मौन व्रत से महान् लाभ

October 1940

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(लेखक - योगीराज उमेशचन्द्रजी, बम्बई)

मनुष्य के शरीर में कुदरत की अजब कारीगरी समाई हुई है। योगशास्त्र कहता है कि जो मनुष्य शरीर रूपी पिंड को बराबर जानता है उस मनुष्य को समष्टी रूप ब्रह्माण्ड जानना कुछ मुश्किल नहीं।

शरीर में चार वाणी हैं। जैसे कि:- परावाणी नाभि (टुन्डी) में, पश्यन्तिवाणी छाती में, मध्यमावाणी कण्ठ (गले में), और वैखरी वाणी मुँह में है। शब्द की उत्पत्ति परावाणी में होती हैं परन्तु जब शब्द स्थूल रूप धारण करता है, तब मुँह में रही हुई वैखरी वाणी द्वारा बाहर निकलता है।

मौन दो प्रकार के हैं।

(1) वाणी से और (2) मन से। वाणी को वश में रखना, कम बोलना, नहीं बोलना, जरूरत के अनुसार शब्दोच्चार करना आदि वाणी के मौन कहे जाते हैं। मन को स्थिर करना, मन में बुरे विचार नहीं लाना, अनात्म विचारों को हटा कर आत्म (अध्यात्म) विचार करना, बाह्य सुख की इच्छा से मुक्त होकर अंतर सुख में मस्त होना, और मन को आत्मा के वश रखना वगैरह मन का मौनव्रत कहलाता है।

मौन व्रतधारी व्यक्तियों को मुनि के नाम से सम्बोधन करते हैं। मौन व्रतधारियों में महान् शक्ति होती है, यह बात सत्य है। उदाहरण देखिये कि जब ज्यादा प्रमाण में बोलने में आता है, तब गले की आवाज बैठ जाती है, प्यास अधिक लगती है, कण्ठ सूखता है, छाती में दर्द होता है, और बेचैनी सी मालूम पड़ती है, अर्थात् सख्त मेहनत करने वाले मजदूर वर्ग से भी अधिक परिश्रम बोलने में पड़ता है। इसलिये जितने प्रमाण में बोला जाय उतने ही प्रमाण में शरीर की शक्ति व्यय होती है।

मेरे कहने का यह मतलब नहीं कि मुँह बन्द कर लेना चाहिये, परन्तु हमेशा के व्यवहार में आवश्यकतानुसार ही वाणी का उपयोग किया जावे, तो भी बहुत सी शक्ति का अपव्यय बचेगा।

दुनिया में महान् व्यक्ति होने के लिये कुदरत के कुछ नियम पालने पड़ते हैं। उन नियमों में ‘वाणी स्वातंत्र्य’ भी एक नियम है किन्तु वर्तमान समय की संसार व्यापी अव्यवस्था के कारण साधारण जीवन बिताने के लिये भी बहुत बोलना पड़ता है। लोगों को इसमें कमी करने के लिये निम्न नियमों का पालन करना चाहिये।

पालने के नियम-

(1) कोई कोई स्त्री पुरुषों को ऐसी आदत होती है कि बिना कारण ही बोला करते हैं उन्हें बोलने का प्रमाण कम करना चाहिये।

(2) बिना कारण (हँसी, दिल्लगी या दूसरे किसी के साथ) बोलने की इच्छा हो तब दोनों नासिका द्वारा श्वास खींच कर छाती के फेफड़ों में भर रखना और धीरे धीरे निकाल देना, भरते समय ईश्वर का ध्यान या अपने धर्म गुरु के बताये हुए मन्त्र का जाप करना।

(3) पखवाड़े भर में एक दिन सुबह या शाम को पौन घण्टे मौन धारण करना। उस समय “मेरा मन पवित्र होता जाता है” “मेरी जिन्दगी सुधरती जाती है” “व्यवहार या परमार्थ के लिये जो भी शुभकार्य करता हूँ वे सब कर्म लाभकारक होते हैं” इस प्रकार के विचार करना।

(4) ज्यादा समय मिल सकता हो तो अठवारे में एक वक्त या 4 दिन में एक वक्त 3 से 6 घण्टे मौन रहना।

(5) मौन धारण करते समय दूध या फलों पर रहना। हो सके तो बगीचे आदि रम्य स्थान में घूमने जाना।

(6) वायु प्रधान शरीर वाले को अधिक बोलने की आदत होती है, वास्ते उनके पेट में से और सिर में से वायु दोष निवारण करने के लिये रोज सबेरे ताँबे के लोटे में रक्खा हुआ पानी 12 या 14 ओंस पी जाना, पानी पीकर आधे घण्टे बाद सण्डास (मल विसर्जन करने) जाना चाहिये।

मौन धारण करने से लाभ।

अन्तरशक्ति बढ़ती है, महान कार्यों को कैसे करना चाहिये, वह काम शुरू करने के बाद उसका क्या परिणाम होगा, यदि विघ्न आवे तो कैसे टालना चाहिये, अटल श्रद्धा से कार्य सिद्धि आदि सन्देश हृदय में रहे हुए परमात्मा द्वारा मिलेंगे।

मौनधारियों के वचन सत्य होते हैं, सुनने वाले को सम्पूर्ण विश्वास तथा सचोट असर होता है। बीड़ी, सिगरेट, तम्बाकू, चाय और अफीम वगैरह शरीर को अत्यन्त नुकसान करने वाले व्यसन के ऊपर काबू रखने की शक्ति आती है और धीरे धीरे खराब व्यसन छूट जाते हैं। अन्तःकरण, मन, बुद्धि, चित्त अहंकार में रहे हुए छह रिपु (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर) का नाश होता है, सुख और दुःख के समय सौम्य दृष्टि व संतोषवृत्ति उत्पन्न होती है, ज्ञानेन्द्रियों की स्थिरता जाती रहती है, नाभि में रही हुई परावाणी में से शब्द गुप्त रूप से प्रकट होते हैं। वे शब्द मनुष्य (अपने) कल्याण के पन्थ में ले जाने वाली आज्ञा है अपने शरीर में से उत्पन्न होने वाले शब्दों के आधार से भविष्य में जाने वाले सुख या दुःख के समाचार मिल सकते हैं। पूर्व जन्म में कौन थे वह ज्ञात होता है। अपने सगे सम्बन्धी इष्ट मित्र मरने के बाद कहाँ (किस योनी, स्वर्ग, मृत्यु, पाताल, नरक अथवा मोक्ष) गये हैं उसकी समझ पड़ती है।


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