धर्म का अनुसंधान।

October 1940

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(स्वामी विवेकानन्द के एक भाषण का अंश)

पुरानी बाइबिल में मूसा से कहा गया है- “अपने पैरों से जूते उतार डालो, क्योंकि जहाँ तुम खड़े हो वह ईश्वर के बैठने का पवित्र स्थान है।” हमें सदा ही बहुत श्रद्धाभाव से धर्म के अध्ययन की ओर अग्रसर होना चाहिए। वह व्यक्ति जो पवित्र हृदय और श्रद्धा का भाव लेकर आता है उसका हृदय खुल जायेगा। उसके लिये द्वार मुक्त रहेगा और सत्य का दर्शन करने में समर्थ होगा।

यदि आप केवल प्रतिभा या बुद्धि लेकर ही आवेंगे तो थोड़ा बुद्धि कौशल दिखाने का क्षेत्र, थोड़े से बुद्धि कौशल सम्बन्धी सिद्धान्त मात्र प्राप्त कर सकेंगे, किन्तु सत्य आपके हाथ नहीं लग सकेगा। सत्य में एक ऐसा आकर्षण है कि जो व्यक्ति उसे देख पाता है, केवल वही सन्देह रहित होता है। सूर्य को प्रदर्शित करने के लिये किसी प्रकार के मशाल की आवश्यकता नहीं पड़ती। सूर्य अपनी प्रभा से ही दीप्तिमान है। यदि सत्य के लिये भी कोई प्रमाण आवश्यक होगा तो भला उस प्रमाण को कौन प्रमाणित कर सकेगा ? इस विश्व में भला कहाँ ऐसा प्रमाण उपलब्ध हो सकता है जो सत्य को प्रमाणित कर सके। श्रद्धा और प्रेम भाव से हमें ईश्वर की ओर-ईश्वर प्राप्ति की ओर अग्रसर होना चाहिए। हमारा हृदय खिलेगा और हमें बतला देगा कि यह सत्य है और यह असत्य। धर्म का क्षेत्र हमारी ज्ञानेन्द्रियों से परे है, वह हमारी वेदना शक्ति से भी परे है। हम अपनी ज्ञानेन्द्रियों से ईश्वर को नहीं देख सकते। कोई भी व्यक्ति अपने नेत्रों से ईश्वर को नहीं देख सका है। भविष्य में भी इस तरह कोई उसका दर्शन नहीं प्राप्त कर सकेगा। ईश्वर किसी की भी चेतना-शक्ति में नहीं आता। मैं ईश्वर को नहीं जानता। उसे न तो आप जानते हैं और न कोई दूसरा ही व्यक्ति जानता है। ईश्वर कहाँ है? धर्म का क्षेत्र कहाँ है? यह बुद्धि से परे है, चेतना शक्ति से परे है। बहुतों में से चेतना-शक्ति ही एक मात्र ऐसा क्षेत्र है, जिसमें हम काम करते हैं। स्वयं अपने ही केन्द्र स्थान के अधिक समीप पहुँचने के लिये आपको चेतना-शक्ति के क्षेत्र का अतिक्रमण करना पड़ेगा। यदि आप अपने केन्द्र के समीप पहुँच जायेंगे तो बहुत कुछ ईश्वर के भी समीप पहुँच जायेंगे। ईश्वर का प्रमाण क्या है? प्रत्यक्ष अर्थात् साक्षात् दर्शन। इस दीवार का प्रमाण यही है कि मैं इसे अपने नेत्रों से देख रहा हूँ। इस मार्ग का अनुसरण करके हजारों आदमी ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन कर चुके हैं और जो लोग अभिलाषी होंगे वह भविष्य में भी करेंगे। परन्तु इस प्रकार का प्रत्यक्ष इन्द्रियों के द्वारा बिलकुल सम्भव नहीं है। यह इन्द्रियों से परे है, चेतना-शक्ति से परे है। इस विषय की शिक्षा भी हमें इसलिये आवश्यक है कि वह हमें इन्द्रियों से प्रतीत कर दे, इन्द्रियों को तृप्त करने की लालसा बिलकुल जाती रहे। हर तरह के अपने पूर्व कार्यों तथा दासता के कारण हम लोग अधःपतन की ओर चले जा रहे हैं। पूर्वोक्त ढंग से अभ्यास करते करते हम विशुद्ध हो जायेंगे और कर्म का भार हल्का हो जायेगा। उस समय दासता की बेड़ी अपने आप कट कर गिर जायेगी और हम इन्द्रियों के प्रत्यक्ष के क्षेत्र से, जिसमें कि हम जकड़ कर बंधे हुए हैं, ऊपर उठ जायेंगे। उसमें हम ऐसी वस्तु को देखेंगे, सुनेंगे या उनका स्पर्श करेंगे, जिसे कि साधारण मनुष्य, जो आहार, निद्रा और भय के फेर में पड़े रहते हैं, न तो स्पर्श कर सकेंगे, न देख सकेंगे, और न सुन सकेंगे। उस समय हम एक विचित्र ही भाषा बोलेंगे। तब संसार हमें न समझ सकेगा, क्योंकि यह तो इन्द्रियों के विषयों के अतिरिक्त और कुछ जानता नहीं। वास्तविक धर्म तो अलौकिक है, यह ज्ञानातीत है। इस विषय के हर एक प्राणी में इन्द्रियों का अतिक्रमण करने की शक्ति होती है। यहाँ तक कि एक जरा सा कीड़ा भी किसी दिन इन्द्रियों का अतिक्रमण करके ईश्वर के समीप पहुँच जायेगा। जीव असफल न होगा। विश्व में असफलता के समान और कोई भी वस्तु नहीं है। मनुष्य सैंकड़ों बार अपने आप को व्यथित करता है, हजारों बार अधःपतन की ओर जाता है परन्तु अन्त में वह अनुभव करेगा कि मैं ईश्वर हूँ। हमें यह मालूम है कि जीवात्मा सीधे उन्नति की ही ओर नहीं अग्रसर होता जाता। हर एक जीवात्मा को भ्रमण करना पड़ता है। मानो वह एक तरह के चक्र में डाल दिया जाता है और उसे उसकी परिक्रमा करनी पड़ती है। यह अभी पतन की ओर अत्यधिक नहीं जा पाता और समय आने पर उन्नति करने लगता है। कोई भी नष्ट न होगा। हम सभी लोगों का एक समान केन्द्र से प्रादुर्भाव हुआ है। क्या उच्चतम और क्या निम्नतम, ईश्वर जितने भी जीवों का प्रादुर्भाव करता है, वे सभी उस परम पिता की गोद में लौट आते हैं। जिससे समस्त प्राणियों का प्रादुर्भाव हुआ है, जिसमें वे रहते हैं और अन्त में लौटकर जिसकी शरण लेंगे वह ईश्वर है।


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