युगगीता-26 - कैसे बनें दिव्यकर्मी और कैसे हो बंधनमुक्त

November 2001

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(गीता के चतुर्थ अध्याय की युगानुकूल व्याख्या-नवीं कड़ी)

युगगीता के विगत अगस्त माह के अंक (26वीं कड़ी) में ‘गहना कर्मणोगतिः’ शीर्षक के साथ कर्म की गहन गति, कर्म-अकर्म-विकर्म की बड़ी विशद व्याख्या प्रस्तुत की गई थी। परमपूज्य गुरुदेव द्वारा इसी शीर्षक में लिखी गई पुस्तक के उद्धरणों के माध्यम से पाठकों ने जाना कि कर्मफल विधाता का कितना बड़ा, अकाट्य एवं माहात्म्य से भरा सिद्धाँत है। इसी क्रम में इस लेख के उत्तरार्द्ध में गीता के चौथे अध्याय के 19, 20, 21वें श्लोक का भावार्थ समझाया गया था कि ज्ञान की धधकती प्रबलता एवं पवित्रता से भरी अग्नि में बुद्धिमान (तमाहुः पंडितं बुधा) व्यक्ति के कर्म जलकर भस्म हो जाते हैं। उसके सभी कार्य बिना किसी कामना या उद्विग्नता से होते हैं। ऐसा ज्ञानी व्यक्ति कर्मफल की आसक्ति को छोड़कर सदैव प्रभु में तृप्त रहता है। इसी व्याख्या के दिव्यकर्मी महामानवों के लक्षणों के रूप में इन तीन श्लोकों के भावार्थ के माध्यम से विगत अंक में आँशिक रूप से समझाया गया था। अब इसी व्याख्या को आगे बढ़ाते हैं- चौथे अध्याय के बीसवें तथा इक्कीसवें श्लोक को और स्पष्ट करते हुए इस अंक में।

दिव्यकर्मी की विवेचना

जिसकी समस्त वासनाएं ज्ञान की अग्नि में जलकर भस्म हो गई हो, जो कार्य करते हुए भी उत्तेजित न हो तथा जिस कार्य को भी हाथ में ले उसे दिव्यता के शिखर पर ले जाए- श्रीभगवान के अनुसार वह पंडित है, ज्ञानी है, बुद्धिमान है। जब संकल्प व्यष्टि से हटकर समष्टि से जुड़ जाते हैं, तो कामनारहित हो जाते हैं। ऐसा व्यक्ति सही अर्थों में साधक बन जाता है। मात्र वह ज्ञानी ही नहीं होता, अंदर-बाहर से पवित्रता से घनीभूत हो वह ईश्वर का सच्चा पुत्र भी बन जाता है। ऐसे दिव्यकर्मी के विषय में स्वयं प्रभु श्रीकृष्ण बीसवें श्लोक में कहते हैं-

‘ऐसा व्यक्ति सब प्रकार की कर्मफल आसक्ति छोड़कर सदैव प्रभु में तृप्त रहता है, प्रभु के अतिरिक्त किसी अन्य पर आश्रित न होकर वह सब प्रकार के कर्मों को करता हुआ भी वस्तुतः कुछ भी नहीं करता’ (कर्म में अकर्म)। (कर्मण्यभिप्रवृत्तेऽपि नैव किच्चित्करोति सः) 4/20। एक दिव्यकर्मी के विषय में भगवान कह रहे हैं कि वह अपनी स्वाध्यायजनित समझ-बूझ के माध्यम से हर क्षण प्रभु में ही लीन होकर कार्य करता है। वह जो भी कार्य करता है, चूँकि उसकी उसके फल के प्रति आसक्ति नहीं है, वह करता हुआ भी उसे न करने वाला बन जाता है।

पंत वस्तुतः ऐसे ही व्यक्तियों को कहा जाता है। इन्हें दुनिया में दुःखी-ही-दुःखी दिखाई देते हैं। वे दुःखों के निवारण का प्रयास करते हैं। दूसरी ओर दुःखी भी वे ही होते हैं, जिनकी कामनाएं अतृप्त होती हैं। उन्हें भोग-विलास में ही सब कुछ नजर आता है। हमारे पास यह सब साधन होते तो कितना अच्छा होता। यही सब सोच-सोचकर वे दुःखी होकर विकर्म कर बैठते हैं और फिर पाप के भागी बनते हैं।

