साधना के विघ्न

October 1940

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(ले. श्री रामदयाल गुप्त, नौगढ़)

संसार में अनेक प्रकार की लौकिक परलौकिक साधनाएं हैं। किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त करने तक की जो मंजिल है वह साधना कहलाती है। इस साधना में यदि कुछ विघ्न उपस्थित होते हैं तो उद्देश्य भ्रष्ट हो जाता है और सफलता नहीं मिलती। आप यदि किसी महत्वपूर्ण कार्य में लगे हुए हैं और उसमें सफलता प्राप्त करने की हार्दिक कामना करते हैं तो आपको उन विघ्न बाधाओं से बचाव करना होगा जो मार्ग को कंटकाकीर्ण बना देती है। विद्याध्ययन, अन्वेषण, कोई महान कार्य पूरा करना, दैवी साधना, ईश्वर प्राप्ति आदि किसी लक्ष को आपने स्थिर किया है तो साधना के विघ्नों से भी परिचित होना जरूरी है। नीचे उन विघ्नों का कुछ विवरण किया जाता है।

(1) स्वास्थ्य का अभाव- खराब स्वास्थ्य होने पर कोई कार्य अच्छी तरह नहीं हो सकता। रोग पीड़ित और निर्बल शरीर मनुष्य जीवन धारण किये रहने का कार्य भी कठिनाई से कर पाता है। भला वह अन्य साधनाएं किस प्रकार करेगा? साधन के लिये स्वस्थ रहने की आवश्यकता है। सोने, काम करने, खाने, पीने आदि का ऐसा नियम रखना चाहिये जिससे स्वास्थ्य बिगड़ने न पावे। प्रकृति सेवन, नियमित व्यायाम तथा आसनों से स्वास्थ्य को बड़ा लाभ पहुँचता है।

(2) खान पान में असंयम- आहार की अशुद्धि तथा असंयम से शारीरिक और मानसिक रोग उत्पन्न होते हैं। अन्न के अनुसार ही मन बनता है। तामसी और अनियमितता पूर्वक किया हुआ भोजन चित्त में चंचलता और दुष्ट विचार उत्पन्न करता है पल स्वरूप बुद्धि भ्रष्ट होने लगती है और कुछ करते धरते नहीं बन पड़ता। तीक्ष्ण मसालों वाला, गरम रूखा, आहार, बासी, सड़ा हुआ जूठा अपवित्र, गरिष्ठ और अनीति के साथ लिया हुआ भोजन तामसी है। इससे बचना चाहिये। मादक द्रव्यों से दूर रहना चाहिये। जहां तक हो सके सादा, सात्विक, रसीला और पौष्टिक भोजन भूख से कुछ कम मात्रा में ही करना चाहिये।

(3) सन्देह- सफलता उतनी सरल नहीं है जितनी लोग समझते हैं। जब साधारण काम काजों में कामयाबी मुश्किल से होती है तो महान कार्यों में तो और भी अधिक कठिनाई आती है। कभी कभी तो इतनी अधिक बढ़ जाती है कि उनका रूप असफलता जैसा प्रतीत होता है। इन सारे विघ्नों को दूर करने वाली यदि कोई चीज है तो वह अटूट श्रद्धा और दृढ़ विश्वास ही है। किसी भी काम को करते समय यदि मन में संदेह उठते रहें सफलता के बारे में यदि बार-बार आशंकाओं से मन भरा रहे तो अविश्वास बढ़ता जायेगा और तदनुसार कार्य करने की क्षमता नष्ट होती जायगी अल्प शक्ति से कठिन कार्य पूरे नहीं हो सकते। इस प्रकार संदेह का निश्चित फल असफलता होती है। जिस काम को करना है पूरी तरह और काफी समय लगा कर सोच विचार लो। किन्तु जब आरम्भ कर दो तो सारे संदेहों को उठा कर ताक में रख दो और मशीन की तरह कान में जुट जाओ। तभी वह पूरा हो सकेगा।

