सत्य की चाह

November 2001

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सत्य की चाह है, तो चित्त को किसी ‘आग्रह’ से मत बाँधो। जहाँ आग्रह है, वहाँ सत्य नहीं आता। आग्रह और सत्य में गहरा विरोध है। मुक्त-जिज्ञासा सत्य की खोज के लिए पहली सीढ़ी है। जो व्यक्ति सत्य की अनुभूति से पहले ही अपने चित्त को किन्हीं सिद्धान्तों, मतवादों एवं आग्रहों से बोझिल कर लेते हैं, उनकी जिज्ञासा कुँठित और अवरुद्ध हो जाती है।

जिज्ञासा- खोज की गति और प्राण है। इसी के माध्यम से विवेक जाग्रत् होता है और चेतना ऊर्ध्व बनती है। लेकिन, जिज्ञासा आस्था से नहीं, आश्चर्य से पैदा होती है। आश्चर्य-स्वच्छ चित्त का लक्षण है। उसके सम्यक् अनुगमन से सत्य के ऊपर पड़े हुए परदे क्रमशः गिरते जाते हैं। और एक क्षण सत्य का दर्शन होता है।

यहाँ यह बता देना जरूरी है कि आस्तिक और नास्तिक दोनों ही आस्थावान् होते हैं। हाँ इतना अवश्य है कि आस्तिक की आस्था विधायक होती है तो नास्तिक आस्था निषेधात्मक या नकारात्मक। जबकि आश्चर्य चित्त की एक अलग ही अवस्था है। अव अविश्वास नहीं है और न ही विश्वास है। वह तो इन दोनों से मुक्त खोज के लिए स्वतंत्रता है। यहाँ किसी भी आग्रह या मत के लिए कोई स्थान नहीं है।

और भला वे सत्य की खोज कर भी कैसे सकते हैं, जो कि पहले से ही किन्हीं मतों से बंधे हैं। मतों अथवा आग्रहों के खूँटों से विश्वास या अविश्वास की जंजीरों को जो खोल देता है, उसी की नाव ही सत्य के महासागर में यात्रा करने में समर्थ हो जाती है।

सत्य के आगमन की अनिवार्य शर्त है चित्त की पूर्ण स्वच्छता, स्वतन्त्रता एवं स्थिरता। जिसका चित्त पूर्ण स्वच्छ नहीं है, जो किन्हीं सिद्धान्तों या आग्रहों से बंधे हैं अथवा जिनका चित्त अस्थिर या चंचल है, वे सत्य के महासूर्य के दर्शन से वंचित रह जाते हैं। इसलिए सत्य की चाह को पूरा करने के लिए चित्त को पूर्ण स्वच्छ, स्वतंत्र एवं स्थिर बनाना ही होगा।


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