दुःखों की गठरी कैसे घटे

दुःखों को कैसे बंटाया जाए और उनसे कैसे निबटा जाए, इस संबंध में बायजीद नामक एक सूफी फकीर ने बड़ी सुन्दर कथा कही है। उस फकीर ने एक दिन प्रार्थना की, हे मेरे भगवान! मेरे मालिक!! मेरा दुःख किसी और को दे। मुझे थोड़ा छोटा दुःख दे दो, मेरे पास बहुत दुःख है। प्रार्थना करते-करते उसकी नींद लग गई। उसने स्वप्न देखा कि खुदा मेहरबान है। दुनिया के सब लोग आकर उसके पास दुःखों की गठरियाँ टाँगते चले जा रहे हैं। भगवान कह रहे हैं कि अपनी गठरियाँ मेरे पास बाँध दो और मनचाही वह दूसरी लेते जाओ। बायजीद मुस्कराए, सोचा भगवान ने मन की बात सुन ली। अब मैं भी अपनी दुःखों की गठरी बाँधकर हलके दुःखों वाली गठरी ले जाता हूँ। सब अपनी-अपनी गठरी बदल रहें हैं। मैं भी पीछे क्यों रहूँ। बायजीद ने आश्चर्य से देखा कि दुनिया में दुःख तो बहुत है। न्यूनतम दुःखों वाली गठरी भी उसकी गठरी से दुगनी थी। सपने में ही वह भागा कि अपनी गठरी पहले उठा लूँ। कहीं ऐसा न हो कि मेरे जिम्मे दुगने दुःखों वाली गठरी आ जाए और मेरी गठरी कोई और ले जाए। माँगा तो था मैंने कम दुःख और कोई मुझे अधिक दुःख पकड़ा जाए।

यदि इस कथा का मर्म हमारी समझ में जाए, तो हम भगवान से, अपने खुदा से, अपने इष्ट से कभी प्रार्थना नहीं करेंगे कि हमारे दुःख कम हों, कहेंगे कि औरों के दुःख कम हो, उनकी फलों में आसक्ति कम हो, वे विकर्मी नहीं दिव्यकर्मी बनें। दुःख हमारे हित में है। दुःख को तप बना लेना ज्ञानी का काम है। सुख को यही ज्ञानी योग बना लेता है। जो दुःख में, कष्ट में परेशान हो जाए, उद्विग्न हो जाए तथा सुख में भोग-विलासी बन जाए, वह अज्ञानी है। ज्ञान की पवित्र अग्नि में कर्मों को भस्म कर व्यक्ति यही पहला मर्म सीखता है कि मुझे औरों के लिए जीना चाहिए। जीवन भर परमपूज्य गुरुदेव यही शिक्षण तो हमें दे गए। उन्होंने कहा, ‘औरों के हित जो जीता है, औरों के हित जो मरता है उसका हर आँसू रामायण, प्रत्येक कर्म ही गीता है।’ इसी आग ने तो कइयों के अंदर परहितार्थाय मर मिटने की अलख जगा दी और देखते-देखते एक विराट संगठन गायत्री परिवार का खड़ा होता चला गया।

भगवान कामनाओं से निवृत्ति दिलाने के लिए दुःख देता है। इससे वासनाएं छूटती चली जाती है और क्रमशः हम कर्म में अकर्म को देखने लगते हैं। अकर्म ज्ञान में होता है। कर्म कई बार अज्ञान में हो जाता है, तो वह विकर्म में बदल जाता है। यह रहस्य जो समझ लेता है, वह जीवन की मझधार से पार हो जाता है।

