अहंभाव का प्रसार करो।

October 1940

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(पं. शिवनारायण शर्मा, हैड मास्टर, आगरा)

ब्रह्मचर्याश्रम में गुरु गृह वा विद्या-मन्दिर ही ब्रह्मचारी का विश्व-संसार है। जिसने जीवन में कभी किसी का आज्ञापालन नहीं किया है वह कभी उन्नति के सोपान पर नहीं चढ़ सकता, जब तक अपने ज्ञान का विकास न हो, जब तक अपने हिताहित का बोध न हो, जब तक अपना चरित्र गठन न हो, तब तक यदि गुरु सेवा में न रहोगे तो स्वेच्छाचार रूपी कीड़ा तुमको काटता रहेगा। जिसने कभी सिपाही की तरह सेनापति की आज्ञा-पालन करना नहीं सीखा, वह कभी नेता नहीं बन सकता। कठोर शासनाधीन रहने पर चमचमाती तलवार और तोपों को देखकर भी योद्धा लोग नहीं डरते। शासन और नियम में रहने से हृदय में एक अपूर्व शक्ति का विकास होता है और अहंभाव का क्रमिक विकास होता है। इसी से आर्य ऋषियों ने ब्रह्मचारियों के लिये सुदृढ़ शासन की व्यवस्था की है, इसी व्यवस्था के कारण आर्यावर्त प्राचीन समय में उन्नति के शिखर पर था। अब वह कठोर शासन न रहने से हम ज्ञान विज्ञान भ्रष्ट, असंयत चरित्र, दुर्बलकाय, दुर्बल चित्त हो कर पराधीन हो रहे हैं। आजकल ब्रह्मचर्य न होने से ही भारत की यह दुर्दशा है।

मानव की शिक्षा का विकास गृहस्थाश्रम में होता है। रसायनादि शिक्षा के लिये जिस तरह उपदेश-गृह (Lecture-Room) में उपदेश प्राप्त होने पर भी, उपदेश सम्यक् हृदयंगम करने के लिये परीक्षागृह (Laboratory) में यन्त्रादि की सहायता से क्रिया करना आवश्यक है, उसी तरह ब्रह्मचर्य काल में मानव जीवन के सब कर्तव्य विषयक उपदेश प्राप्त होने पर भी, उन उपदेशों की दृढ़ता और परिणति सम्पादन के लिये गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना आवश्यक है। जो ज्ञान कार्य रूप में परिणत न हो वह व्यर्थ है। विद्या पढ़ कर उस विद्या द्वारा जगत् का और अपना उपकार न करे तो उसकी वह विद्या वृथा है। बलवान होकर जो दुर्बल की सहायता न करे, उसका बल निरर्थक है। संक्षेप में - जो जिसके पास है उसका सद्व्यवहार न होने से उसका रहना और न रहना बराबर है।

गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने पर कर्तव्याकर्तव्य की अनेक प्रकार की जटिल समस्यायें मनुष्य के सामने आती हैं; तब यदि मानव में “मैं-मेरा” के प्रसार को इष्टदेव का दिया हुआ मूल मंत्र समझकर चले तो वह कभी न गिरे। क्या पारिवारिक, क्या सामाजिक, क्या राजनैतिक सब तरह के कार्यों में यदि अहंभाव का प्रसार करके देखा जाय अर्थात् सभी कार्यों में यदि ‘मुझको’ ‘पर के’ स्थान में स्थापित किया जा सके तो कर्तव्य मीमाँसा उतनी कठिन न हो। पिता जब पुत्र के साथ यदि कोई व्यवहार करे तब अपने को पुत्र कल्पना कर उसके साथ कर्तव्य का निश्चय करे। इसी तरह पुत्र जब पिता के साथ कोई व्यवहार करे तब अपने को पिता समझकर व्यवहार करे। इसी तरह स्त्री, भाई बहिन, कुटुम्बी, आत्मीय, बन्धु देशी विदेशी सबके स्थान में ही “मुझको” कल्पना करके उसके साथ अपना कर्तव्य निश्चय करे। राजा-प्रजा, धनी-दरिद्र, ऋणी-धनी, यजमान-पुरोहित, स्वामी-सेवक, रोगी-वैद्य इत्यादि सब ही एक दूसरे के साथ अपना कर्तव्य निर्णय करते समय दूसरे के स्थान में अपने को कल्पना करें, तो जगत में कभी अशान्ति न रह सके, गृहस्थ के सब ही कर्तव्यों में अहंभाव का प्रसार होने से कर्तव्य सुगम और सुखद होते हैं, और जब ऐसा नहीं होता तब ही मनुष्य एक दूसरे के प्रतिकूल होने से अशान्ति उत्पन्न होती है।

