इच्छा शक्ति के विकास का राजमार्ग

November 2001

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जीवन की सफलता एवं विफलता के निर्णायक तत्त्वों में इच्छा शक्ति का स्थान सर्वोपरि है। इच्छा शक्ति के होने पर व्यक्ति जैसे शून्य में से ही सब कुछ प्रकट कर देता है। और इसके अभाव में व्यक्ति सब कुछ होते हुए भी दुर्भाग्य एवं असफलता का रोना रोता रहता है। वस्तुतः इच्छा शक्ति की न्यूनता जीवन की विफलताओं एवं संकटों का मूल कारण है। इसके रहते व्यक्ति छोटी-छोटी आदतों एवं वृत्तियों का दास बनकर रह जाता है और व्यक्तित्व तमाम तरह के छल-छिद्रों से भरता जाता है। छोटी-छोटी नैतिक व चारित्रिक दुर्बलताएँ जीवन की बड़ी-बड़ी त्रासदियों और दुर्भाग्यों को जन्म देती हैं। इच्छा शक्ति की दुर्बलता के कारण ही व्यक्ति छोटे-छोटे प्रलोभनों एवं दबावों के आगे घुटने टेक देता है और उतावलेपन में ऐसे-ऐसे दुष्कृत्य कर बैठता है कि बाद में पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ हाथ नहीं लगता। जीवन की इस मूलभूत त्रासदी का स्वीकारोक्ति महाभारत में दुर्योधन के मुख से भगवान् श्रीकृष्ण के सामने कुछ इस तरह से होती है-

जानामि धर्मं न च में प्रवृत्तिः। जानाम्यधर्मं न च में निवृत्तिः॥

अर्थात् धर्म को, क्या सही है, इसको मैं जानता हूँ, किन्तु इसको करने की ओर मेरी प्रवृत्ति नहीं होती। इसी तरह अधर्म को, जो अनुचित व पापमय है, इसको भी मैं जानता हूँ, किन्तु इसको करने से मैं नहीं रोक सकता। दुर्योधन की इस स्वीकारोक्ति में मानवीय इच्छा-शक्ति की आत्याँतिक दुर्बलता एवं विफलता का मर्म निहित है।

जीवन की आत्याँतिक सफलता के लिए, एक मात्र रास्ता इच्छा शक्ति का विकास, रह जाता है। इसके विकास से पूर्व प्रथम यह जानना उचित होगा, कि इच्छा शक्ति है क्या? दर्शनकार की भाषा में यह माया अर्थात् प्रकृति से संयुक्त होने वाली आत्मा की प्रथम अभिव्यक्ति है। स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में इच्छा, आत्मा और मन का संयोग है। व्यवहारिक जीवन में यह मन की वह रचनात्मक शक्ति है, जो निर्णित क्रिया को एक निश्चित ढंग से करने की क्षमता देती है और उतने ही निश्चित ढंग से अनिर्णित क्रिया को न करने में सक्षम होती है।

इच्छा शक्ति के विकास के संदर्भ में दूसरा तथ्य यह है कि इसको प्रत्येक व्यक्ति द्वारा बढ़ाया जा सकता है। इसी का आवाहन करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- ‘उठो, वीर बनो, शक्तिवान बनो! जानो कि तुम अपने भाग्य के निर्माता आप हो। सारी शक्ति एवं सफलता तुम्हारे अन्दर सन्निहित है, इस तथ्य को गहनता से हृदयंगम कर हम इच्छा शक्ति के विकास पथ पर आगे बढ़ सकते हैं।’

‘हाउ टू जेनेरेट विल-पावर इन द ह्यूमन सिस्टम’ के अंतर्गत स्वामी बुद्धानन्द लिखते हैं कि इसके लिए सर्वप्रथम हमें मस्तिष्क एवं हृदय, विचार एवं भाव के बीच के विभाजन को हटाना होगा। इसके लिए हमें अपने अस्तित्व के उच्चतम सत्य से प्रेम करना होगा, कि हम दिव्यता के अंशधर हैं, हम शाश्वत की सन्तान हैं। हमारे भीतर अनन्त संभावनाएँ विद्यमान हैं, जिन्हें हमें अभिव्यक्त करना है। यह वस्तुतः मन, वाणी एवं कर्म तथा विचार, भाव एवं क्रिया की एकता का प्रतिपादन है।

हो सकता है कि इस कार्य को सिद्ध करने में हमें लम्बा संघर्ष करना पड़े। इस संदर्भ में दो प्रधान व्यवधान कायरता एवं पाखण्ड के रूप में हमारे अंदर से ही आएँगे, जो इस कार्य को यथा सम्भव टालने का प्रयास करेंगे। श्री अरविन्द के शब्दों में अपनी अंतः प्रकृति में विद्यमान इस शाश्वत कुटिलता एवं धूर्तता से लोहा लिए बिना और कोई चारा नहीं। हमें वीर बनना होगा, और दोनों हाथों में साहस बटोर कर अपने सत्य का अनुसरण करना होगा। वास्तव में सत्य के प्रति हमारा प्रेम ही यहाँ निर्णायक तत्त्व है। जितना हम अपने अस्तित्व के दिव्य सत्य से प्रेम करेंगे, उतना ही हमारा इच्छा शक्ति के विकास का पथ प्रशस्त होता जाएगा।

इस रचनात्मक प्रक्रिया में दो प्रमुख व्यवधान हैं- 1. भूतकाल के पश्चाताप एवं 2. भविष्य की चिंताएँ। दोनों इच्छा शक्ति के विकास में बाधक है। भूत के प्रति अत्यधिक पछतावा और भविष्य की अतिचिंता, दोनों न केवल वर्तमान को नष्ट करते हैं व मन को दुर्बल बनाते हैं, बल्कि भविष्य को भी धूमिल कर देते हैं।

इनसे मुक्त होना अनिवार्य है। भूतकाल के पाप एवं दुष्कृत्यों के अपराध बोध से मुक्ति के लिए सच्चे हृदय से पश्चाताप करना होगा। यदि इन गतिविधियों में अभी भी संलग्न हैं तो उन्हें विराम देना होगा। और सच्चे हृदय से प्रभु के समक्ष पश्चाताप करना होगा व दुबारा न करने का दृढ़ संकल्प लेना होगा। इस कृत्य की सफलता के अनुरूप, हमारा इच्छा शक्ति के विकास का नया अध्याय शुरू होगा।

भविष्य की चिंता एक गम्भीर बीमारी है, और इसका उपचार वर्तमान को पूर्ण जागरुकता और होशोहवाश के साथ जीने में है। फ्रेंच दार्शनिक मेस्टर एहार्ट के शब्दों में- ‘इस क्षण के गर्भ में अनंत समाया हुआ है। यदि हम हर क्षण को सही ढंग से जीना सीख जाएँ, तो भविष्य के प्रति निश्चिंत हो सकते हैं, क्योंकि एक-एक क्षण को सही ढंग से जी कर हम अनंत भविष्य को अपने पक्ष में करते हैं।’

इस संदर्भ में जीवन मूल्यों का उचित ज्ञान व निर्धारण अनिवार्य है, जो दिशासूचक के रूप में जीवन को सही दिशा दे सकें। अन्यथा अनुचित दिशा में जाने वाला हर कदम जीवन के संकट को और बढ़ाता ही जाएगा। इस विषय में सद्गुरु की अमृतवाणी, महापुरुषों का सत्साहित्य व धर्मग्रन्थों का नित्य स्वाध्याय एवं चिंतन, मनन अतीव उपयोगी एवं सहयोगी हैं। इसी के प्रकाश में इच्छा शक्ति के जागरण एवं विकास की प्रक्रिया गति पकड़ती है, जिसमें तीन चीजें अभिन्न रूप से जुड़ी होती हैं- 1. सत् और असत्, उचित और अनुचित के बीच सतत विवेक, 2. जो सही है, उसको करने में संलग्नता और 3. जो अवाँछनीय व अनुचित है, उसके प्रतिकार में जागरुकता।

इस तरह जीवन मूल्यों का सम्यक् बोध एवं उनके अनुरूप जीवन की रीति-नीति के निर्धारण को इच्छा शक्ति के जागरण एवं विकास का प्राथमिक शुभारम्भ मान सकते हैं। किन्तु इसके विकास का मार्ग सीधा व सरल नहीं है। इसमें तमाम तरह के अवरोध आएँगे। वातावरण का दूषित प्रवाह, कुटुम्बी जनों व मित्रों के दुराग्रह एवं निरर्थक सुझाव, आदि जाने अनजाने में इसके उद्भव एवं विकास पर तुषारापात करने का प्रयत्न करेंगे। किन्तु अपनी सजगता व अध्यवसाय के बल पर इन्हें निरस्त किया जा सकता है। वस्तुतः इच्छा शक्ति का विकास सरल कार्य नहीं है। किसी ने ठीक ही कहा है कि सबसे कठिन कार्य बच्चे या बूढ़े की देखभाल नहीं, बल्कि अपनी देखभाल है, अपना निर्माण व विकास है।