सिद्धपुरुष के लक्षण

इक्कीसवें श्लोक में भगवान कहते हैं, ‘जिसका अंतःकरण और इंद्रियों सहित शरीर जीता हुआ है, जिसने समस्त भोगों की सामग्री का, संग्रह वृत्ति का परित्याग कर दिया है, ऐसा उद्विग्नता से मुक्त (आशारहित), व्यक्ति केवल शारीरिक कर्म करता हुआ भी किसी पाप को प्राप्त नहीं होता।’ (श्लोक 4/21)।

अब जरा इस श्लोक के मर्म को आत्मसात करने का प्रयास करें। यह समझ में आ गया तो ही समझ में आएगा कि यज्ञमय कर्म क्या है, यज्ञार्थाय कैसे जीना चाहिए। यज्ञ वस्तुतः है क्या व कितने प्रकार के हैं। यही सब व्याख्या तैंतीसवें श्लोक तक आई, जहाँ श्रीकृष्ण पुनः अपनी पटरी पर वापस आकर ‘ज्ञानयज्ञ’ की महत्ता स्थापित करते हैं एवं कहते हैं कि ज्ञानरूपी नौका से पापियों से भी अधिक पापी मनुष्य भी पाप-समुद्र से तर जाता है (छत्तीसवाँ श्लोक, चौथा अध्याय)।

इस श्लोक में एक पूर्ण पुरुष का, पूर्ण कर्म करने वाले सिद्ध पुरुष का चित्राँकन भगवान ने किया है। भगवान कहते हैं कि ऐसा सिद्धपुरुष जिन विशेषताओं से युक्त होता है, वे इस प्रकार हैं-

1. उसका अपने अंतःकरण और इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण होता है। 2. वह अपरिग्रही होता है (त्यक्तसर्वपरिग्रहः)। ब्राह्मणोचित जीवन जीता है।

3. वह ‘बिना आशा वाला’ जीवन जीता है। अर्थात् ‘निराश होकर संसार की सेवा नहीं करता (निराशीः यत् चित्तात्मा) वरन् भविष्य में प्राप्त होने वाले फलों के लिए चिंतित न होकर कर्म करता है। ‘आशा शब्द सदैव भविष्य में घटने वाली घटनाओं के विषय में प्रयुक्त होता है। ‘आशावादी’ हर मनुष्य को होना चाहिए, परंतु जब दार्शनिक परिप्रेक्ष्य में ‘बिना आशा वाला’ शब्द आया है तो उसका अर्थ है- कर्मफल के लिए चिंतित न होना।

4. ऐसा व्यक्ति मात्र शरीर से जीवन निर्वाह हेतु कर्म करता है। उसके मन और बुद्धि दोनों ही पूर्णतः लक्ष्य पर केन्द्रित होते हैं। ऐसे कर्म करने से उसके ये कर्म पाप का कारण नहीं बरते। (न आप्नोति किल्बिषम्)। पाप वस्तुतः कर्मों-संकल्पों-कामनाओं-विचारों की भीड़भाड़ द्वारा पीछे छोड़ी गई दुःखकारक वासनाएं ही हैं। चूँकि इस सिद्धपुरुष में अहंकेन्द्रित कामनाएं नहीं होती, शरीर स्तर पर उसके कर्म केवल वासना क्षय का कारण बनते हैं, नई वासनाओं की बेड़ियों को जन्म नहीं देते।

अब समझ में आता है कि कितना बड़ा तथ्य भगवान के श्रीमुख से निःस्सृत हुआ है। पाप-पुण्य की सारी व्याख्याएं सुनाने के बाद पापों को काटने का मर्म भी भगवान बता रहे हैं एवं उनके होने, संचित होते रहने की प्रक्रिया भी समझा रहे हैं। जो जितेंद्रिय हो, अपरिग्रही जीवन जीता हो, बिना कर्मफल की आशा रखे जीवन यात्रा संपन्न करता हो, शरीर से जीवन निर्वाह मात्र के लिए कर्म करे, वह कभी पाप को प्राप्त नहीं होता। उसका जीवन यज्ञमय हो जाता है।

बंधनमुक्त कौन?

