एक सहारा (कविता)

October 1940

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री के. मित्तल, मुरार)

यह सब सपने की बातें, क्यों इनमें जी ललचाया।
तू सोच समझले भाई, यह क्षण भंगुर है माया॥

इसके फंदे में फँस कर, क्यों अपना भरम गंवाया।
दिन खोकर झूठे सुख में, फिर अन्त काल पछिताया॥

थे बड़े बड़े बलधारी, ज्ञानी अरु धीर धुरंधर।
रहे न रावण से बलशाली योधा शूर सिकन्दर॥

यह मेला दो दिन का है, जो लेना हो सो ले ले।
अवसर ऐसा नहीं मिलेगा, जीवन नौका खे ले॥

बीत चुका सो बीत चुका, जो बाकी उसे बचाले।
शिर पर मृत्यु खड़ी है अब भी जगजा सोने वाले॥

*** *** *** *** ***

इस नश्वर मानव जीवन का केवल एक सहारा।
दीन बन्धु का नाम विश्व में है अविचल ध्रुवतारा॥


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles