महामानवों के जीवन में एक विशेषता जो देखने में आती है, वह यह कि वे अत्यधिक सरल होते हैं। सरलता के नाते वह सामने वाले को उसका स्तर छोटा होते हुए भी सम्मान देते हैं। यही विभूति उन्हें अन्य अनेक सामान्य जनों से ऊपर पहुँचा देती है। सरलता के साथ उनके जीवन की गहराई, उससे जुड़े अनुभव, व्यावहारिक ज्ञान कुछ ऐसा होता है, जो जन-जन का मार्गदर्शन करता है। हमारे आराध्य देव परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी के जीवन में हम यही तथ्य देखते हैं। उनके द्वारा आज से पचास-पचपन वर्ष पूर्व लिखे पत्र हो, चाहे उनकी लेखनी से लिखी ‘अपनों से अपनी बात’ सभी में यही तथ्य दृष्टिगोचर होता है। लोक-शिक्षण, पग-पग पर मार्गदर्शन व शब्दों में कूट-कूटकर भरी गई विनम्रता सरलता हृदय को छू लेती है।
यहाँ हम एक पत्र का उल्लेख करेंगे जो पूज्यवर ने 24/2/1957 को सिवनी के श्री ध्रुवनारायण जौहरी जी को लिखा था। वे लिखते हैं, ‘हमारे अंगरक्षक के रूप में आप जो साधना बढ़ा रहे हैं, उसके लिए कृतज्ञ हैं। आशा है आपका ऐसा ही प्रेमभाव-आत्मभाव आगे भी बना रहेगा।’
पंक्तियों दो ही हैं पर भाव तो देखिए, कितनी विनम्रता एवं सरलता से भरा है। 1958 के सहस्रकुँडी यज्ञ के निमित्त श्री जौहरी जी द्वारा किए जा रहे अतिरिक्त जप को पूज्यवर ने अपने लिए अंगरक्षक की भूमिका में की जा रही साधना माना और उसके लिए अपना आभार आत्मीयता की अभिव्यक्ति के रूप में प्रकट किया। यही तो महापुरुषों की, गुरुजनों की लीला है। इनकी दो पंक्तियों में उनकी महानता कूट-कूटकर भरी दिखाई पड़ती है।
इसी तरह इसी प्रसंग में गुरुसत्ता के 22/1/60 को लिखे टीकमगढ़ के श्री बैजनाथ शौनकिया जी को संबोधित पत्र का उल्लेख करने का मन है। लिखते हैं, ‘माताजी के नाम आपके पत्र प्राप्त हुए। वे आपकी उच्च भावनाओं से बहुत प्रभावित हुई हैं। हमारे चले जाने से जो अभाव प्रतीत होगा, आप लोग उसे अपने मातृभाव से पूरा करते रहें। कभी-कभी उनकी पूछताछ कर लिया करेंगे, तो इससे भी उन्हें बहुत संतोष मिलेगा।’
पाठकगणों को वैसे तो जानकारी है, पर बता दें कि परमवंदनीया माताजी 1959 की मध्य से 1961 के मध्य तक ‘अखण्ड ज्योति’ का संपादन भार संभाले हुए थीं। उस अवधि में परमपूज्य गुरुदेव अपने आराध्य के निर्देशानुसार तप हेतु हिमालय जा रहे थे। वर्ष में 9 माह पर गंगोत्री दुर्गम-हिमालय में तथा 3 माह उत्तरकाशी व ऋषिकेश निवास था। उद्देश्य एक और था, सभी आर्ष ग्रंथों का भाष्य, प्रकाशन की व्यवस्था तक की तैयारी एवं मिशन की भावी रीति-नीति का स्वरूप बनाना। इस अवधि में भी उनके लिखे कई पत्र जो गंगोत्री-उत्तरकाशी या ऋषिकेश से पोस्ट किए गए, हमें मिलते हैं। उन्हें सप्ताह भर की इकट्ठी महत्त्वपूर्ण डाक भेज दी जाती थी एवं वे वहीं से उसका उत्तर देते थे। वे अपने तप-साधना के, एकाँतसेवन से शौनकिया जी द्वारा गुरुसत्ता को दिए गए आश्वासन का हवाला देते हुए लिख रहे हैं कि गुरुदेव चिंता न करें, उनके शिष्य माताजी का ध्यान रखेंगे। कितनी सरलता के साथ उच्चस्तरीय सत्ता ने अपने शिष्य के मातृसत्ता संबंधी आश्वासन का जवाब दिया है। स्वयं जगज्जननी को किसी प्रकार के किसी संरक्षण की क्या