भगवान कृष्ण 22वें श्लोक में अब एक और बात जोड़ते हैं-

यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वंद्वातीतो विमत्सरः। पमः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते॥

जो किसे बिना किसी इच्छा के जो कुछ भी प्राप्त हो जाता है, उसी में तृप्त रहता है, जो ईर्ष्या-द्वंद्व आदि से अप्रभावित है तथा सफलता-असफलता, (हर्ष-शोक) आदि में समबुद्धि रखता है, ऐसा सिद्धि-असिद्धि में समभाव रखने वाला कर्मयोगी कर्म करते हुए भी किसी बंधन को प्राप्त नहीं होता (अर्थात् बंधनमुक्त हो जाता है, मोक्ष को प्राप्त होता है)।

ऐसी योग्यता एक कर्मयोगी के चरित्र को पूर्णता देती है एवं उसकी बड़ी सही परिभाषा प्रस्तुत करती है। वह व्यक्ति चाहे किसी भी कार्यक्षेत्र का हो, एक प्रबंधक हो अथवा कृषक, एक अध्यापक हो अथवा मजदूर, एक चिकित्सक हो अथवा छात्र, जिस किसी ने भी अपने भीतरी जीवन मूल्यों तथा बहिरंग जगत् के साथ अपने संबंधों में इन क्राँतिकारी परिवर्तनों को व्यावहारिक रूप दे दिया है, वह कर्मों में पूर्णता प्राप्त कर बंधनमुक्त हो जाता है। ऐसा ही व्यक्ति सही लोकसेवी बन पाता है।

इस संबंध में परमपूज्य गुरुदेव लिखते हैं, ‘दूरदर्शी विवेकशील का जागरण ही आत्मबोध, आत्मकल्याण, ईश्वरदर्शन, प्रभु अनुग्रह आदि नामों से जाना जाता है। वह सचमुच ही किसी मात्रा में उपलब्ध हो सके, तो ऐसा मनुष्य उतनी ही तत्परता से आत्मकल्याण की बात सोचेगा और उतना ही मनोयोग भरा पराक्रम। सद्भावनाएं, सद्विचारणाएं, सत्प्रवृत्तियाँ अपनाने के लिए नियोजित करेगा। यह एक दूसरी ही दुनिया है।’ आगे वे लिखते हैं, ‘जिस मुक्ति को अध्यात्म क्षेत्र की सबसे बड़ी उपलब्धि माना गया है, वह किसी लोक विशेष में जा बसने जैसी बात नहीं है। उसका सीधा सा अर्थ है, भव बंधनों से छुटकारा। संकीर्ण स्वार्थपरता के चक्रव्यूह से निकलकर समष्टि विराट के साथ एकात्मभाव स्थापित कर लेना। जो इस स्तर पर पहुँचता है, वह किसी एक का या कुछेक का होकर नहीं रहता। वह अपने को सबका और सबको अपना अनुभव करता है।’ ‘देवत्व देना सिखाता है। जिसने आत्मभाव बढ़ाना और जाना, उसे धरती का देवता ही कहना चाहिए।’ (प्रज्ञा अभियान संयुक्ताँक नव. दिस. 1982, पृष्ठ 36-37)।

निश्चित ही ऊपर जो व्याख्या दी गई है, वह एक ऐसे कर्मयोगी को दी गई है, जो सिद्धि-असिद्धि में संभाव रख सतत परहितार्थाय कर्म करता रहता है, वह वस्तुतः लोभ, मोह, अहं के बंधनों से मुक्त हो चुका है। यही आदर्श हममें से प्रत्येक का होना चाहिए।

मुक्त पुरुष दिव्यकर्मी

श्री अरविंद कहते हैं, ‘मुक्त पुरुष भगवत्संकल्प की प्रेरणानुसार चलता है। जो भी कुछ प्राप्त होता है, उसे बिना किसी राग-द्वेष के ग्रहण कर लेता है। उसका अपना हृदय एवं कर्म उसके वश में होते हैं। वह समस्त प्रतिक्रियाओं-आवेशों से मुक्त रहता है। उसके जो भी कर्म रहते हैं वे मात्र शारीरिक कर्म (शारीरं केवलं कर्म) होते हैं, क्योंकि बाकी सब कुछ तो ऊपर से आता है, मानव स्तर पर वह पैदा ही नहीं होता। भगवान पुरुषोत्तम के संकल्प, ज्ञान और आनंद का प्रतिबिंब उसे हस्तगत होता रहता है। इसीलिए वह कर्म और उसके उद्देश्यों पर जोर देकर अपने मन-हृदय में वे पाप नहीं उत्पन्न होने देता, जिन्हें हम षडरिपु पाप कहते हैं। ऐसे−−−ऐसे व्यक्ति के सभी कर्मों में सहज शुद्धता बनी रहती है। वह दिव्यकर्मी का एक महत्त्वपूर्ण लक्षण हैं।’ (गीता प्रबंध पृष्ठ 184)।

