साधकों का पृष्ठ

October 1940

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(1)

“मैं क्या हूँ” पुस्तक प्राप्त हुई। इसे पढ़कर मुझे एक नई ज्योति प्राप्त हो रही है। ऐसी अद्भुत किताब अभी तक मेरे देखने में नहीं आई। शीघ्र ही उसके अनुसार अभ्यास आरम्भ करूंगा।

-विशम्भरदयाल अग्रवाल, बरेली।

(2)

आज से दो माह पूर्व “मैं क्या हूँ” पुस्तक प्राप्त हुई थी। उसे मैं कई बार पढ़ चुका हूँ। हर बार उसमें मुझे एक नवीन सामग्री ही मिलती है। पुस्तक के बताये हुए अभ्यास करते हुए मुझे एक मास व्यतीत हो चुका है। इस अवधि में मुझे बहुत कुछ प्राप्त हो गया। पहले किसी कार्य के करने में मन न लगता था परन्तु अब काफी उत्साह प्राप्त होता है मनोबल में भी उन्नति हुई है।

-विद्याधर कन्ट्रैक्टर, बल्हमपुर।

(3)

‘शक्ति आकर्षण’ क्रिया करने से मुझमें एक दिव्य शक्ति का आविर्भाव हुआ है। इस बीच में मेरे जीवन पर ऐसी घटनाएं घटित हुई हैं जो ईश्वरीय नहीं तो अलौकिक अवश्य कही जा सकती हैं। मैं तब और अब के जीवन का परीक्षण कर उसमें हुए परिवर्तन देख कर कभी-कभी आश्चर्य में गिर जाता हूँ। इस साधन के सहारे मैं वास्तव में ‘मैं’ कहाने योग्य होता जा रहा हूँ।

-श्री कान्त शास्त्री, नारायणपुर।

(4)

आपने सूर्य शक्ति द्वारा चिकित्सा करने की विधियाँ बताई थीं उस समय भीतर ही भीतर मैं अविश्वास सा कर रहा था कि जब इतनी कीमती दवाइयां बीमारियों को दूर नहीं कर सकतीं, तब रंगीन काँचों द्वारा किये हुए कुछ उपचार भला क्या फायदा कर सकेंगे? मैंने डरते डरते मरीजों पर उपचार आरम्भ किया था। और अब मैं बहुत आगे बढ़ गया हूँ। मैं पूर्ण विश्वास के साथ अनुभव करता हूँ कि सूर्य चिकित्सा से बढ़कर दूसरा कोई इलाज नहीं हो सकता। गत तीन मास में सैंकड़ों रोगियों पर हाथ डाल चुका हूँ उनमें से कम से कम अस्सी फी सैंकड़ा अच्छे हुए हैं।

-मधुसूदन डागा, सहसवान्।

(5)

प्राण चिकित्सा विधि से इलाज आरम्भ करने पर मेरी ख्याति बहुत बढ़ गई है। बीस-बीस कोस के बीमार बैल गाड़ियों में बैठ कर आते हैं। उन्हें लाभ भी आशातीत होता है। लोग अपने आप कुछ ऐसी धारणा गढ़ लेते हैं कि मुझे कोई देवता सिद्ध हो गया है। आपके आदेशानुसार मैं इस भ्रम का जोरदार शब्दों में खण्डन कर प्राण शक्ति का वैज्ञानिक महत्व बराबर समझता रहता हूँ। इस मास एक सौ बाईस पीड़ितों को अच्छा किया है।

-नन्दलाल शाह, ब्रह्मपुरी।

(6)

आपने पत्रों द्वारा सूर्य चिकित्सा और प्राण चिकित्सा की कुछ विधियाँ बताई हैं। इन थोड़ी सी बातों में मुझे संतोष नहीं होता। अधूरा ज्ञान व्यर्थ है। आप दो महीने से बराबर यही लिखते हैं पुस्तकें अब छपीं, तब छपीं। आप जैसे व्यक्ति भी अपने वायदे को पूरा न करें तो कितने दुख की बात है। यदि आप दिवाली तक भी पुस्तकें न छपवा सकें तो मैं 30 रु. खर्च करके आगरा आऊंगा और आपसे खुद ही सीखूँगा।

-रघुनाथ रेड्डी, नलगोंडा।

(7)

आपने तीन मास प्रयत्न करके मुझे मौत के मुँह में से निकाल लिया। अब सिर्फ कमजोरी बाकी है डाक्टरों ने तपेदिक और संग्रहणी को तीसरे दर्जे की बताकर जब मर जाने का फतवा दे दिया था तब कौन जानता था मुझे अभी और जीना है। अब मैं बच गया हूँ।

-जगदम्बा दत्त, मिदनापुर।


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