ज्ञान पर स्वरूप जानने से पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि आखिर दुःख की उत्पत्ति होती किन कारणों से? वैसे तो जीवात्मा अपने मूल रूप में आनन्दमय है। तब अवश्य ही कोई कारण ऐसा होना चाहिये जो उसके लिये दुःख की सृष्टि करता है। उसको भी योगवाशिष्ठ में इस प्रकार बताया गया है -

“देह दुःख विदुर्व्याधि

माध्याख्यं मानसामयम्।

मौख्यं मूले हते विद्या

तत्त्वज्ञाने परीक्षयः।”

-शारीरिक दुखों को व्याधि और मानसिक दुःखों को आधि कहते है। यह दोनों मौर्ख्य अर्थात् अज्ञान से ही उत्पन्न होती है और ज्ञान से नष्ट होती है।

संसार के सारे दुःखों का एकमात्र हेतु अविद्या अथवा अज्ञान की है। जिस प्रकार प्रकाश का अभाव अन्धकार है और अन्धकार का अभाव प्रकट होता है, उसी प्रकार ज्ञान का अभाव अज्ञान और अज्ञान का अभाव ज्ञान होना स्वाभाविक ही है और जिस प्रकार ज्ञान का परिणाम सुख-शांति और आनन्द है उसी प्रकार अज्ञान का फल दुःख, अशान्ति और शोक-सन्ताप होना ही चाहिये।

यह युग-युग का अनुभूत तथा अन्वेषित सत्य है कि दुःखों की उत्पत्ति अज्ञान से ही होती है और संसार के सारे विद्वान्, चिन्तक एवं मनीषी जन इस बात पर एकमत पाये जाते है। इस प्रकार सार्वभौमिक और सार्वजनिक रूप से प्रतिपादित तथ्य में संदेह की गुँजाइश रह ही नहीं जाती- इस प्रकार अपना-अपना मत देते हुये विद्वानों ने कहा है- चाणक्य ने लिखा- “अज्ञान के समान मनुष्य का और कोई दूसरा शत्रु नहीं है।” विश्वविख्यात दार्शनिक प्लेटो ने कहा है- “अज्ञानी रहने से जन्म न लेना ही अच्छा है, क्यों कि अज्ञान ही समस्त विपत्तियों का मूल है।” शेक्सपियर ने लिखा है- “अज्ञान ही अन्धकार है।”

जीवन की समस्त विकृतियों, अनुभव होने वाले दुःखों, उलझनों और अशान्ति आदि का मूल कारण मनुष्य का अपना अज्ञान ही होता है। यही मनुष्य का परम शत्रु है। अज्ञान के कारण ही मनुष्य भी अन्य जीव-जन्तुओं की तरह अनेक दृष्टियों से हीन अवस्था में ही पड़ा रहता है। ज्ञान के अभाव में जिनका विवेक मंद ही बना रहता है उनके जीवन के अन्धकार में भटकते हुये तरह-तरह के त्रास आते रहते है। अज्ञान के कारण ही मनुष्य को वास्तविक कर्त्तव्यों की जानकारी नहीं हो पाती इसलिए वह गलत मार्गों पर भटक जाता है और अनुचित कर्म करता हुआ दुःख का भागी बनता है। इसलिये दुःखों से निवृत्ति पाने के लिये यदि उनका कारण अज्ञान को मिटा दिया जाये तो निश्चय ही मनुष्य सुख का वास्तविक अधिकारी बन सकता है।

अज्ञान का निवारण ज्ञान द्वारा ही हो सकता है। शीत उसकी विपरीत बस्त आग द्वारा ही दूर होता है। अन्धकार की परिसमाप्ति प्रकाश द्वारा ही सम्भव है। इसलिये ज्ञान प्राप्ति का जो भी उपाय सम्भव हो उसे करते ही रहना चाहिये।

ज्ञान का सच्चा स्वरूप क्या है? केवल कतिपय जानकारियाँ ही ज्ञान नहीं माना जा सकता। सच्चा ज्ञान वह है जिसको पाकर मनुष्य आत्मा परमात्मा का साक्षात्कार कर सके। अपने साथ अपने इस संसार को पहचान सके। उसे सत् और असत् कर्मों की ठीक-ठीक जानकारी रहे और वह जिसकी प्रेरणा असत् मार्ग को त्याग कर सन्मार्ग पर असंदिग्ध रूप से चल सके। कुछ शिक्षा और दो-चार शिल्पों को ही सीख लेना भर अथवा किन्हीं उलझनों को सुलझा लेने भर की बुद्धि ही ज्ञान नहीं है। ज्ञान वह है जिससे जीवन-मरण बन्धन-मुक्ति कर्म-अकर्म और सत्य-असत्य का न केवल निर्णय ही किया जा सके बल्कि गृहणीय को पकड़ा और अग्राह्य हो छोड़ा जा सके, वह ज्ञान आध्यात्मिक ज्ञान ही है।

अज्ञान की स्थिति में कर्मों का क्रम बिगड़ जाता है। संसार में जितने भी सुख-दुःख आदि द्वन्द्व है वे सब कर्मों का फल होता है। अज्ञान द्वारा अपकर्म होना स्वाभाविक ही है और तब उनका दण्ड मनुष्य को भोगना ही पड़ता है। इतना ही क्यों सकाम भाव से किये हुये सत्कर्म में सुख के फल रूप में परिपक्व होते है और असत्य होने से कुछ हो समय में दुःख रूप में परिवर्तित हो जाते है। इसलिये कर्म ही अधिकतम बन्धनों अथवा दुःख को मनुष्य पर आरोपित कराते है।

कर्मों का न तो त्याग ही सम्भव है और न इनके परिपाक को बदला जा सकता है। इनकी स्थिति भी बड़ी दृढ़ होती है। इन पर यदि विजय पाई जा सकती है तो केवल ज्ञान द्वारा। इसीलिये तो भगवान् तो भगवान् ने अर्जुन को कर्मों का रहस्य और ज्ञान की शक्ति प्रकट करते हुये गीता में कहा है-

“यर्थवासि समिद्धोग्नि

र्भस्मसात्कुरुतेऽर्कुम।

ज्ञानाग्नि सर्व क्रर्माणि

भस्मसात् कुरुते तथा।”


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