राजकुमार शालिवाहन गुरु आश्रम मैं अध्ययन कर रहे थे। आश्रम में अन्य प्राणियों के जीवनक्रम को देखने-समझने का भी अवसर मिला तथा मानवोचित मर्यादाओं के पालन की कड़ाई से भी गुजरना पड़ा। उन्हें लगा पशुओं पर मनुष्यों जैसे अनुशासन-नियंत्रण नहीं लगते, वे इस दृष्टि से अधिक स्वतंत्र हैं। मनुष्य को तो कदम-कदम पर प्रतिबंधों को ध्यान में रखना पड़ता है। एक दिन उन्होंने अपने विचार गुरुदेव के सामने रख दिए।
गुरुदेव ने स्नेहपूर्वक समाधान किया, ‘वत्स! पशु जीवन में चेतना कुएं या गड्ढे के पानी की तरह रहती है। उसे अपनी सीमा में रहना है, इसलिए उस पर बाँध या किनारे बनाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। मनुष्य जीवन में चेतना प्रवाहित जल की तरह रहती है, उसे अपने गंतव्य तक पहुँचना होता है, इसलिए उसे मार्ग निर्धारण, बिखराव व भटकाव से रोक आदि की आवश्यकता पड़ती है। कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य के बाँध बनाकर ही उसे मानवोचित लक्ष्य तक पहुँचाया जा सकता है।
पशु अपने तक सीमित हैं। मनुष्य को यह उत्तरदायित्व सौंपा गया है कि वह अनेकों का हित करते हुए विशाल आत्मीयता का बोध करते-कराते आगे बढ़े। इसलिए उसे प्रवाह की क्षमता भी मिली है और कर्त्तव्यों के बंधन भी आवश्यक हैं।