कुछ भय न रहा (kahani)

November 2001

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संत तुकाराम शूद्र जाति में जन्मे थे। उनकी भक्ति भावना से पंडित लोग चिढ़ते थे। उस क्षेत्र के प्रख्यात पंडित रामेश्वर भट्ट ने उन्हें बुलाया और धमका कर धर्मप्रचार करने और गीत लिखने से मना कर दिया।

तुकाराम नम्रता की मूर्ति थे। उन्होंने पंडित जी से पूछा, ‘जो गीत अब तक लिखे जा चुके हैं, उनका क्या करूं?’ पंडित जी ने कहा, ‘नदी में फेंक दो’। उन्होंने वैसा ही कर दिया।

संत बहुत दुःखी थे। किसी वंश में जन्म लेने में मेरा क्या दोष है? भगवान! मुझे भक्ति से क्यों वंचित किया जा रहा है? आपकी गुण-गाथा गाने में मेरे ऊपर प्रतिबंध क्यों लग गया?’ यही बात वे निरंतर सोचते रहते। खाना-पीना तक छूट गया।

रात्रि को सपने में भगवान ने दर्शन दिए और कहा, ‘तेरे भक्ति गीत मैंने डूबने नहीं दिए। निकालकर नदी किनारे रख दिए हैं। उन्हें वापस लाकर पहले की तरह धर्मप्रचार के पवित्र कृत्य में लगा।’ तुकाराम ने वैसा ही करना आरंभ कर दिया। अब किसी के विरोध का उन्हें कुछ भय न रहा।


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