इस तरह मिटी मन की अशाँति

November 2001

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महर्षि पिप्पलाद की समाधिस्थ चेतना धीरे-धीरे बहिर्मुखी हुई। शनैःशनैः उन्होंने नेत्र उन्मीलित किए। चहुँ ओर प्रकृति शान्त थी। भगवान् भुवन भास्कर ने भी ऋषियों और देवों के देश भारत से विदा लेकर असुरों के देश पाताल लोक की ओर अपना रथ बढ़ा दिया था। अब तो आकाश पर उनके रथ के अश्वों के पाँवों और चक्रों से उड़ी लालिमा भर शेष रह गयी थी। महर्षि के आश्रम में आए जिज्ञासु अभी तक विदा नहीं हुए थे। और महर्षि का अनुमान था कि शीघ्र ही अन्य ऋषिकुमार भी उनके पास आते ही होंगे।

अभी उनके मन के विचार तन्तु परस्पर एक जुट हुए भी नहीं थे कि शौर्यायणी गार्ग्य ने उपस्थित होकर उनके चरणों में प्रणाम किया।

कहो वत्स कैसे हो? महर्षि ने उसकी कुशल क्षेम पूछने के पश्चात् उससे कहा- वत्स! अब तो तुम्हारा ब्रह्मवर्चस भी पूरा हो गया है। आश्रम के अन्य अन्तेवासियों की ही भाँति तुमने भी अपनी साधना पूरी कर ली है। मैंने पाया है कि तुम वेद-शास्त्रों का परिशीलन भली भाँति कर चुके हो। फिर भी यदि तुम्हें किसी विषय में कोई सन्देह रह गया हो, तो निःसंकोच मुझसे प्रश्न कर सकते हो।

शौर्यायणी मौन था। हालाँकि उसका मन ठीक से शान्त नहीं था। वह पिछली रात ठीक से सो भी नहीं पाया था। उसे इस बात के लिए अचरज था कि ठीक तरह से ब्रह्मचर्य पालन करने के बावजूद वह ढंग से सो नहीं सका। इस समय भी उसके मन में अनेकों तरह के रंग-बिरंगे विचार तन्तु परस्पर उलझ रहे थे। बार-बार उसके मन में यह विचार कौंध उठता कि प्रायः प्रयास करके भी मनुष्य रात्रि में सो क्यों नहीं पाता?

अलौकिक सिद्धियों एवं विभूतियों के स्वामी महर्षि पिप्पलाद अन्तर्यामी थे। गार्ग्य के मन की उधेड़-बुन उनसे छिपी न रह सकी। उन्होंने वात्सल्य पूर्ण स्वरों में पूछा- वत्स शौर्यायणी! ऐसा लगता है कि तुम रात्रि में ठीक ढंग से सो नहीं सके हो। यह तुम्हारी मानसिक अस्थिरता की पहचान है।

गुरुदेव इस तरह से सीधे सपाट ढंग से उसके मन का हाल बयान कर देंगे, गार्ग्य को यह स्वप्न में भी आशा न थी। वह शर्म और संकोच से गड़ गया। पर सच तो सच था। महर्षि की बातों को स्वीकार करके वह बोला- गुरुदेव! आप सचमुच ही अन्तर्यामी हैं। आप से भला क्या छिपा हुआ है भगवन्। आप ठीक कह रहे हैं, मैं विगत दो-तीन दिनों से मैं काफी अशान्त हूँ। मुझे यह भी पीड़ा होती रही है कि कुछ ही दिनों में यहाँ से लौटना होगा। और फिर गृहस्थाश्रम की उलझनों से सामना होगा। यही सब सोचकर संसार के बहुविधि जाल-जंजालों में मन फंसता उलझता-चला गया। और मैं अपने अनगिन प्रयासों के बावजूद ठीक से सो न सका।

न जाने कितने प्रकार की कल्पनाएँ मेरे मन में अपना रूप प्रकट करती रही हैं। समूची रात्रि में इन्हीं कल्पना चित्रों से घिरा रहा। मुझे शीघ्र ही यहाँ आना था। पर मैं समझ ही नहीं सका कि मुझे क्या करना चाहिए?

महर्षि ने उसे अबोध शिशु की भाँति धैर्य बंधाया और बोले वत्स! साधना, संयम, स्वाध्याय ओर सेवा यही जीवन के मूल मंत्र हैं। इन्द्रिय समेत मन को बुद्धि और आत्मा के नियंत्रण में रखकर ही गृहस्थ जीवन में सुख पाया जा सकता है। महर्षि के इस प्रबोध के बावजूद शौर्यायणी गार्ग्य अभी तक अशान्त थे। उसने ऋषिप्रवर के सम्मुख अपनी जिज्ञासा प्रकट की-