इच्छा शक्ति के विकास में एकाग्रता की शक्ति बहुत सहायक है। वास्तव में दोनों अन्योन्याश्रित हैं। इसके लिए हम जो भी कार्य करें, उसे पूरे मन से करें। इससे इच्छा शक्ति के विकास में बहुत सफलता मिलेगी। साथ ही ऐसे कार्यों से बचें, जिनमें ऊर्जा का अनावश्यक क्षय होता है। वृथा बातें, उद्देश्यहीन कार्य, निरर्थक वाद-विवाद, परदोष दर्शन, पर निंदा, दिवास्वप्न आदि से दूर ही रहें। अपने व्यवहार व क्रिया-कलापों को दिशाबद्ध व संयत बनाएँ। मानसिक ऊर्जा का शारीरिक ऊर्जा विशेषकर काम ऊर्जा से सीधा सम्बन्ध है। काम ऊर्जा की अतिशय बर्बादी जहाँ शरीर ऊर्जा को बेतहाशा नष्ट करती है वहीं मन को भी उथला व इच्छा शक्ति को दुर्बल बनाती है। वास्तव में इच्छा शक्ति के विकास का मुख्य रहस्य ब्रह्मचर्य के उचित अभ्यास में निहित है।

सुव्यवस्थित दिनचर्या एवं इन्द्रिय संयम के साथ अपनी विचार प्रणाली पर समुचित ध्यान देना अनिवार्य है। इसके लिए सतत मन पर निगरानी रखनी होगी। इस प्रक्रिया पर अपना सारगर्भित संदेश सुनाते हुए भगवान् बुद्ध भिक्षुओं से कहते हैं- ‘भिक्षुकों! याद रखना गलत विचारों पर विजय का एक मात्र मार्ग समय-समय पर मन की गतिविधियों का पर्यवेक्षण करना, उन पर चिंतन-मनन करना और जो कुछ निम्न एवं हेय है उसको त्यागते हुए, श्रेष्ठ एवं उदात्त का वरण एवं विकास करना है। इस तरह जब भिक्षु अपने बुरे विचारों पर विजयी हो जाएगा, वह एक दिन अपने मन का स्वामी बनेगा और सदैव के लिए बुराई एवं दुःख से मुक्त हो जाएगा।’

इस तरह हेय विचारों पर विजय के अनुरूप हमारी इच्छा शक्ति की दृढ़ता भी बढ़ती जायगी। किन्तु अवाँछनीय विचारों को निरस्त कर, वाँछनीय विचारों की खेती इतना सरल कार्य नहीं। हम इस प्रयास में स्वयं को अपनी आँतरिक असहाय स्थिति एवं शर्मनाक दुर्बलताओं से आमना-सामना करते हुए पा सकते हैं। यदि हम अपनी वास्तविक दुर्बलता को अनुभव करते हैं, तो हमें विनम्रता से एक सरलतम कार्य करना चाहिए। हमें सर्वशक्तिमान प्रभु से इच्छा शक्ति के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। अपनी असहाय एवं बेबस स्थिति में हम अपने परमपिता, अपने आदि स्रोत, अपने दिव्य अंशी से सहायता नहीं माँगे तो और किससे माँगे। सरल हृदय से किया गया यह विनम्र प्रयास अवाँछनीय विचार प्रवाह को निरस्त करने का एक अचूक उपाय है। अपने सच्चे प्रयास व प्रभु की कृपा के साथ हम इच्छा शक्ति के विकास पथ पर आगे बढ़ सकते हैं और प्रभु के प्रति समर्पण भाव के अनुरूप इसकी पूर्णता की ओर बढ़ सकते हैं। इसके पूर्ण विकास की अवस्था उस क्षण आएगी, जब हम आत्याँतिक सहजता एवं आनन्द के साथ हर स्थिति में कह सकें, कि प्रभु! तेरी इच्छा पूर्ण हो, मेरी नहीं।

अतः जितना हमारा जीवन आत्म जागरण, विकास एवं भगवद्भक्ति की पुण्य क्रिया में संलग्न होगा, उतना ही इच्छा शक्ति के विकास का पथ प्रशस्त होता जाएगा। और उतना ही हमारा जीवन सच्चे सुख, शान्ति व सफलता से परिपूर्ण होता जाएगा। इच्छा शक्ति के जागरण एवं विकास द्वारा जीवन के सर्वांगीण अभ्युदय का राजमार्ग हम सबके लिए खुला हुआ है। यह हमारी इच्छा पर निर्भर है कि हम इस पर कितना बढ़ पाते हैं।


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