क्या समय बीत गया?

October 1940

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एक कल्पना चित्र-
(लेखक - श्री पं. भोजराजजी शुक्ल, एत्मादपुर)

वर्ष की अन्तिम रात्रि को एक वृद्ध अपने अंधेरे घर में अकेला बैठा है, रात्रि भी बड़ी भयावनी और अंधेरी है, घटा छा रही है, बिजली चमक कर कड़क रही है, वायु भी बड़े वेग से चल रही है, हृदय दहलाता और मन घबड़ाता है। चन्द्रदेव भी भयभीत होकर छिप गये हैं। वृद्ध अत्यन्त शोकातुर हो रहा है। परन्तु उसका शोक न अंधेरे घर पर है और न अकेलेपन पर, न अंधेरी रात्रि, बिजली की कड़क और पवन की सनसनाहट पर। वह अपनी गत-आयु के समय को स्मरण करता है, विगत काल जितना ही अधिक स्मरण आता है, उतना ही उसका शोक बढ़ता जाता है। आँखों से अश्रुपात हो रहा है, अपनी आयु का व्यतीत समय उसके नेत्रों के समक्ष घूम रहा है।

उसे अपनी बाल्यावस्था का ध्यान आता है, जबकि उसको किसी वस्तु का शोक तथा चिन्ता मन में न थी, रुपये पैसे के बदले मिठाई तथा चाट अच्छी लगती थी। माता, पिता, भाई और बहिन सब घर उसको प्यार करता था। विद्याध्ययन के लिये छुट्टी का समय शीघ्र आने की प्रसन्नता में, पुस्तकें बगल में दबाकर पाठशाला को चला जाता था पाठशाला का ध्यान आते ही उसको अपने सहपाठियों का ध्यान आता था तब वह और भी अधिक शोकातुर हो जाता था, तथा विवश हो पुकारने लगता था हाय, समय! हाय, समय!! मोह, विगत काल! शोक! मैंने तुझे अति विलम्ब से स्मरण किया।वह अपनी युवा अवस्था का समय स्मरण करता था, अपना भरा हुआ लावण्यमय मुखड़ा, सुडौल शरीर, रसीले नेत्र, उमंगों से पूर्ण मन तथा मानवी इच्छाओं और उत्साहों का ध्यान करता था, मदान्ध नेत्रों के समय में माता पिता जो शिक्षा देते थे, भलाई तथा ईश्वर-भक्ति का उपदेश करते थे तब कह देता था उँह अभी इन सब बातों के लिये बहुत समय पड़ा है बुढ़ापे में देखा जायगा। वृद्धावस्था का कभी ध्यान भी न आता था, और न उसका कभी विचार ही होता था।

“अभी समय बहुत है” यह कहते हुए वह अपने स्थान से उठा और टटोल-टटोल कर खिड़की तक आया, खिड़की खोली देखा कि रात्रि वैसी ही भयानक है। अंधेरी घटा छा रही है, बिजली की कड़क से हृदय काँपता है, प्रचण्ड पवन चल रहा है, वृक्षों के पत्ते उड़ रहे हैं, शाखाएँ टूट-टूट कर गिर रही हैं। तब वह चिल्ला कर बोला कि हाय! हाय!! मेरा जीवन भी ऐसा ही भयानक है, जैसी यह रात्रि! यह कहकर वह वृद्ध फिर उसी स्थान पर आ बैठा।उसको अपने माता-पिता भाई-बहन तथा इष्ट मित्रों का ध्यान आ गया, जो कि सब निर्दयी कराल काल के ग्रास बन चुके थे। माता मानो प्रेम से उसे हृदय से लगाये नेत्रों में आँसू भरे खड़ी है और कह रही है कि बेटा! “समय निकल गया” पिता का प्रकाशित मुख उसके सन्मुख है, उससे यह शब्द निकल रहे हैं “बेटा हम तुम्हारी ही भलाई के लिये कहते थे” भाई-बहिन दाँतों में अंगुली दबाये चुपचाप खड़े हैं उनके नेत्रों से अश्रुपात हो रहा है। इष्ट-मित्र सब खड़े कह रहे हैं “अब हम क्या कर सकते हैं” ऐसी दशा में उसको अपनी उन बातों का स्मरण हुआ जो उसने अवहेलना तथा असावधानी और धृष्टता से अपने माता-पिता भाई-बहिन तथा इष्ट-मित्रों के साथ बरती थी। इन सब की उस पर प्रेम-दृष्टि रखना उसके हृदय को और भी विदीर्ण करता था उसका चित्त घबड़ाता और व्याकुल होता था वह कह उठता था कि “हाय! समय निकल गया इसका प्रतिकार कैसे हो।”

