क्षण भंगुर जीवन (कविता)

October 1940

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(लेखक- श्री यदुवंशलाल ‘चन्द्र’ तिलाठी)

क्षण-भंगुर जीवन है मेरा, क्षण-भंगुर संसार, सखे!
माया के मोहक मन्दिर का मिला न कुछ आधार, सखे!!

धूल उड़ाते आया था जब शूर सिकन्दर यूनानी।
झुक एशिया चला तब करने सादर उसकी अगवानी॥
अन्त समय में उसी सिकन्दर की न चली कुछ एक कला।
खुले हाथ जाते देखा- वह लिये साथ क्या गया भला॥
इस क्षण-भंगुरता का कुछ भी नहीं यहाँ अभिसार, सखे!
क्षण-भंगुर जीवन है मेरा- क्षण भंगुर संसार, सखे!!

तरु-पत्रों में आँख-मिचौनी खेल रहा था शशि सुकुमार।
शत-शत कर से शरत निशा में गूँथे पिन्हाये कितने हार।
नष्ट हुई उसकी उजियाली द्रुत-गति से वह भाग चला।
कहाँ समेट गया क्या जानें अपनी बिखरी कलित कला॥
उदय हुआ है जिसका जग में, उसका होगा अस्त, सखे!
क्षण-भंगुर जीवन है मेरा- क्षण भंगुर संसार सखे!!

कलियों में आयी मादकता, सह न सकीं वे यौवन-भार।
आलिंगन करता था अलि झुक, पीता था मधु पंख पसार॥
कल तक तो इस उपवन में होता था मधुपों का गुञ्जार।
मौल गई ये कलियाँ सारी, चले मोड़ मुख मधुप-कुमार॥
खिले हुए फूलों को देखा, मुरझाते भी यहाँ, सखे!
क्षण-भंगुर जीवन है मेरा- क्षण भंगुर संसार, सखे!!

मत इठला, रे मानव! यौवन में, यौवन जग का अभिशाप।
जिसमें तुम सुख खोज रहे हो, उसमें दुख-दारुण संताप॥
लुट जाएगा वैभव तेरा, मिट जाएगा सुन्दर रूप।
इसी रूप में तुम्हें बनाया, इसी रूप ने किया कुरूप॥
दो दिन का यह वैभव तेरा क्यों करती अभिमान, सखे!
क्षण-भंगुर जीवन है मेरा- क्षण-भंगुर संसार, सखे!!

*समाप्त*


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles