अदृश्य जगत् के अलौकिक सहायक

November 2001

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

जीवन के दो पहलू हैं, जन्म और मृत्यु। हर जन्म के बाद मरण अवश्यंभावी है, उसी प्रकार प्रत्येक मृत्यु के उपराँत जन्म। यह जन्म-मरण का चक्र तब तक चलता रहता है, जब तक जीवात्मा अपनी मूल सत्ता से एकाकार न हो जाए। यह एकात्मता जीवन का चरम विकास है, किन्तु इस विकास-बिन्दु इस विकास-बिन्दु तक पहुँचने से पूर्व जीवन सरल नहीं होता। उसमें कितनी ही विद्रूपताएं और विपन्नताएं घुली होती हैं, इसे जन-जीवन में झाँककर देखा जा सकता है। इन मलीनताओं को दूर कर ही उस आत्यंतिक बिन्दु तक पहुँच पाना संभव है। यह शक्य नहीं कि हमारा लौकिक जीवन दूषित हो और मरणोत्तर जीवन शुद्ध सात्विकों जैसा बन जाए। वास्तव में परलौकिक जीवन प्रत्यक्ष जीवन की ही प्रतिच्छाया है। जीते-जी हमारा आचरण और व्यवहार जैसा होगा, मरने के बाद भी प्रवृत्ति वैसी ही बनी रहेगी। यदि प्रत्यक्ष जगत् में किसी को दूसरों को प्रताड़ित करने तंग करने, दुःख पहुँचाने में आनंद आता है तो मरने के बाद भी उसकी गतिविधियाँ वैसी ही बनी रहेंगी। इसके विपरीत कोई शुद्ध चरित्र, परोपकार, सेवा, सहायता में संलग्न रहकर कष्टपीड़ितों का सहयोग करता है, तो उसके मरणोत्तर क्रियाकलाप भी वैसे ही होते हैं, यह एक सुस्थापित तथ्य है।

जन्म-मरण की यह लंबी शृंखला वास्तव में क्यों हैं? यहाँ यह सहज जिज्ञासा उठ सकती है। इस संबंध में इतना ही कहा जा सकता है कि इसमें जीव चेतना को भवबंधनों में आबद्ध रखना अथवा उसकी प्रगति को विलंबित करने जैसी कोई बात नहीं। यह विकास की एक स्वाभाविक प्रक्रिया है और उसमें व्यतीत होने वाला लंबा काल उसका एक अविच्छिन्न अंग। इसे न तो परमात्मा का पक्षपात कहा जा सकता है, न जीव चेतना की सुस्ती, कारण कि हर जीवात्मा की संस्कारजन्य अपनी पृथक योग्यता और क्षमता होती है। वह उस हिसाब से ही आगे बढ़ती है और ऊंचा उठती है। साइकिल की गति मोटरसाइकिल जितनी नहीं हो सकती एवं मोटर-साइकिल कभी कार का मुकाबला नहीं कर सकती है। सभी की अलग-अलग सामर्थ्य है। वे उसके अनुसार ही चलती और मंजिल तक पहुँचती है। उसमें लगने वाला समय भी तदनुरूप भिन्न-भिन्न होता है। यही बात जीवात्मा के साथ है।

साधारण जीवात्मा को अपनी यात्रा में लंबा समय लगता है। यह आत्मपरिष्कार की दृष्टि से आवश्यक है, क्योंकि चेतना का परिमार्जन वस्त्र धोने जैसी कोई सुगम प्रक्रिया नहीं, जिसे तुरत-फुरत में एक-दो जन्म में संपन्न किया जा सके। उसके लिए अनेक जन्म चाहिए। विशिष्टों की बात और है, जो जल्द ही उस स्थिति को उपलब्ध कर आत्मसत्ता को परिमार्जित कर लेते हैं। पूर्ण परिमार्जन के बाद ही वह सुयोग बन पाता है, जिसमें आत्मा का परमात्मा से मिलन हो सके। यही बंधन-मुक्ति है।

इस आत्मिक अवस्था को प्राप्त करने से पूर्व व्यक्ति में कितने ही ऐसे गुण परिलक्षित होने लगते हैं, जिन्हें साधारण नहीं, असाधारण और उच्चस्तरीय कहना चाहिए। वह करुणा, दया और उदारता की प्रतिमूर्ति बन जाता है। सात्विकता और सदाशयता उसके रोम-रोम से प्रस्फुटित होने लगती है। परदुःख कातरता उसकी प्रकृति का एक महत्त्वपूर्ण अंग होती है। परमार्थ प्रयोजनों में उनका जीवन निरत रहता और स्वास्थपूर्ण काया से मन हटने लगता है। भलाई और बुराई में से यदि कभी किसी एक के चयन की आवश्यकता पड़ी, तो वह भलाई को अपनाता है, भले ही उसमें उसका अपना अहित क्यों न होता हो। बुराई से वह कोसों दूर रहता है। सेवा और सहायता उसके व्यक्तित्व के दो उपयोगी उपादान बन जाते हैं। उनके बिना जीवन अधूरा समझा जाता है। तपस्वियों की तरह स्वल्प साधनों में निर्वाह करना और दूसरों के हित के लिए अपना अधिकार तक छोड़ने के लिए तत्पर रहना, उसकी विशेषता है। उसका अपना कोई निजी नहीं होता, संपूर्ण धरित्री ही उसके लिए कुटुँब समान होती है। स्वयं दुःख सहकर औरों को सुख पहुँचाना ऐसे लोगों का प्रधान ध्येय है, इसलिए उन्हें श्रद्धा और सम्मान की दृष्टि से देखा जाता तथा पूज्य समझा जाता है।

इस प्रकार के संत-सत्पुरुष तो प्रत्यक्ष जीवन में यत्र-तत्र देखे ही जाते रहते हैं, किन्तु मरणोत्तर जीवन संबंधी ऐसे उदाहरण यदा-कदा ही प्रकाश में आ पाते हैं। ऐसी ही एक घटना का उल्लेख प्रख्यात गुह्यविद काँलिन विल्सन ने अपनी आत्मकथा में किया है। वे लिखते हैं कि नोवा स्काँटिया (कनाडा) के नार्थ माउंटेन इलाके में एक नाविक परिवार रहता था। उसमें एक बालक पैदा हुआ। नाम था- जोशुआ। वह कुछ बड़ा हुआ, तो पिता के साथ समुद्री यात्राओं पर जाने लगा। उसमें उसे बड़ा आनंद आता। समुद्री जीवन के खतरों को समझते हुए अनेक बार पिता उसे साथ ले जाने से मना कर देते, तो वह मचलने लगता, जिससे विवश होकर उसे साथ ले जाना पड़ता।

एक बार नाव तूफान में फंस गई, तो वे परेशान हो उठे। उन्हें अपनी चिंता नहीं थी। डर था तो इस बात का कि जोशुआ भी साथ है ओर पिता के संग उसे भी मरना पड़ेगा। इतने पर भी हैरान कर देने वाली बात यह थी कि जोशुआ ऐसे समय में भी भयभीत नहीं होता और पिता को ढाढ़स बंधाता रहता। आरंभ से ही वह निर्भीक प्रकृति का था।

युवा होने पर वह अकेले ही समुद्री सैर पर निकलने लगा। इससे उसे काफी अनुभव प्राप्त हुआ और इस बात का भी पता चला कि ऐसे अभियानों में किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। अनेक वर्षों की छोटी-छोटी यात्राओं के उपराँत उसके मन में आया कि क्यों न समुद्री मार्ग से संसार का चक्कर लगाया जाए। यह विचार आते ही उसने उसकी तैयारी शुरू कर दी। वह जानता था कि ऐसे कार्यों में जान जोखिम का भारी खतरा है, किन्तु इतने मात्र से वह इस अभियान को त्यागना नहीं चाहता था। दृढ़ संकल्पों वाला जोशुआ यह भलीभाँति समझता था कि कठिनाइयोँ के आगे हार मान लेने वह जीवन में कभी भी कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं कर सकेगा। अस्तु, संपूर्ण तैयारी के पश्चात 24 अप्रैल सन 1894 को अपनी पुरानी नाव के साथ उसने यात्रा का श्रीगणेश किया।

एक सप्ताह बीत गया। जोशुआ समुद्री मार्ग के सबसे कठिन और भयानक समझे जाने वाले भाग से गुजर रहा था। यहाँ पग-पग प्राण संकट का भय था, फिर भी वह मन को मजबूत कर बढ़ा चला जा रहा था। अंध महासागर के बारे में कहा जाता है कि करोड़ों वर्गमील क्षेत्र में फैला यह महासमुद्र इतना खतरनाक है कि नाविक कब वहाँ की भयानक शार्क और ह्वेल मछलियों का शिकार बन जाए, कहा नहीं जा सकता। इसके अतिरिक्त उसमें उठने वाले तूफान इतने प्रचंड होते हैं कि उनसे पार पाना लगभग असंभव है। फिर उसकी गहराई भी कोई कम नहीं। ऐसी प्रतिकूलताएं हों और व्यक्ति एकदम अकेला हो, तो मन का बार-बार बैठ जाना स्वाभाविक ही है। उस पर भी अंधमहासागर में मंडराने वाले भूतों का डर, सब मिलकर जोशुआ के लिए गंभीर चुनौती पैदा कर रहे थे। रात में डर भगाने के लिए वह जोर-जोर से गीत गाता और दिन के समय कुछ सो लेता। नींद पूरी न होने और मेहनत अधिक पड़ने से उसे सुस्ती और थकान रहने लगी। इसी बीच भोजन में एक दिन उसने आलूबुखारा और पनीर साथ-साथ खा लिया, जिससे पेट में दर्द रहने लगा। वह किसी प्रकार कम न हो रहा था। इसके कारण कई दिनों तक उसे उपवास रखना पड़ा, फिर भी दर्द ठीक न हुआ, उलटे कमजोर गले और आ लगी। एक दोपहर जोशुआ केबिन में निढाल पड़ गया। अशक्तख के मारे उसका बुरा हाल था। लेटे-लेटे वह सोचने लगा कि अब शायद न बच पाए। उसकी मृत्यु सुनिश्चित है। वह क्या करता, स्वयं को नियति पर छोड़ दिया।

मध्य रात्रि थी। जोशुआ दर्द से व्याकुल था। ऐसे में नींद कैसे आती। वह छटपटा रहा था, तभी अकस्मात केबिन में किसी के पदचाप सुनाई पड़े। उसने पलटकर देखा तो हैरान रह गया। उसके सामने एक सुन्दर देहयष्टि वाला नौजवान खड़ा था। उसने जोशुआ पर एक स्नेहपूर्ण दृष्टि डाली, हाथ पकड़कर प्रेमपूर्वक उठाया और कहा, ‘तुम बहुत मूर्ख हो। तुम्हें जब आहार संबंधी नियम का पता नहीं, तो इतनी लंबी यात्रा पर निकलने की क्या जरूरत थी? मरना है क्या! अरे! पनीर के साथ क्या कभी आलूबुखारा खाया जाता है।’

इतना सुनते ही जोशुआ आश्चर्य से उसे देखने लगा, पूछा, ‘तुम कौन हो? मेरी नाव में अचानक कहाँ से, कैसे आ गए? मेरे बारे में तुम्हें यह सब कैसे मालूम?’

यह सुनकर वह मुस्करा दिया, कहा, ‘मैं चाहे कहीं भी, कभी भी पहुँच सकता हूँ। मेरे लिए स्थान और काल की कोई अड़चन नहीं। मैं पलक झपकते ही तुम्हारे जैसे मुसीबत में पड़े लोगों की सहायता में पहुंच सकता हूँ।’

इतना कहकर उसने कुछ दवाएं दीं और कहा, ‘इन्हें खा लो। कल प्रातः तक तुम स्वस्थ हो जाओगे। तब तक तुम्हारी नाव मैं चलाता रहूँगा।’

दवा लेते समय जोशुआ ने अनुभव किया, जैसे उस व्यक्ति का हाथ बर्फ जैसा ठंडा हो। वह समझ गया कि आगंतुक कोई मनुष्य नहीं, वरन् एक परोपकारी प्रेतात्मा है, उसकी जीवन रक्षा हेतु आई है।

सवेरा हुआ, तो प्रेतात्मा के कथानुसार वह बिलकुल स्वस्थ-सबल महसूस कर रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे बीमार था ही नहीं। वह तुरंत उसके लिए गरम कॉफी और नाश्ता ले आया। यह सब क्षणार्द्ध में कहाँ से आ गया, यह देख जोशुआ हैरान था, कारण कि उसके पास न तो काफी थी, न वह नाश्ता, जिसे वह उसे खाने को दे रहा था।

