ऊर्जा जागरण साधना सत्र क्या, क्यों, कैसे व किसके लिए

November 2001

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‘युगपरिवर्तन की इस पर्व वेला में अभीष्ट प्रयोजनों की पूर्ति के लिए ऐसी आत्मबलसंपन्न विभूतियों की आवश्यकता पड़ेगी, जो भौतिक साधनों से नहीं, अपने आत्मबल से जनमानस के विपन्न प्रवाह को उलट सकने का साहस कर सकें। यह कार्य न तो व्यायामशालाएं-पाठशालाएं पूरा कर सकती हैं और न शस्त्रसज्जा से, अर्थ साधनों से यह पूरा हो सकता है। इसके लिए ऐसे अग्रगामी लोकनायकों की आवश्यकता पड़ेगी, जो मनस्वी और तपस्वी बनने में अपना गर्व-गौरव अनुभव करें और जिनकी महत्त्वाकांक्षाएं भौतिक बड़प्पन से हटकर आत्मिक महत्ता पर केन्द्रीभूत हो सकें। भौतिक लाभों के लिए लालायित, लोभ-मोह के बंधनों में आबद्ध व्यक्ति इस स्तर के लाभ से लाभान्वित कदाचित ही हो सकें।’

ये पंक्तियाँ फरवरी 1973 की अखण्ड ज्योति पृष्ठ 61 से उद्धृत हैं। परमपूज्य गुरुदेव का इन पंक्तियों के माध्यम से स्पष्ट अभिमत है कि तप के माध्यम से प्रखर आत्मबल संपन्न विभूतियाँ ही नवयुग की आधारशिला रखेंगी। इसी अंक के संपादकीय में प्राण प्रत्यावर्तन की महत्ता बताई गई थी एवं कहा गया था कि प्रत्यावर्तन में किसी प्रकार के जादू-चमत्कार आदि के कुतूहल जैसी कोई अनुभूति इंद्रियों को नहीं होनी है। यह प्रकरण विशुद्धतः आध्यात्मिक बताते हुए पूज्यवर ने लिखा था कि ऐसे साधकों का अंतःकरण निरंतर यह अनुभव करेगा कि इस पर रखे हुए मल आवरण और विक्षेप के भार हलके हो रहे हैं। स्वच्छता और निर्मलता का प्रकाश समाविष्ट हो रहा है। यह एक प्रकार से धुलाई है। इन्हीं के साथ रंगाई की बात कहते हुए पूज्यवर ने लिखा था कि सभी साधकों को लगेगा कि अपने भीतर कुछ नया भरा जा रहा है। गर्भवती को तुरंत अनुभव होता है कि वह भारी हो चली, उस पर भार लद गया। अपनी निजी सत्ता में किसी अतिरिक्त सत्ता का समावेश हो चला। प्राण प्रत्यावर्तन में एकाकीपन का स्थान युग्म संवेदना ले लेती है। यही रंगाई है।

परमपूज्य गुरुदेव ने आह्वान करते हुए कहा था कि नवयुग अवतरण में महामानवों को महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। वे ही अग्रगामी बनेंगे और असंख्यों को अपने पीछे अनुगमन की प्रेरणा देंगे। ऐसे लोग धरती पर मौजूद हैं। दुर्भाग्य ने उन पर मलीनता का आवरण आच्छादित कर दिया है। अंधकार में वे अपना कर्त्तव्य देख-समझ नहीं पा रहे हैं और साहसिकता के अभाव में उस दिशा में कदम बढ़ा नहीं पा रहे हैं, जिसके लिए उनमें समुचित पात्रता पहले से ही मौजूद है। पूज्यवर यह कहना चाह रहे थे कि यदि ऐसी प्रसुप्त प्रतिभाओं को तप-साधना द्वारा प्रखर बनाया जा सके, उन्हें आत्मिक अनुदान लेने योग्य बनाया जा सके तो वे एक महत्त्वपूर्ण दायित्व युगनिर्माण के इस महायज्ञ में निभा सकेंगे।

प्रायः एक वर्ष तक चली प्राण प्रत्यावर्तन साधना के लगभग अट्ठाइस वर्षों बाद वैसा ही सुयोग पुनः आया है, जब प्रखर तप द्वारा स्वयं की धुलाई-रंगाई करने का अवसर सभी के समक्ष आया है। हीरक जयंती वर्ष जो युगचेतना के अभ्युदय की पिचहत्तरवीं वर्षगाँठ के रूप में सारे भारत व विश्व में मनाया जा रहा है, सभी धारकों के लिए एक अनुदान के रूप में तैंतीस पाँच दिवसीय सत्रों की यह शृंखला लेकर आया है। 26 अक्टूबर 2001 नवरात्रि समापन के आरंभ हुई यह शृंखला निरंतर चैत्र नवरात्रि 2002 तक चलती हुई 10 अप्रैल को समाप्त होगी। इसके पश्चात चैत्र नवरात्रि आरंभ हो जाएगी, जिसके विशिष्ट सत्र में सभी भागीदारी कर सकेंगे।