आवश्यकता? वे लिखते हैं कि कभी-कभी माताजी से पूछताछ कर लिया करें। यही परिजनों की आत्मीयता पारिवारिकता का भाव तो हमारी गुरुसत्ता को औरों से अलग एवं संगठन के निराले स्वरूप को स्थापित करता है। यहीं पर तो हम उनकी भावाभिव्यक्ति के कायल हो जाते हैं कि किस तरह कुछ शब्दों से उन्होंने अपने शिष्य का मान व मनोबल बढ़ाया व अपनी माताजी की महानता उसके समक्ष स्थापित की। वस्तुतः ये पत्र जीवंत-जाग्रत मार्गदर्शक हैं। हमें हमारे आसपास के परिकर के प्रति कैसा संवेदनशील होना चाहिए, कैसे आत्मीयता को मूल धुरी में रखकर कार्य करना चाहिए, इसका प्रत्यक्ष संकेत इन पंक्तियों में मिलता है।
पूज्यवर के ढेरों शिष्य थे, पर प्रत्येक की इन्हें खबर रहती थी। वे चाहे मथुरा रहें दौरे पर या दूर हिमालय की गोद में, अपने प्रिय शिष्यों को स्मरण कर लिया करते थे। श्रीरामजी खंडेलवाल (तब कोटा, आज जयपुर) को 4 जुलाई 1960 को लिखा एक पत्र हमारे पास है, जो उनके अनंत प्रेम का द्योतक है। यह पत्र गंगोत्री से लिखा गया था। वे लिखते हैं।
‘हमारे आत्मस्वरूप,
हम आज यहाँ सकुशल आ पहुँचे। लक्ष्य स्थान तक गुरुपूर्णिमा तक पहुँच जाएंगे। एक वर्ष तक अब मिलना तथा पत्र-व्यवहार तो संभव नहीं, फिर भी हम सब प्रकार समीप ही हैं।’
तीन पंक्तियों में सब कुछ कह दिया गया है। सकुशल पहुँचने की खबर किसी अपने अनन्य आत्मीय को ही दी जाती है। लक्ष्य स्थान या नंदनवन प्रायः चालीस मील ऊपर गोमुख (12,000 फीट) से भी ऊपर का दुर्गम हिमालय का वह क्षेत्र, जहाँ उन्हें अपने इष्ट, अपने गुरु से मिलना था। वे यह भी स्पष्ट कर देते हैं कि अब एक वर्ष तक पत्राचार तो संभव नहीं, किन्तु श्री खंडेलवाल जी को कभी उनकी दूरी अनुभव होगी नहीं, सूक्ष्म रूप में वे साथ बने रहेंगे ही। ऐसा ही हुआ। समय-समय पर अपनी श्वास की तकलीफ में उन्होंने गुरुसत्ता को स्मरण किया, उन्हें राहत मिली, सत्परामर्श भी। ऐसे एक नहीं अनेक पत्र गंगोत्री से लिखे हमारे पास हैं, जो बताते हैं कि आध्यात्मिक अभिभावक कभी किसी को भूलते नहीं। जब उन्होंने सारा बीड़ा हाथ में लिया है, तो उसे वे पूरा करते भी हैं।
1971 में मथुरा छोड़कर हरिद्वार आ बसने की तैयारी चल रही थी। परमवंदनीया माताजी को हरिद्वार रहकर तप करना था तथा पूज्यवर एक वर्ष के लिए हिमालय जा रहे थे। पूरे देश में सतत अनवरत सघन दौरे चल रहे थे। ऐसे में कवयित्री मायावर्मा जी को, जिन्हें पूज्यवर ने स्वयं गढ़ा था, वे थोड़ा-सा अवकाश मिलते ही पत्र द्वारा मार्गदर्शन देने में नहीं चूकते थे। यह पत्र जो 29/4/1961 को भारी व्यस्तता में लिखा गया था, पूरा हम इसलिए दे रहे हैं कि पाठकों का शांतिकुंज के जन्म की कथा भी विदित हो जाए।
‘चि. माया आशीर्वाद,
तुम्हारा ता. 19 का लिखा पत्र यथासमय यहाँ आ गया था। हम 19 को प्रवास से लौटते ही हरिद्वार चले थे। वहाँ माताजी के आश्रम (आज के शाँतिकुँज) में कुआँ तथा क्वार्टर बन रहा है, सो इस संबंध में वहाँ व्यवस्था के लिए जाना पड़ा। कल 28 की रात को ही लौटे हैं। पत्र तुम्हारा पत्र पढ़ा। उत्तर लिख रहे हैं।
तुम शिविर में आ रही हो, इसकी बड़ी प्रसन्नता है। तुम बच्चों को देखने के लिए निरंतर उत्कंठा बनी रहती है।
