(श्री हरिशंकरलाल शास्त्री “कामारि”)
कौन रे! मुझको बनाया, विकल जग का अधम प्राणी।
मौन, एकाकी हृदय को, फिर सुनाई बिरह-वाणी॥
मैं नहीं सोया, जगा था, सिर्फ तन्द्रा थी दृगों पर।
विश्व हलचल से जुदा था, आह! अपना ‘अहम्’ खोकर॥
शान्त-जीवन का बना क्या? एक उपक्रम था मनोहर।
दिग्वधू के मलय संचित, प्रेम में, आबद्ध होकर॥
स्वर्ण रक्तिम, पड़ चुकी थी, रेख, अवनी, में पता था।
विहँग, कलरव से निनादित, हो चुका बन, जानता था॥
इसलिये रे अधम! हठकर, फिर न अपना राग रोना।
मैं न बे सुध, बे खबर हूँ, देखना, मत आप सोना॥