इस अध्याय के 19वें से 22वें श्लोक तक एक ही ध्वनि गुँजित हो रही है- साधारण मानव दिव्यकर्मी कैसे बने? मुक्त पुरुष की सर्वोच्च उपलब्धि को कैसे प्राप्त करे? मुक्त पुरुष वस्तुतः जीव की अहंभावजन्य प्रतिक्रियाओं से मुक्त होते हैं, वे आत्मा बन जाते हैं, प्रकृति से परे चले जाते हैं, वे भगवान की अनंत सत्ता के एक विशुद्ध पात्र बन जाते हैं।

भगवान पहले सोलहवें श्लोक (चौथे अध्याय) में कह चुके हैं, ‘मैं तुझे वह कर्म बताऊंगा, जिसे जानकर तू अशुभ से मुक्त हो जाएगा।’ यह अशुभ ही कर्म बंधन है। इससे मुक्ति ही भगवान के सारे उपदेश का सार है, जो इस व विगत तीन युगगीता की कड़ियों में प्रस्तुत हुआ है। भगवान अर्जुन को दिव्यकर्मी बनाना चाह रहे हैं। उनके बताए दिव्यकर्मी के लक्षण इस प्रकार हैं-

1. कर्त्तव्य-अभिमान से शून्य होकर मोक्षदायक ज्ञान में स्थित होकर समस्त कर्मों को करना (श्लोक 18)।

2. कामना से मुक्त होकर भगवान के संकल्प बल से जुड़कर कर्म करना (श्लोक 19)।

3. वैयक्तिक संकल्प से परे होकर आध्यात्मिक जीवन जीना (श्लोक 20)।

4. समत्व में स्थित होकर द्वंद्वातीत जीवन जीना (श्लोक 21)। मनुष्यों से मिलने वाले मान-अपमान या निंदा-स्तुति का उस पर कोई असर नहीं होता, क्योंकि उसे प्रेरणा देने वाली शक्ति साँसारिक पुरस्कार पर नहीं किसी और उच्चस्तरीय बल पर निर्भर होती है। जो कर्त्तव्य-कर्म को जानता है, वह फल को अपने से कार्य कराने वाले ईश्वर के हाथों में छोड़ देता है। पाप-पुण्य के भेद से भी वह ऊपर उठ चुका होता है।

गीता की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में इस संदेश की महत्ता को समझें। अर्जुन को यह सब कहा जा रहा है। हमारा नायक अर्जुन अज्ञान में जी रहा है। वह सोचता है कि युद्ध से हटना पाप होगा, फिर साथ ही यह भी सोचता है कि खून बहाना तो हर हालत में पाप है और रक्तपात का समर्थन तो किया भी नहीं जाना चाहिए। भगवान उसे मुक्त पुरुष की दृष्टि दे रहे हैं, ताकि वह स्वयं यह देखे कि विकासशील धर्म की रक्षा के लिए कौन-सा कर्म आवश्यक है, जो परमात्मा मुझसे कराना चाह रहे हैं। दिव्य आत्मा के अंदर का वह करुणा भाव पैदा होना चाहिए, जहाँ से वह अपने उच्च स्थान से सभी को करुणा भरी दृष्टि से देखे, शरीर के परे जो जीवन है उसे जीवन माने, शरीर को मात्र एक उपकरण माने। उसकी करुणा इससे युद्ध भी कराती है, पर उदार समबुद्धि के साथ।

