(लेखक - जगन्नाथ शर्मा, अध्यापक, दाँता)
“यह दुराचारिणी है। मूसा ने हमें आदेश किया है कि पत्थर मार मार कर इसके प्राण ले लें।” पण्डित और धर्म शास्त्रियों ने यह शब्द कहते हुए उस स्त्री को यीशु के सामने उपस्थित किया। वे लोग इस विषय में उसकी सलाह चाहते थे।
जैतून पर्वत के एक मन्दिर में बैठे हुए ईसा मसीह लोगों को धर्मोपदेश दे रहे थे। उनके सामने यह भी एक धर्म-समस्या लाई गई। वह एक क्षण के लिये चुप हो गये और उँगलियों से जमीन कुरेदने लगे।
लोगों ने फिर उनसे पूछा-प्रभु क्या आज्ञा है? हम इस दुराचारिणी स्त्री का वध करना चाहते हैं।
यीशु ने अपना सिर उठाया और कहा - इसे मारो, पर सबसे पहला पत्थर वह मारे जिसने कभी कोई दुष्कर्म न किया हो।
उस स्त्री का वध करने का मजा लूटने जो भीड़ आई थी। उसमें से सब एक दूसरे का मुँह ताकने लगे। ऐसा कौन था जिसने कभी कोई पाप न किया हो। हाथों में लगे हुए पत्थर छूट-छूट कर जमीन पर गिरने लगे। प्रहार करने के लिये किसी का हाथ न उठ सका। सब एक-एक करके खिसकने लगे।
अब स्त्री अकेली खड़ी थी। उसे मारने वाला कोई दिखाई नहीं देता था क्योंकि कोई निष्पाप नहीं था। यीशु ने कहा, यदि तुम्हें कोई दण्ड नहीं दे सका तो मैं भी नहीं दे सकता जा और फिर पाप न करना।
इञ्जील की यह कथा पुरानी है। परन्तु हमारे दैनिक जीवन में प्रतिदिन इसकी पुनरावृत्ति होती है।
यदि हम निष्पाप होने तक दूसरों पर ढेला फेंकने से हाथ रोके रहें तो हमारे जीवन में क्षमा ही शेष रह जायेगी।