निराश पथिक से:- (कविता)

October 1940

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(श्री शिवनारायण गौड़, लश्कर)

कितने क्षण रो रोकर बीते, अति क्षीण हुई तेरी काया।
ऐ पथिक, निराशा का यह घन, कैसे तेरे ऊपर छाया॥

जग का पथ इतना कठिन नहीं, जितना तूने पहचाना है।
यह सुख दुख सारा भ्रम मय है नश्वर है आना−जाना है॥

बेशक मंजिल है दूर अभी, फिर भी चल तू पग आगे धर।
> नैराश्य निशा को चीर उषा, आशा की किरण निहारा कर॥

अज, अक्षय, अभेद्य अविचल ओ, कभी नहीं मरने वाले!
कब है इतनी हस्ती जग की, जो तुझ को संकट में डाले!!

अपनी नौका दे खोल सुदृढ़ हाथों में ले पतवार सखे!
मन के जीते है जीत और है मन के हारे हार सखे!!


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