लेखनक्रम जारी रखना चाहिए। अभ्यास से योग्यता में दिन-दिन निखार आता चला जाएगा। अभ्यास और अनुभव से ही प्रतिभा में निखार आता है। तुम अपना लेखन-कार्य एक साधना के रूप में करती रहना। जितना छप जाए, वह तो एक अतिरिक्त लाभ की बात है।’
इस पत्र में अभिव्यक्ति ध्यान देने योग्य है। उनकी व्यस्तता उनके बताए दौरे के क्रम से जाहिर होती है। साथ ही इस पत्र से प्रकाराँतर से शाँतिकुँज के निर्माण की प्रक्रिया, जो उस समय चालू थी, हमें ज्ञात होती है। इसके साथ ही एक आत्मीयता भरे स्पर्श (तुम बच्चों को देखने के लिए निरंतर उत्कंठा बनी रहती हैं) के साथ वे काव्यलेखन संबंधी परामर्श भी देते हैं। यह भी लिखते हैं कि छपना उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, जितना कि उसका निरंतर लिखते चले जाना। लेखनी की साधना उन्हें करनी है। इससे उनकी प्रतिभा परिष्कृत होगी। आज के साहित्यकार लिखते बाद में हैं, पहले छपने की चिंता करते हैं। पूज्यवर ने निरंतर अपने सक्षम हाथों से कई अनगढ़ों को गढ़ा। जो लिखना नहीं जानते थे, उन्हें लिखना सिखाया। स्व. मायाजी के, जो दो वर्ष पूर्व एक दुर्घटना के माध्यम से अपनी गुरुसत्ता के पास चली गई, काव्यलेखन में यही निखार, सुगढ़ता एवं गुरुसत्ता के प्रति भावभरा आत्मसमर्पण दिखाई देता है।
छत्तीसगढ़ के स्तंभ, एक बड़े ही वरिष्ठ एवं पूज्यवर के प्रिय कार्यकर्त्ता श्री ज्वाला प्रसाद को लिखा एक पत्र परिजन-पाठकों को पढ़ाने का मन है। यह पत्र नौ जनवरी 1958 को लिखा गया था। पूज्यवर लिखते हैं-
‘समाचार बराबर भेजते रहना चाहिए, ताकि वहाँ की परिस्थिति का पता चलता रहे। हर जगह कलियुग काम कर रहा है। परिस्थितियों को देखकर बुद्धिमत्तापूर्वक काम चलाना चाहिए। काम इन्हीं लोगों से लेना है, सो अच्छे लोग न मिलने पर भी किसी प्रकार काम चलाना ही है। यज्ञों का हिसाब ठीक रहे, इसके लिए एक कड़ा लेख अखण्ड ज्योति में छाप रहे हैं।’
यह पत्र सहस्रकुँडी महायज्ञ नवंबर 1958 की पूर्व वेला में लिखा गया था। स्वाभाविक था कि यज्ञ के चंदे के नाम पर ढेरों तथाकथित धर्म के ठेकेदार उपज रहे थे। हिसाब-किताब की पारदर्शिता के संबंध में पूज्यवर बहुत कड़े थे। निरंतर अपने आत्मीय परिजनों की सतर्क करते रहते थे। यहाँ भी वे कलियुग का हवाला देकर बता रहे हैं कि ऐसे लोगों से श्री ज्वालाप्रसाद जी को कैसे निबटना चाहिए। अच्छे लोगों की प्रतीक्षा में कार्य रुके, उसके स्थान पर जो भी हैं, उन्हें किसी तरह आर्थिक प्रबंधन में कड़ाई करके उनका उपयोग किया जाना है। व्यावहारिक परामर्श है एवं बताता है कि संगठन ऐसे ही सत्परामर्शों से खड़ा होता है। साधनों की शुचिता अनिवार्य है, परन्तु लक्ष्य साध्य यदि युगनिर्माण है, तो व्यक्ति-व्यक्ति का निर्माण करना होगा एवं इन्हीं को निमित्त बनाना होगा। शिकायतों से कुछ होने वाला नहीं है। गायत्री परिवार रूपी वटवृक्ष की सिंचाई, उसका पालन-पोषण हमारी गुरुसत्ता के पत्रों में दिए गए ऐसे ही कुछ सत्परामर्शों, आत्मीयता भरे स्पर्शों ने किया है। तभी तो यह संगठन इतना शक्तिशाली, समर्थ एवं जनदेहात एक, दूर-दूर तक फैला नजर आता है। इन जड़ों को पोषण देते रहना कम सबका कर्त्तव्य है।