(लेखक - श्री नागेश्वरप्रसाद जी दीघाघाट)
अखण्ड ज्योति के पाठकों के सामने मैं एक ऐसे प्रश्न पर विचार करना चाहता हूँ जिसका सम्बन्ध प्रत्येक मानव शरीर से रहता है पर जिसकी तात्विक जानकारी बहुत कम लोगों को रहती है। सभी शास्त्रों, ऋषि महात्माओं की वाणी है कि पुण्य कार्य की ओर प्रवृत्त होना चाहिये और पाप कर्म से अपने को बचाये रखना चाहिये। पुण्य क्या है? कहा जाता है कि अच्छे कर्म से पुण्य होता है। इतना तो हम अपनी आँखों के सामने देखते हैं। भलाई अथवा अन्य भले कार्यों के फलस्वरूप सुख की वृद्धि होती है। दूसरों के प्रति की गई भलाइयां ही सुकर्म क्यों कही जाएं? अपने प्रति जो कुछ अपनी सुख वृद्धि के लिए अथवा अन्य स्वार्थ साधन के लिये अच्छे कर्म किये जाते हैं वे सुकर्म क्यों नहीं हों और अगर सुकर्म हों भी तो कम दर्जे का क्यों माना जाय? और फिर यह सुकर्म क्यों किये जायं? अर्थात्, इनके करने से अगर पुण्य होते हैं तो पुण्य ही क्यों किया जाय?
यह दार्शनिक क्षेत्र के गहन प्रश्न हैं। अगर हम यह मान कर चलें कि सभी लोग परस्पर हित का ख्याल रखेंगे तो संसार भर में प्रेम सम्पादन होगा तो यह प्रेम राज्य तो केवल मानव प्राणियों तक ही सीमित नहीं है। बल्कि मानवता में तो चींटी, पतंगों पर भी दया करने का उपदेश है तो क्या उनसे प्रेम व्यवहार सम्भव है? क्या उनसे भी कभी प्रेम विनिमय की आशा है? अगर हम यह मानते हैं कि अखिल विश्व ब्रह्माण्ड में एक ही अखण्ड, अव्यक्त सत्ता व्याप्त हो रही है, चाहे उसे हम ईश्वर, ब्रह्म, जीव या जो भी नाम दें तो भी यही समझ में आता है कि जिस तरह तालाब के किसी भाग का पानी गन्दा हो तो तालाब ही गन्दा कहलायेगा; उसी तरह संसार के बीच अपनी भलाई के लिये दूसरे को कष्ट दिया अथवा दूसरे की भलाई के लिये अपने को कष्ट दिया, तो बात तो एक ही होनी चाहिए परन्तु दोनों में ये भेद नजर आता है। एक को पाप और दूसरे को पुण्य कह कर आकाश पाताल का अन्तर कर दिया गया। ऐसा क्यों?
सभी शंकाओं पर विचारपूर्वक मनन करने पर हम एक निष्कर्ष पर पहुँचते हैं जो सभी शंकाओं का निराकरण कर देता है। हम पुण्य सिर्फ इस उद्देश्य से नहीं करते कि उससे दूसरे को लाभ पहुँचता है बल्कि इसलिये भी कि दूसरे की लाभार्थ उस किये गये उपकार के कारण अपना ही हित अधिक होता है। विचार शुद्ध होने से मन पवित्र होता जाता है जिससे धीरे-धीरे सात्विकता को अपनाता हुआ मनुष्य परम पद को प्राप्त कर लेता है जो मानव जीवन का अन्तिम उत्कर्ष है। हम अगर कुछ भला कर्म करते हैं तो उसका संस्कार मन में जाता और वह संस्कार बार-बार सुकर्म की प्रेरणा करता है। यही नियम बुरे कार्यों के लिये भी है। कर्म का फल दूसरों को जितना मिलता है, उससे अधिक अपने को मिलता है, यह ध्यान में रखते हुए स्वान्तःसुखाय कर्म करते जाना चाहिये। वासनायें मनुष्य को साँसारिक बन्धन में डाल देती हैं और सात्विक वृत्ति वासनाओं की आसक्ति मिटा देती है। अतएव हम अपने अन्दर सतोगुण विकास की इच्छा से कर्म करें।
इस तरह कर्म निःस्वार्थभाव से किया जाना चाहिए। स्वान्तः सुखाय का बहुत बड़ा स्वार्थ तो अपने ही आप आ जायेगा परन्तु साँसारिक लाभ की इच्छा न रखते हुये कर्म करना अच्छा है। जितना ही फल की भावना बिना कर्म में लगेंगे उतना ही उसका उत्तम आध्यात्मिक फल प्राप्त होगा। इसी से कहा कि ‘भलाई करो और कूयें में डालो।’ इस तरह अपना जीवन सदैव परोपकार परसेवा में तो लगाए रखना चाहिये ही, पर साथ ही किसी पर उसके लिए एहसान भी प्रकट नहीं करना चाहिये। क्योंकि यह सभी सुकर्म मुक्ति के लिये हैं - इस विश्व-बन्धन से छुटकारे के लिये हैं।