गुरुवर! मैं यह जानना चाहता हूँ कि कौन सी शक्तियाँ हैं, जो सो जाती हैं और कौन सोने के बाद जागती हैं। इस पुरुष में कौन सा वह देव है, जो इस पुरुष के भीतर बैठा हुआ स्वप्न देखता रहता है। किसको सुख होता है और किसमें जाकर ये सब एक हो जाते हैं।

पिप्पलाद गार्ग्य के ये प्रश्न सुनकर पलभर के लिए मौन हो गए। उन्हें इस बात के लिए सन्तोष हुआ कि उनका शिष्य सच्चे अर्थों में जिज्ञासु है। जिज्ञासा जागृति का लक्षण है। और जो जाग्रत् है उसका आत्म विकास सुनिश्चित है। अपने इन विचारों को उन्होंने अप्रकट रखते हुए गार्ग्य से कहा- हे वत्स! तुमने अस्त होते हुए सूर्य को देखा है, तो जैसे अस्ताचल को जाते हुए सूर्य की किरणें एकाकार होकर उसके तेजोमण्डल में समा जाती है और प्रातःकाल उदय होने के समय वे फिर पूर्ववत फैल जाती हैं।

गार्ग्य महर्षि की बात समाप्त होने के पहले ही बोल पड़ा- गुरुदेव ऐसा ही होता है, मैंने दोनों दृश्य देखे हैं। पिप्पलाद ने अपनी बात आगे बढ़ायी और बताया, इसी प्रकार सोने के समय प्राणी की इन्द्रिय रूपी किरणें मन रूपी सूर्य में समा जाती हैं। अर्थात् सारी इन्द्रियाँ मन में सिमट जाती हैं। इन्द्रियाँ जब मन में एकाकार हो जाती है, तब पुरुष न तो सुनता है, न देखता है, न स्पर्श करता है, न सूँघता है, न बोलता है, न कुछ पकड़ता है, न आनन्द लेता है। तब लोग समझते हैं कि पुरुष सो रहा है, किन्तु दरअसल पुरुष नहीं सोता बल्कि इन्द्रियाँ विश्राम करती हैं।

महर्षि इन वचनों को सुनकर जिज्ञासु गार्ग्य की जिज्ञासा और भी तीव्र हो उठी, उसने पूछा, ‘इन्द्रियाँ सो जाती हैं, तो सोते हुए इसमें जागता कौन है?’

महान् तत्त्वज्ञानी पिप्पलाद ने उसे समझाया, वत्स शौर्यायण! इन्द्रियों के सो जाने पर प्राण लगातार जगते रहते हैं। प्राणों की अग्नि कुछ इस तरह लगातार जागती रहती है, मानो वह मनुष्य की शरीर रूपी नगरी में पहरा दे रही हो।

देव! अग्नि क्या है?

गार्ग्य के इस प्रश्न पर महर्षि कहने लगे- वत्स! मैं तुम्हें इन अग्नियों के बारे में विस्तार से समझाता हूँ। तुमने देखा होगा कि प्रत्येक गृह में पंचाग्नि प्रज्वलित रहती है। गृह की अग्नि- ‘गार्हपत्य अग्नि है। तात्विक दृष्टि से अपान वायु गार्हपत्य अग्नि है। यज्ञ में से जिस अग्नि को लेकर भोजन आदि पकाया जाता है वह दक्षिणाग्नि है। तत्त्ववेत्ता योगी व्यान वायु को ही दक्षिणाग्नि मानते हैं। गार्हपत्य अग्नि से जो अग्नि हवन कुण्ड में डाली जाती है वह आह्वनीय अग्नि है।’

दरअसल यज्ञ में दी जाने वाली आहुतियों से धूम्र उठता है वह आहुतियों के सभी तत्त्वों को एक-एक करके सभी जगह समान कर देता है। यज्ञ की आहुतियों का कार्य समान का प्रतिनिधि है। दान कर्त्ता मनुष्य का मन पंचाग्नि यज्ञ में यजमान का कार्य करता है। यज्ञ में जिस फल की आशा की जाती है वह उदान है। उदान का कार्य है ऊपर ले जाना। पंचाग्नि यज्ञ द्वारा मनुष्य ऊँचे स्तर पर उठ जाता है। प्राणाग्नि जो उदान स्वरूप है वह मनुष्य को उन्नत बनाती है, ब्रह्मज्ञान के मार्ग पर ले जाती है।

ब्रह्मवेत्ता महर्षि पिप्पलाद की तपःपूत वाणी को सुनकर शौर्यायणी गार्ग्य के मन के आवरण समाप्त होते जा रहे थे- महर्षि ने उसे स्पष्ट कर दिया था कि ये पाँचों प्राण प्राणाग्नि की ही भाँति है। जैसे अग्नि नहीं बुझती वैसे ही प्राण भी जागते रहते हैं, दिन-रात पुरुष को ब्रह्मज्ञान की प्रेरणा देते रहते हैं।