नाश्ता कर चुकने के उपराँत उस व्यक्ति ने कहा कि अभी थोड़ी देर में भयंकर तूफान आने वाला है। मैं इस तूफान से तुम्हारी रक्षा करूंगा। यह इतना दुर्धर्ष है कि न तुम, न तुम्हारी यह पुरानी नौका उसका मुकाबला करने में सक्षम है। मैं अपनी पराशक्ति के सहारे इस महाविपत्ति से तुम्हें सुरक्षित निकाल ले जाऊंगा। सावधान रहो और देखो। उसका यह अंतिम वाक्य अभी पूरा भी नहीं हुआ था कि जोशुआ ने देखा कि समुद्र की उत्ताल ऊर्मियाँ उद्दाम और विकराल बनती जा रही है। थोड़ी ही देर में उसने रौद्र रूप धारण कर लिया। उस अजनबी ने नाव को संभाला और तूफान के शाँत होने तक उसे बचाए रखा। लगभग पंद्रह दिनों तक वह जोशुआ के साथ रहा। इस बीच यही कहता रहा कि जब तक तुम खतरे से बाहर नहीं निकल जाते, मैं तुम्हारे साथ रहूँगा।

इस मध्य उसकी नाव निरंतर आगे बढ़ती रही। कई दिन बीत गए। एक प्रातः उसने कैप्टन जोशुआ से कहा, ‘अब तुम अपनी नाव संभालो। हमारा काम पूरा हो गया। आगे तुम्हारी मंजिल निर्विघ्न है। निश्चिंत रहो और सतर्कतापूर्वक आगे बढ़ो। तुम अवश्य सफल होगे, इसे मैं पहले ही जान चुका हूँ। इस कार्य को करने वाले कदाचित तुम पहले और अंतिम व्यक्ति होगे, इसके पश्चात ऐसा दुस्साहस शायद ही कोई कर सके। तुमने साहस किया, इसलिए तुम्हें अलौकिक सहायता मिली। जो व्यक्ति दूसरों के भरोसे रहते हैं उनकी सफलता संदिग्ध बनी रहती है। इसे हृदयंगम कर लेना और यह स्मरण रखना कि परोक्ष सत्ता की सहायता सिर्फ उन्हीं को मिलती है, जो अपनी सहायता आप करने को तत्पर हों। इस लोमहर्षक यात्रा को पूर्ण करने के उपराँत तुम अपना संस्मरण लिखना, जिसमें इस बात का भी उल्लेख करना कि संकल्प के पक्के शूरवीरों की सहायता करने वाली आत्माएं सिर्फ स्थल भाग में ही नहीं, वरन् धरती के उस हिस्से में भी विद्यमान हैं, जिसे समुद्र कहते हैं।’ इतना कहकर उसने सागर में छलाँग लगा दी और अदृश्य हो गया। जोशुआ की यात्रा 27 जून 1898 को संपूर्ण हुई।

मरण जीवन का अदृश्य पक्ष है। शरीराँत के बाद उसकी सत्ता समाप्त नहीं हो जाती, अपितु और अधिक समर्थ, सशक्त और क्रियाशील हो उठती है। स्थूल देह का भार हट जाने से उसका आवागमन भी अप्रतिहत हो जाता है। इस मध्य वह ठीक वैसा ही व्यवहार करती है, जैसी स्थूल सत्ता। पवित्रता से उसमें और समर्थता एवं प्रखरता आ जाती है तथा वह ऐसे-ऐसे उदात्त कार्य करने में सक्षम हो जाती है, जिसे आमतौर पर साधारण आत्मा नहीं कर पाती। इसके अतिरिक्त जीवन की यह पवित्रता में अगले जन्म में और अधिक उच्चतर भूमिका में प्रतिष्ठित करती हैं, अतएव हर एक को हर पल यह प्रयास करते रहना चाहिए कि हम अधिकाधिक शुद्ध और श्रेष्ठ बनें। जीवन को दिव्य और महान बनाने का यही एकमात्र उपाय है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118