(4) सद्गुरु का अभाव- हर विषय का संपूर्ण ज्ञान मनुष्य अपने पेट में से ही नहीं प्राप्त कर सकता। उसे उस विषय के बारे में अधिक जानकारी हासिल करनी होती है यों तो हर विषय अनेकों प्रकार से बताने वाले अनेक पुरुष हैं पर उनके पथ प्रदर्शन से खतरा है। क्योंकि जिसने खुद रास्ता नहीं देखा वह दूसरों को क्या बतायेगा। अनुभवी निस्स्वार्थ और उदार शिक्षक को चुनना कठिन है पर जो इस कार्य में सफल हो गया वह अपने उद्देश्य में भी सफल हो गया। कई व्यक्ति इधर उधर से कुछ जान कर उसी के आधार पर अपना कार्य प्रारम्भ करते हैं, वे कठिन प्रसंग आने पर गड़बड़ा जाते हैं और अपने को खतरे में डाल लेते हैं इसलिये उचित है कि सत्=सच्चे, गुरु=शिक्षक। सच्चे शिक्षक को तलाश किया जाय। यदि वह आसानी से न मिल सकता हो तो उतावली में अल्पज्ञ व्यक्तियों को अपने मार्गदर्शक मत बनाओ। नहीं पुरुषों की लेखनी का सत्संग करो और उन्हें अपना शिक्षक बनाओ जो बहुत दूर हैं या गुजर चुके किन्तु जिन की असर वाणी पुस्तकों द्वारा तुम्हें आसानी से प्राप्त होती है।

(5) नियमानुवर्तिता का अभाव- नियत समय पर सोना, उठना, बैठना, खाना, पीना आदि मन को एकाग्र करने में बड़े सहायक होते हैं। जो काम आप को करना है उसे नियम पूर्वक करो। प्रति दिन थोड़ा सा समय भी यदि नियम पूर्वक लगाया जाय तो कुछ ही दिनों में बहुत काम हो जाता है। किन्तु यदि एक दिन बहुत किया और दूसरे दिन बिल्कुल नहीं तो कुछ विशेष लाभ न होगा, एक दिन का अभ्यास दूसरे दिन भूल जाओगे। इसलिये दैनिक जीवन निर्वाह के कार्य तथा अपने विशेष प्रोग्राम के लिये समय नियत करलो और अनिवार्य कारण के बिना उसे किसी प्रकार मत छोड़ो।

(6) प्रसिद्धि- यश बड़ी सुन्दर वस्तु है। उसे हर कोई चाहता है। किन्तु कुछ लोग यश को मुख्य और काम को गौण बना लेते हैं फल स्वरूप उनके सारे काम यश के लिये होते है। वे वही काम करेंगे जिसमें तारीफ सुनने को मिले। यह इच्छा बढ़ते बढ़ते इतनी बढ़ जाती है कि वह दम्भ करने पर उतर आता है। इससे वास्तविक लाभ कुछ नहीं होता। दम्भ खुल जाने पर उल्टी अपकीर्ति होती है। इसलिये प्रसिद्ध की ओर से अपना मन बिलकुल हटा कर ठोस कार्य करने पर जुट जाना चाहिये। यश तो महान कार्यों की छाया है जो सदा साथ रहता है। छाया के पीछे दौड़ने से वह दूर हटती जायगी किन्तु उसकी ओर से मुँह मोड़ लोगे तो पीछे फिरेगी। प्रसिद्धि की ओर से मुँह मोड़ कर एकान्त वनों में रहते हुए जिन ऋषियों ने लोक कल्याण के अनेक कार्य किये थे उनकी कीर्ति लाखों वर्षों से अब तक अमर है। किन्तु झूठे विज्ञापन बाजों की ओर तो लोग आंखें उठाकर भी नहीं देखते। सच्चे हृदय ठोस काम करिये प्रसिद्ध की इच्छा मत कीजिये। वह तो अपने आप ही मिलने वाली है।

(7) कुतर्क- अपने को बुद्धिमान समझने वाले लोग बात बात में बहस और तर्कों से काम लेते हैं। उनके तर्क इतने बढ़ जाते हैं कि बिना बहस के कदम भी नहीं रखना चाहते। तर्क यद्यपि अच्छी चीज है उससे भले बुरे की पहचान करने में बहुत मदद मिलती है फिर भी उसकी जड़ में श्रद्धा का होना आवश्यक है। तर्क के लिये किया जाने वाला तर्क यथार्थ में कुतर्क है। इन कुतर्कों का समाधान किसी भी तरह नहीं हो सकता यदि भोजन, शयन के काम में आने वाली वस्तुओं के बारे में तर्क उठाया जाय तो उन्हें काम में नहीं लाया जा सकता। हमारी रीति रिवाजें, सामाजिक नियम, धर्म व्यवस्था, ईश्वर के आस्तित्व इनमें से किसी को तर्क स्वीकार नहीं कर सकता। फिर तर्क के ऊपर तर्क है। एक तर्क के इतने बच्चे हो सकते हैं कि उन्हें देख कर किंकर्तव्य विमूढ़ होना पड़ेगा। अन्त में श्रद्धा के अवलम्ब से ही शान्ति मिलेगी। इसलिये कुतर्कों को त्यागो अपनी आत्मा की आवाज सुनो सद्बुद्धि से उस पर विजय प्राप्त करो।

(क्रमशः)


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