कुल मिलाकर सत्तर कक्षों की व्यवस्था अभी शाँतिकुँज के त्रिपदा-2 (नवीन नाम-पातंजलि भवन) में बनाई गई है। इस व्यवस्था−क्रम के विषय में विस्तार से परिजन विगत अक्टूबर अंक में पढ़ चुके हैं। इन सत्रों की मूलभूत विशेषताएं हैं-

1. पाँच दिन तक निताँत मौन रहकर एकाकी साधना।

2. निष्कासन तप द्वारा आत्मशोधन।

3. प्रतिदिन चौबीस घंटे में मात्र एक बार अखंड दीप दर्शन तथा गायत्री यज्ञ हेतु कक्ष से बाहर निकलना। इस अवधि में भी मौन बने रहना।

4. स्वाध्याय के क्रम में मात्र निर्धारित पुस्तकों का ही पठन-पाठन, चिंतन-मनन।

5. अपेक्षाकृत गंभीर व साधनात्मक अभ्यासों द्वारा अपनी आत्मशक्ति के परिष्कृतीकरण एवं ऊर्जा के जागरण का प्रयास। इन अभ्यासों को समझने के लिए एक निर्देशिका भी सभी को उपलब्ध कराई गई है। ये सभी अभ्यास, निर्देशिका तथा साउंड सिस्टम द्वारा दिए जाने वाले निर्देशों के माध्यम से कक्ष में ही संपन्न होंगे।

6. संतुलित-सात्विक आहार जो परमवंदनीया माताजी के भोजनालय से उनके कक्ष में पहुँचेगा, साथ ही औषधि कल्क व प्रज्ञापेय।

7. अप्रतिबंधित जप। जप की संख्या पर नहीं, ध्यान सहित मंत्रार्थ पर चिंतन कर उसकी गहराई पर जोर देना। भावविह्वल होकर जप करने की प्रधानता।

परिजन पाठक उपर्युक्त बिन्दुओं से इस वर्ष के ‘अंतः ऊर्जा जागरण साधना सत्रों’ की विशिष्टताओं को समझ सकते हैं। यह भी जान सकते हैं कि अंतर्मन की गहराई में भावपूर्वक जप किए जाने से कितनी प्रखरता आती है एवं मनोबल बढ़ता है। चिरस्थायी शाँति एवं अंतःउल्लास की अनुभूति तो साथ होती ही है।

