(लेखक - श्री रामनिवास शर्मा, अम्बाह)
“अध्ययन और मनन किये बिना कोई ‘मनुष्य’ नहीं बन सकता। पशुता से मानवता की ओर जाने का मार्ग विद्या और ज्ञान द्वारा ही प्राप्त होता है। फिर मेरा पुत्र अशिक्षित रहकर हीन जीवन क्यों व्यतीत करे?” ऋषि आरुणि के हृदय में यह विचार हलचल मचा रहे थे वे अपने खिलाड़ी लड़के श्वेतकेतु को विद्या पढ़ने के लिये कई बार कह चुके थे पर उसके ऊपर कोई कहने लायक असर न हुआ था। पिता की आँख बची कि श्वेतकेतु पोथी पटक कर गायब।
लड़का बड़ा हो चुका था। यह न पढ़ेगा तो एक ऋषि के लिये कितनी लज्जा की बात है। आरुणि का मन दुःख से भरा हुआ था। उन्होंने आज श्वेतकेतु को फिर प्रेमपूर्वक निकट बुलाया और बड़े मार्मिक शब्दों में उसे कल्याण के मार्ग पर चलने को समझाया उसके बार बार उद्दण्डता करने और अध्ययन में मन न लगाने से ऋषि को जो वेदना हो रही थी वह उनकी आँखों में होकर छलक पड़ी।
डाट डपट से जो कार्य अब तक न हो सका था वह एक आत्मा ने दूसरी आत्मा को आलिंगन करके क्षण मात्र में पूरा कर दिया। उद्दण्ड लड़के को पिघल जाना पड़ा। उसने पुस्तक उठाई और पिता की चरण रज मस्तक पर रख कर गुरुकुल की ओर चला गया।
अध्ययन का चस्का और किसी आनन्द से कम नहीं होता बशर्ते कि किसी योग्य शिक्षक द्वारा शिक्षा दी जाय। श्वेतकेतु एक, दो, पाँच, दश वर्ष नहीं वरन् पूरे चौबीस साल तक लगातार पढ़ता रहा। गुरु ने उसे आज्ञा दी- इतनी विद्या काफी है जीवन के दूसरे क्षेत्रों में तुम्हें अभी बहुत काम करना है, जाओ घर लौट जाओ। श्वेतकेतु गुरु की आज्ञानुसार घर लौट आया।
धनबल, भुजबल, जनबल, की भाँति विद्या भी एक बल है। बल प्राप्त करके आदमी अभिमानी बन जाता है। और अभिमानी दूसरों को तृण समान गिनता हुआ तिरछा-तिरछा चलता है। श्वेतकेतु विद्या के घमंड में मदमत्त हाथी की तरह घर पहुँचा। पिता बैठे हुए थे। उसने उन्हें प्रणाम करना उचित न समझा। और उद्धत आचरण से उनके समीप जा बैठा। घमंड उसकी नस-नस में से फूटा पड़ रहा था।
महर्षि आरुणि बड़े अनुभवी तपस्वी थे। उन्होंने मनुष्य स्वभाव, उसकी त्रुटियाँ एवं उन त्रुटियों के जन्म स्थान के जानने में बहुत काल लगाया था। लड़के के इस आचरण पर उन्हें क्रोध नहीं आया क्योंकि वास्तविक स्थिति को उन्होंने जान लिया था। पुत्र के आगमन पर प्रसन्नता प्रकट करते हुए उससे कुशल समाचार पूछे। तदुपरान्त प्रश्न किया- “पुत्र! मालूम होता है तू बहुत अधिक पढ़ गया है। क्योंकि विद्या का फल विनय है। तू कदाचित विद्या से भी अधिक जान गया है। अच्छा उस वस्तु को बता जिस एक के ही जान जाने से सब वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है।”
इस प्रश्न को सुनकर पण्डित श्वेतकेतु का अभिमान चूर हो गया। इतने दिन पढ़ने पर भी वह ऐसी किसी वस्तु को नहीं जान सका था जिस एक की सीमा के अंतर्गत ही सब कुछ आ जाता हो। वह पिता के चरणों पर गिर पड़ा - ‘भगवन्! उस वस्तु को मैं नहीं जानता - आप ही बताइये!”
आरुणि ने कहा - वत्स! जैसे मिट्टी का गुण धर्म, मालूम हो जाने पर घड़े, सकोरे, आदि के बनने की बात, और धातु का स्वभाव विदित होने पर हथियार, आभूषण आदि बनाने का रहस्य मालूम हो जाता है उसी प्रकार एक ‘सत्’ को जान लेने पर विश्व की संपूर्ण वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है।
श्वेतकेतु अब और उलझन में पड़ गया, उसने पूछा - पिताजी वह ‘सत्’ कहाँ है? कैसा है? है तो दिखाई नहीं पड़ता।
आरुणि ने उसके हाथ में नमक की डेली देते हुए कहा पुत्र! इसे जल से भरे हुए लोटे में डाल दो और कल प्रातःकाल लोटे को लेकर मेरे पास आना। श्वेतकेतु ने वैसा ही किया।
दूसरे दिन सवेरे वह जल का भरा हुआ लोटा लेकर पिताजी के पास पहुँचा। तब उन्होंने कहा कि कल जो नमक की डेली इसमें डाली थी वह तुम्हें दिखाई देती है? उसने बहुत ध्यान से देखा पर नहीं दिखाई दी। तब ऋषि ने कहा अच्छा हाथ डालकर उसे टटोल शायद मिल जाय। उसने हाथ डालकर खूब टटोला पर वह नमक की डेली हाथ न आई। फिर आरुणि ने कहा- अच्छा इसमें से इस तरफ से थोड़ा जल चख और इसका स्वाद बता? श्वेतकेतु ने चख कर बताया कि ‘खारा है।’ उन्होंने कहा अब इधर से, बीच में से, नीचे से, चारों ओर से चख। उसने थोड़ा थोड़ा सब ओर से चखा और कहा पिताजी यह तो सब ओर खारा है। मैंने जो नमक की डेली इसमें डाली थी वह पानी में घुल गई और अब वह इसमें सर्वत्र व्याप्त हो गई। मैं उसे आँख या हाथ से नहीं देख सकता तथापि चखकर अनुभव करता हूँ कि वह है और पानी में सर्वत्र व्याप्त है।
ऋषि ने कहा- हे सौम्य! वह ‘सत्’ इस नमक की भाँति है जो संसार में सर्वत्र घुला हुआ है जो कि आँखों से दिखाई नहीं देता तथापि अनुभव से जाना जा सकता है! वह सत् है और वहीं आत्मा है। श्वेतकेतु! (तत्वमसि) वह आत्मा तू ही है।