ब्रह्मचर्य के बाद गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने पर “अहंभाव का प्रसार” अधिक कठिन नहीं है, किन्तु कालवश उस ब्रह्मचर्य का लोप होने से गृहस्थाश्रम में “अहंभाव का प्रसार” रूप मूल मंत्र द्वारा प्रेरित होना कठिन हो गया है। तो भी अहं को प्रसार ही मानव जीवन में साधना का मूल तत्व होने से मानव कितना ही विकृत क्यों न हो, वह मूल तत्व एक दम विस्मृत नहीं हो सकता, इसी कारण मनुष्य के अनेक कार्यों में उनके अनजान में ‘अहं भाव’ का प्रसार अधिकार कर लेता है। इन्द्रिय परितृप्ति के लिये ही साधारण गृहस्थ विवाह करते हैं, सन्तान होने पर उनके अहं का प्रसार और बढ़ जाता है। अपने परिवार को अपना समझने पर क्रम से अन्य परिवारों पर भी सहानुभूति की स्वाभाविकता से ‘मैं’ का प्रसार उत्पन्न होता है और धीरे धीरे मानवमात्र में फैल जाता है। कार्यक्षेत्र जितना ही बढ़ता जाता है, मनुष्य उतना ही भिन्न भिन्न देशों में भ्रमण करता है, भिन्न भिन्न भाषायें सीखता है, भिन्न भिन्न देश के रहने वालों से मिलता है उतना ही वह अपने को उनके स्थान में स्थापन करना सीखता है। विदेश में भ्रमण करने से विदेश के भ्रमण के कष्ट अनुभव होते हैं, फिर यदि कोई विदेशी हमारे देश में आवे तो उसके साथ सौजन्य और सद्व्यवहार करने को व्याकुल होते हैं। तीर्थ भ्रमण का यह एक महान फल है।

इसी कारण गृहस्थाश्रम में अनेक प्रकार के कर्तव्य करने की व्यवस्था है। धर्म क्या है? कई प्रकार के कर्तव्य का नाम ही धर्म है। माता पिता की भक्ति करो, स्त्री-पुत्र, आत्मीय स्वजनों का प्रतिपालन करो, अतिथि सेवा करो, दीन-दुखियों को दान करो, अज्ञानी को ज्ञान का उपदेश करो, साधु का सम्मान करो, असाधु को यथा योग्य भाव से दण्ड व उपदेश द्वारा सत्मार्ग पर लाओ, ईश्वर में भक्ति रक्खो इत्यादि जो कुछ मानव का कर्तव्य है उन्हीं की समष्टि को धर्म कहते हैं। केवल ईश्वर उपासना को ही यदि धर्म कहा जाय तो ईश्वर उपासना में भी आपके सब कर्तव्य निहित हैं। ईश्वर उपासना करने के लिये ईश्वर को आदर्श पुरुष जानकर उपासना की जाती है और उस आदर्श पुरुष में पूर्ण अहंता का प्रसार साधन व आत्म समर्पण करते हैं, अतएव ऐसे पुरुष की उपासना करने के लिये उसका आदर्श हृदय में अंकित कर कार्यक्षेत्र में उस आदर्श का अनुगामी होना होता है। बुद्धिमान पाठक जीवन के प्रत्येक कर्तव्य को सूक्ष्म दृष्टि से आलोचना कर देखने से समझ सकेंगे कि प्रत्येक कर्तव्य ‘मैं’ के प्रसार पर स्थापित है। यह भित्ति दूर करते ही वह अकर्तव्य में परिणत हो जायेगा।

इस तरह अपना कर्तव्य निश्चय करके गृहस्थाश्रम में सब प्रकार के कर्तव्य पालन करने का उत्तम सुयोग्य पाया जाता है। इस आश्रम में ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सब प्रकार के अधिकारी व्यक्ति अपना कर्तव्य पालन करते हुये अहंभाव का प्रसार कर सकते हैं। निम्न अधिकारी लोग उच्च अधिकारियों के सुसंग में आकर अपने अहंता के प्रसार के साथ, उनकी अहंता के प्रसार की तुलना करके अपने को उन्नति कर सकते हैं। इसी स्थान में ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य, शूद्र, पिता-पुत्र, पति-पत्नि, भाई-बहिन, स्वामि-सेवक, मित्र आदि के सत्संग में आकर सब विषयों में अहंता का प्रसार कर सकते हैं। अतएव हे पाठक! आप यदि अपना और जगत का मंगल चाहते हैं तो ब्रह्मचर्याश्रम में अहंता के प्रसार की शिक्षा से ज्ञान तपस्या साधन कर गृहस्थाश्रम में भी अहंभाव के प्रसार रूप मूल मंत्र द्वारा चलते हुए, कर्म तपस्या द्वारा उस ज्ञान का परिपाक या परिणति कर जीवन कृतार्थ करें।


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