प्रातः से सायं तक साधनात्मक जो विशेष उपक्रम हैं, वे इस प्रकार हैं-

1. प्रातः 4 बजे जागरण, उषापान के पश्चात आत्मबोध की साधना।

2. प्रातः 5.15 से प्रातः 5.49 तक पूज्यवर की वाणी में सामूहिक ध्यान।

3. 5.49 प्रातः से 6.00 प्रातः तक प्राण संचार प्राणायाम।

4. 6.00 प्रातः से 6.30 प्रातः तक अमृतवाणी (गुरुसत्ता)।

5. 8.00 प्रातः से 8.49 प्रातः तक मंत्रजप, सूर्यार्घदान।

6. 8.49 प्रातः से 9.30 तक सोऽहम् साधना।

7. 9.30 प्रातः से 10.00 प्रातः तक नाद साधना (प्रथम चरण)।

8. 12.49 अपराह्न से 10.. अपराह्न तक अनुलोम-विलोम प्राणायाम।

9. 1.00 अपराह्न से 10.30 अपराह्न तक जपयोग।

10. 1.30 अपराह्न से 2.00 अपराह्न तक बिन्दुयोग (अंतःत्राटक)।

11. 2.00 अपराह्न से 2.45 अपराह्न तक आत्मदेव की दर्पण साधना।

12 2.49 अपराह्न से 3.15 अपराह्न तक नाद साधना (द्वितीय चरण)।

13. 5.00 सायं से 5.15 सायं तक नाड़ी शोधन प्राणायाम।

14. 5.15 सायं से 5.30 सायं तक अमृतवाणी (गुरुसत्ता)।

15. 5.30 सायं से 6.00 सायं तक खेचरी मुद्रा।

16. 6.00 सायं से 6.15 सायं तक नाद साधना (तृतीय चरण)।

17. 7.00 सायं से 7.30 सायं सहज लयबद्ध श्वास-प्रश्वास का अभ्यास क्रम।

18. 8.15 रात्रि से 8.30 तत्त्वबोध की साधना एवं तदुपराँत विश्राँति, योगनिद्रा।

इस क्रम में रात्रि में 7.30 घंटे विश्राम, प्रातः 4.15 से 5.15 नित्यकर्म-व्यायाम, प्रातः 6.30 से 8.00 कल्क सेवन (कक्ष में) के बाद मौन-अखण्ड दीपदर्शन, यज्ञशाला में हवन तथा प्रज्ञापेय, 10 से 12 अपराह्न भोजन विश्राम, अपराह्न 3.15 से 4 प्रज्ञापेय का अवकाश तथा 4 से 5 अपराह्न कक्ष स्वच्छता व स्वाध्याय का अवकाश तथा 6.015 सायं से 7 रात्रि तक का समय भोजन के लिए सुरक्षित रखा गया है। रात्रि 7.30 से 8.15 स्वाध्याय, मनन-चिंतन हेतु रखा गया है। इस समग्र दिनचर्या से साढ़े चार दिन में साधक काफी कुछ शक्ति का उपार्जन कर सकेंगे, अपनी जीवन की दिशाधारा का निर्धारण कर सकेंगे। प्रत्येक सत्र में 20 व्यक्तियों को ही स्थान दिया गया है, साथ ही इनका पंजीयन कड़ी जाँच-पड़ताल के बाद किया जा रहा है। इसलिए जिस किसी को भी आना हो, पत्राचार करके सुनिश्चित अनुमति मिल जाने के बाद ही आना चाहिए।

जैसा कि सभी परिजन जानते हैं कि गायत्री परिवार संगठन का बीजारोपण तप की पृष्ठभूमि में हुआ। इसके मूल में गायत्री साधना रही है। नवसृजन के लिए भी पूज्यवर ने आधार साधना को ही बनाया। 1926 से आरंभ हुए इस संगठन के इतिहास को जब हम 1971 तक गहराई तक परखकर देखते हैं, तो यही पाते हैं कि गायत्री साधनारूपी सद्ज्ञान और यज्ञ आँदोलनरूपी सत्कर्म ही इसकी मूल धुरी में रहे हैं। 1962 के बाद परमपूज्य गुरुदेव ने हिमालय प्रवास से लौटकर सभी से पंचकोषी साधना कराई। बाकायदा पत्राचार से नियमित अखण्ड ज्योति के माध्यम से यह क्रम चलता रहा एवं फिर ‘अखण्ड ज्योति’ में विज्ञानसम्मत प्रतिपादनों के साथ साधनाएं प्रकाशित होने लगीं। एक बहुत बड़ा वर्ग इसे पढ़कर मिशन से जुड़ा व आगे चलकर इस समर्थ तंत्र का मेरुदंड बना। गायत्री महाविज्ञान व आगे चलकर उनकी साधनामय जीवन गाथा ‘हमारी वसीयत और विरासत’ (माय लाइफः इट्स लिगेसी एंड मेसेज) को पढ़कर तो कई प्रतिभावान-विभूतिवान जुड़ते चले गए।

परमपूज्य गुरुदेव अपनी अखण्ड ज्योति पत्रिका में निरंतर अपने शोध-निष्कर्ष जो उन्होंने साधना के विषय में किए थे, प्रकाशित करते रहे। मंत्र विज्ञान-शब्द शक्ति उनकी विशेष अभिरुचि का विषय रहा। वे एक स्थान पर लिखते हैं- ‘मंत्र शास्त्र का विशाल अध्ययन और अन्वेषण हमने किया है। महामाँत्रिकों से हमारे संपर्क हैं और साधना पद्धतियों के सूक्ष्म अंत-प्रत्यंतरों को हम इतना अधिक जानते हैं, जितना वर्तमान पीढ़ी के मंत्र ज्ञाताओं में से शायद ही कोई जानता हो। लोगों ने एकाँगी पढ़ा-लिखा होता है, पर हमने शोध और जिज्ञासा की दृष्टि से इस विद्या को अति विस्तार और अति गहराई के साथ ढूँढ़ा समझा है।’ (अखण्ड ज्योति वर्ष 30 मई अंक पृष्ठ 60) इस शोध के निष्कर्ष रूप में वे बताते हैं कि ‘यदि लेखक को हिन्दू धर्मानुयायी होने और एक मंत्र विशेष पर उसका पक्षपात होने के दोष से मुक्त किया जा सके तो उसे यह कहने में कोई संकोच नहीं होगा कि गायत्री मंत्र की शब्द संरचना अनुपम और अद्भुत है। आगम और निगम का समस्त भारतीय अध्यात्म इसी पृष्ठभूमि पर खड़ा है। मंत्र और तंत्र की अगणित शाखा-प्रशाखाएं इसी का विस्तार परिवार है। अन्य धर्मावलंबियों के अन्य मंत्र हो सकते हैं, पर जब कभी सार्वभौम एवं सार्वजनीन मंत्र की खोज, पूर्वाग्रहों को दूर रखकर निष्पक्ष भाव से उसकी निजी महत्ता के आधार पर की जाएगी, तो उसका निष्कर्ष गायत्री मंत्र ही निकलेगा। इस मंत्र का प्रत्येक अक्षर स्वयं में बीज जैसे शक्ति का स्रोत हैं।’ (अखण्ड ज्योति वर्ष 54, अंक 12, पृष्ठ 26)।

