(श्री गिरजा देवी 'निर्लिप्त' लखनऊ)
तेरी पावन स्मृति में, कितने आँसू बिखराए।
भर-भर के दृग सीपों में, नित मुक्त हार लुटाए॥
गत जीवन की स्मृतियाँ, चंचल समीर बन आतीं।
उर के प्रशाँत सागर में, मृदु कम्पन सा कर जातीं॥
उत्ताल तरंगावलियाँ, उठ-उठ विलीन हो जातीं।
ये किस निराश जीवन के , सूने पन को बतलातीं॥
नभ में जब सजल घटायें, घनघोर उमड़ छा जाती है।
मेरी यह प्यासी अखियाँ, आँसू की झड़ी लगातीं॥
आकर के मानस पट पर, चुपके से कोई छाया।
अपना अधिकार जताती, बन प्रबल मोहनी माया॥
पूछा कब मैंने तुझसे, कब पता तुम्हारा पाया।
मैं भेद समझ कब पाई, तू कौन कहाँ से आया।