एक आदर्श कर्मयोगी-दिव्यकर्मी-बंधनमुक्त पुरुष को ही यह सौभाग्य मिलता है कि वह एक लोकसेवी बने, युग की तत्कालीन परिस्थितियों से मोरचा ले एवं विजयी हो नवयुग लाने, स्वर्गोपम परिस्थितियाँ धरती पर उतारने योग्य बन सके। श्रीकृष्ण भगवान का सारा उपदेश इसी बिन्दु पर केन्द्रित है। उनके अनुसार जो व्यक्ति बहिरंग जगत् से अपनी अनंत व्यक्तिगत कामनाओं को पूरा करने की अपेक्षा रखे, वह समाजसेवा कर कैसे सकता है? उसकी भोगवृत्ति, संग्रहवृत्ति, मजा लूटने की वृत्ति उसे सेवाभाव के प्रतिकूल आचरण करने को विवश कर देगी। जहाँ-जहाँ जनसमुदाय जागरुक होता है, लोग स्वयं ऐसे लोभी नेता, तथाकथित मार्गदर्शकों के विरुद्ध उठ खड़े होते हैं, उन्हें निकाल बाहर करते हैं। जब लोगों के उद्धार के लिए, उन्हें उबारने के लिए प्रयत्नशील, कर्म में निरत लोकसेवी बिना माँगे जो कुछ उसे प्राप्त हो जाता है, उसी में संतुष्ट रहता है (यदृच्छा लाभ संतुष्टः) तो यह कहा जा सकता है कि उसने समाज के प्रति अपने सेवाभाव में पूर्णता प्राप्त कर ली। वह द्वंद्वातीत हो जाता है। ऐसे कर्मों में पूर्णता प्राप्त व्यक्ति की मनःशक्तियों का नाश बंद हो जाता है, वे उच्चस्तरीय प्रयोजन में खपने लगती है। वह ईर्ष्यारहित (विमत्सरः) हो जाता है। मानवजाति का यह नायिक निःस्वार्थ उत्साह से भरकर तुच्छ सफलताओं और असफलताओं के धक्कों के मध्य मन को संतुलित करना सीख लेता है (समः सिद्धावसिद्धौ च)। ऐसा व्यक्ति कभी कर्मबंधन में नहीं बंधता। (कृत्वापि न निबध्यते)। उसके कर्मों से कोई नई वासनाएं जन्म नहीं लेती। इसी कारण उसका व्यक्तित्व लालसा-कामना-कामोद्वेग से परे होकर एक महान दिव्यकर्मी के जीवन का पर्याय बन जाता है।

ढेर सारे उदाहरण समाजसेवियों के मिलते हैं, परंतु उपर्युक्त 19वें से वें श्लोक की कसौटी पर जब हम विभिन्न दिव्यकर्मियों को कसते हैं, तो हमें सबसे समीप हमारे आराध्य दिखाई देते हैं। जीवनभर उन्होंने संघर्ष किया। बिना माँगे जो मिल गया, उसी में संतुष्ट रहे। अपने पास जो भी कुछ था, वह भगवान के खेत में बो दिया। ईर्ष्यारहित जीवन जीकर हम सबके लिए एक नमूना प्रस्तुत कर गए। सफलताओं-असफलताओं के हिचकोलों के बीच संगठन की नैया चलाते हुए एक ऐसे मोड़ पर पहुँचा गए, जहाँ उनके ढेरों अर्जुन उसे खेने के लिए तैयार खड़े थे। वे जीवनभर अपनी करुणा लुटाते रहे, ममत्व भाव का विस्तार करते रहे, पर किसी बंधन में नहीं बंधे। ऐसे कर्मबंधनमुक्त, जीवनमुक्त दिव्यकर्मी का जीवन (हमारी वसीयत और विरासत) हम सबके लिए अनुकरणीय है, एक महानायक का जीवन है व हम सबके लिए एक जीवंत शिक्षण है। आगामी अंक में इस चतुर्थ अति महत्त्वपूर्ण अध्याय के तेईसवें श्लोक की व्याख्या के साथ दिव्यकर्मी प्रसंग को और आगे बढ़ाएंगे।


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