वह व्याकुलता से फिर खिड़की की ओर दौड़ा टकराता, टटोलता खिड़की तक पहुँचा उसे खोलकर देखा कि पवन का वेग कुछ कम हुआ है बिजली की कड़क भी कुछ थमी है, परन्तु रात्रि पूर्ववत् अँधेरी है, वृद्ध की घबड़ाहट कुछ कम हुई, वह फिर अपने स्थान पर आ बैठा, इतने में उसको अपनी प्रौढ़ावस्था का स्मरण हो आया, जिसमें उसका न वह यौवन रहा था न वह सुन्दरता तथा लावण्यता न वह मन, न मन की उमंगें, उसने अपने उस भलाई के समय को याद किया जिसमें वह बुराई की अपेक्षा भलाई की ओर अधिक झुका हुआ था। वह अपना व्रत, उपवास रखना, संध्योपासना तथा तीर्थ-यात्रा करना, दान देना, भूखों को भोजन कराना, मन्दिर और कूपादि बनवाना इत्यादि इन सब बातों से वह अपने मन को ढाढ़स देता था, सन्त महात्माओं की जिनकी उसने सेवा की थी, सद्गुरु जिनसे दीक्षा ली थी अपनी सहायता के लिए पुकारता था परन्तु मन उसका अत्यन्त व्याकुल था वह कहता कि उस के व्यक्तिगत कार्यों की उसी तक समाप्ति है। भूखे फिर भी उसी प्रकार भूखे हैं, मन्दिर टूट कर खण्डहर पड़े हैं कूप भी टूट-फूट कर जल रहित हो गये हैं। गुरु, साधु-महात्मा कोई भी उसकी पुकार नहीं सुनता, और न सहायता ही करता है, उसका चित्त फिर व्याकुल होता है और सोचता है कि उसने व्यर्थ असत्य और नाशवान पदार्थों पर मन लगाया तथा विश्वास किया यह पिछली बुद्धि पहले ही क्यों न सूझी अब कुछ वश नहीं फिर यह कह कर चिल्ला उठा कि “हाय! समय मैंने तुझको क्यों खो दिया।”

अब इन अन्तिम क्षणों में वह क्या करे? इतना गंवा चुकने के बाद उसके पास क्या शेष रहा? गत वैभव की अन्तर्वेदना दाँत निकाल कर चारों ओर से काटने को दौड़ रही थी, वृद्ध फूट-फूट कर रोने लगा।अपनी भूल पर सच्चे हृदय से रो पड़ना और भविष्य के लिए संभल जाना सच्चा प्रायश्चित है। इस प्रायश्चित से उसका भार कम हो गया। अन्धकार हटते ही प्रकाश चमकने लगा। अब बिजली की कड़कड़ाहट और रात्रि की भयंकरता कम हो चली थी।

वृद्ध ने देखा कि खिड़की में होकर एक क्षीण प्रकाश दौड़ा आ रहा है। ध्यानपूर्वक देखा तो एक स्वर्गीय प्रतिमा आगे खड़ी है और सन्देश दे रही है “वत्स! शोक मत करो। जो बीत गया वह नहीं आ सकता। अभी आगे के जो क्षण शेष हैं वह भी कम नहीं हैं। इन्हें संभालो। बदलने के लिए युगों की नहीं क्षणों की आवश्यकता होती है। उठो अपने जीवन की दशा बदल डालो। तुम्हारा कल्याण होगा।”

वृद्ध का रोम रोम प्रफुल्लित हो उठा उसने उस प्रतिमा के सामने शीश झुकाते हुये पूछा - ‘देवि! संसार में सत्य क्या है? कहाँ है? और मैं उसे किस प्रकार प्राप्त कर सकता हूँ।’ उत्तर में उसे सन्देश मिला कि ‘संसार सत्यनारायण की ही प्रति मूर्ति है। इसको ईश्वर भाव से देखो और सच्चे हृदय से इसकी पूजा करो। धर्म का स्थान कुएं और मन्दिरों में नहीं है उसे अपनी आत्मा में खोजो।”

वह कृतय कृत्य हो गया। मरने में अधिक दिन नहीं थे - अन्तिम क्षणों को उसने आत्मदर्शन और लोक सेवा में लगा कर जीवन को सफल बना लिया।

हम में से हर एक के सामने सवाल आता है कि उपयुक्त समय बीत गया। ईश्वर की ओर से सन्देश मिलता है कि नहीं अभी बहुत है। जो बचा है वह भी कम नहीं है। इसे भी संभाल कर रक्खो तो काफी है।


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