उपर्युक्त उद्धरणों से परमपूज्य गुरुदेव की साधना विज्ञान में गहराई, उनकी गायत्री मंत्र में अगाध श्रद्धा एवं निज के जीवन का जिया गया यथार्थ परिलक्षित होता है। वास्तव में हम देखें तो विभिन्न व्यक्तियों ने एक या दो साधना पद्धतियाँ हाथ में लीं व उनमें भी अधिक गहराई तक न जाकर साधकों को उथला ज्ञान भर दे पाए। परमपूज्य गुरुदेव ने साधना विज्ञान के हर पक्ष को न केवल गहराई तक पढ़ा, बल्कि सबसे समक्ष उसकी क्रियापद्धति रखी एवं उसका एक-एक विस्तार खोलकर सामने रख दिया। इसी दृष्टि से प्रत्यावर्तन पर आधारित यह अंतःऊर्जा जागरण सत्र का क्रम और भी निराला बन जाता है।

गुरुसत्ता का जीवन साधनात्मक प्रयोगों की एक कार्यशाला रहा है। गायत्री तपोभूमि, मथुरा में भी उन्होंने कल्प साधना, कृच्छ्र चाँद्रायण, हविष्यान्न द्वारा अन्नमय कोश का परिष्कार ऐसे कई प्रयोग कराए। युग के अनुरूप जो व्यक्तियों के शरीर-मन आज ढल गए हैं, उनमें सबसे सरल पद्धति क्या हो सकती है, इससे लेकर कठिनतम का सतत विकास पूज्यवर की साधना-प्रणालियों में पाया जाता है। ध्यान को पूज्यवर ने बड़ा सुगम एवं सभी के लिए करने योग्य बना दिया है। ध्यान हेतु बिन्दुयोग, दीपक की लौ या उगते सूर्य की ज्योति अवधारणा की साधना, विधेयात्मक चिंतन में तल्लीन होकर ध्यान रंगों का इष्ट का ध्यान इस संबंध में जो विज्ञानसम्मत प्रस्तुति पूज्यवर ने दी, वह बिरले ही कहीं एक स्थान पर देखने को मिलती है। ध्यानयोग, लययोग एवं नादयोग की योगत्रयी को उन्होंने शाँतिकुँज आश्रम ही नहीं, सभी केन्द्रों व शक्तिपीठों का एक अनिवार्य रुटीन बना दिया। प्रज्ञायोग तो उनकी मानव मात्र के लिए एक बहुमूल्य देन है।

यह एक समझने योग्य तथ्य है कि अंदर छिपे देवत्व को उभारने के लिए, भटके हुए देवता को मार्ग दिखाने के लिए किसी सूत्र की आवश्यकता होती है। ये सूत्र मानवी चेतना के स्तर पर भिन्न-भिन्न होते हैं, किन्तु कोई एक महापुरुष ऐसा आता है जो युगानुकूल, सार्वभौम, ऐसे सुनिश्चित सूत्र दे जाता है कि वे हर स्तर पर विकसित चेतना के लिए सहायक होते हैं। पूज्यवर द्वारा प्रणीत साधना पद्धति में यही बात स्थान-स्थान पर दिखाई देती है। इसी का एक विकसित रूप अब इस हीरक जयंती वर्ष की विशिष्ट साधना सत्र शृंखला में दिखाई देता है। श्री अरविंद के अतिमानस के महावतरण की वेला से हम गुजर रहे हैं। उसे चाहे हम महाप्रज्ञा कह लें या अतिमानस, बात एक ही है। इसके लिए एक नहीं अनेक सुपात्र चाहिए, जो विश्व-वसुधा को वर्तमान विडंबनाओं से उबार सकें। कुँठारहित, ग्रंथिमुक्त व्यक्तित्व जन्में, प्रतिभाशाली साधक स्तर के व्यक्ति समाज में बढ़ें, इसके लिए उच्चस्तरीय साधना अनिवार्य थी एवं वह सही समय पर आरंभ कर दी गई है।


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