गार्ग्य ने महर्षि के समक्ष पुनः विनम्र शब्दों में अपनी जिज्ञासा प्रकट की- ‘भगवन्। स्वप्न की क्या स्थिति होती है?’ महर्षि पिप्पलाद ने कुछ पल ठहरकर फिर से प्रबोध करना प्रारम्भ किया- ‘वत्स गार्ग्य! तुम जो स्वप्न देखने वाले पुरुष की बात कर रहे थे, उसके बारे में सुनो, वह पुरुष आत्मा ही है, वह स्वप्न में बाहर का कुछ भी नहीं देखता रहता है। जागरण काल में हमारी जो अनेकों कामनाएँ अतृप्त रह जाती हैं, मन उन्हें स्वप्न में पूर्ण करता है। यहाँ तक कि जो अनुभव में नहीं आया है, उसका भी मन पुरुष को स्वप्न में अनुभव करा देता है।’

गार्ग्य की जिज्ञासा अब शान्त हो चली थी। उसने आत्मा का आनन्द अनुभव करने वाले महर्षि से एक अन्तिम प्रश्न पूछा- भगवान्! मैं केवल यह और जानना चाहता हूँ कि यह मन ज्ञान के किस महातेज में विलीन होकर आत्मानन्द का अनुभव करता है।

गार्ग्य ने यह प्रश्न जिस समय महर्षि से पूछा उस समय सन्ध्या बीत चली थी, पक्षीगण अपने नीड़ों का आश्रय ले चुके थे। महर्षि ने उस अनोखे वातावरण की ओर संकेत करते हुए बताया- पुत्र गार्ग्य! तुम देख रहे हो कि ये पक्षी दिन भर भ्रमण करने के बाद अब अपने नीड़ों का आश्रय ले चुके हैं। ठीक इसी प्रकार ब्रह्मज्ञान की अवस्था में मन के सभी विकार, सभी कामनाएँ और मन के साथ लगातार चलने वाला यह दृश्य संसार सब आत्मा में विलीन हो जाता है। यह अवस्था सुषुप्ति से भी परे है। सुषुप्ति अवस्था में पांचों महाभूत भी आत्मा में विलीन हो जाते हैं। इस अवस्था में कोई स्वप्न नहीं आता। एक गहन निद्रा में अन्तर्चेतना विलीन रहती है। परन्तु ब्रह्मज्ञान की अवस्था तुरीय अवस्था कहलाती है। इसमें सुषुप्ति की विश्रान्ति है तो जागरण की परम चैतन्यता भी। वत्स! यह अवस्था अनुभवगम्य है।

उन्होंने आत्मलीनता का विस्तार से वर्णन करते हुए स्पष्ट किया कि यह आत्मा विज्ञानमय है। यह सभी इन्द्रियों को साथ लेकर प्राण और पंचमहाभूतों के साथ प्रतिष्ठित हो जाता है। यह आत्मा द्रष्ट है, यह स्पर्श करने वाला है, यही रसग्राही है, यही मननशील है, यही जानने वाला है। और यही कर्त्ता और विधाता है। छाया रहित और शरीर से परे इस आत्मतत्त्व को जो जान लेता है, वह महाज्ञानी और सर्वज्ञ हो जाता है।

शौर्यायणी गार्ग्य के मुख मण्डल पर अब एक अनोखी प्रदीप्ति छा गयी। उनके आत्म सन्तोष की आभा उनके मुख पर झलकने लगी थी। इन्हीं क्षणों में ब्रह्मवेत्ता महर्षि पिप्पलाद ने उनसे कहा- वत्स शौर्यायणी! इस आत्मदर्शन के बाद तुम निश्चित ही स्थिर मन होकर गृहस्थाश्रम में आनन्द का अनुभव कर सकोगे।

शौर्यायणी गार्ग्य की अन्तर्चेतना इन पलों में आनन्द सागर में हिलोरे ले रही थी। ब्राह्मी स्थिति को पा लेने से उनकी अवचेतना की तन्द्रा भंग हो गयी थी। अब वह अपनी आत्मचेतना में ब्रह्मज्ञान के स्वर्णिम आलोक के अवतरण को स्पष्टतया अनुभव कर रहे थे। आनन्द और उल्लास से परिपूरित गार्ग्य ने बड़ी ही भक्ति से महर्षि को प्रणाम किया।

महर्षि ने उसे उठाकर अपने हृदय से लगाते हुए कहा- वत्स! तुम्हारा यह आनन्द चिरकाल तक बना रहे। महर्षि के यहाँ से जब वह अपने अन्य मित्र अन्तेवासियों के पास गया तो सभी ने उसका स्वागत किया। गार्ग्य ने उन सभी को भी महर्षि द्वारा दिए गए गहन आत्मचिन्तन से परिचित कराया। अब तो सब भी गार्ग्य की ही भाँति आत्म साधना के लिए संकल्पित हो उठे। सभी के मनों में एक साथ- ‘तन्मे मनः शिव संकल्पमस्तु’ के संकल्प स्वर गूँज उठे।


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