तब भारत में नारी गरिमा सुप्रतिष्ठित थी। वह वैदिक स्वर्ण युग था, जब समूचे देश में ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता’ का भाव गान हो रहा था। उस समय नारी निर्मात्री, अधिष्ठात्री थी। समाज ने उसकी स्वतंत्रता पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाया था। क्योंकि सामाजिक नेतृत्व को इस तथ्य का अहसास था कि नारी की स्वतंत्रता ही मानव को उसकी परम स्वतंत्रता ‘मोक्ष’ का सन्मार्ग प्रदर्शित करने में सक्षम है। महर्षि देवल न केवल इस सत्य के हिमायती थे, बल्कि उनका आचरण भी इसे प्रमाणित करता था। उन्होंने अपनी कन्या सुवर्चला का पोषण और शिक्षण इसी साँस्कृतिक गरिमा के अनुरूप किया था।
मनोयोग पूर्वक अध्ययन एवं कठोर तप ने सुवर्चला को ब्रह्मवादिनी बना दिया था। सुवर्चला रूपवती थी। उसके सौंदर्य की आभा से नारी सौंदर्य स्वयं आलोकित हो उठा था। पर इस सबसे कहीं बढ़कर वह मानवीय गुणों में अद्वितीय थी। उसके वैदुष्य के आगे प्रतिभाशाली महर्षिगण भी माथा नवाते थे। समस्त शुभ लक्षणों से युक्त अपनी कन्या के युवा होते ही महर्षि देवल उसके लिए योग्य वर हेतु चिंतित रहने लगे। एक दिन प्रातः अग्निहोत्र आदि सम्पन्न कर महर्षि ने अपनी पुत्री की ओर स्नेह से देखते हुए पूछा- बेटी! अब तुम विवाह योग्य हो गयी हो, तुम्हें अपने लिए कैसा वर चाहिए?
पिता का प्रश्न सुनकर सुवर्चला के अधरों पर हल्का सा स्मित झलका। पिता की ओर जिज्ञासु दृष्टि से निहारते हुए वह कहने लगी, पिताश्री! ब्रह्मवादिनी के लिए भी विवाह आदि का कोई प्रयोजन है क्या? महर्षि अपनी पुत्री के तत्त्वज्ञान से परिचित थे। उन्होंने कहा- पुत्री! कुछ विशेष कर्मों का अनुष्ठान मात्र कर्मक्षय के लिए करना पड़ता है। यह सुनकर सुवर्चला सोच में पड़ गयी और उसके मुख से मात्र एक अक्षर के चार शब्द निकले- हाँ सो तो है। उसके इस कथन से ऐसा लगा मानो उसने ब्रह्म के चार पदों की व्याख्या इन चार शब्दों में कर डाली।
वातावरण में कुछ देर तक चुप्पी छायी रही। हवाओं में मौन व्याप्त रहा। फिर सन्नाटे में एक मधुर गुँजन हुआ। सुवर्चला कह रही थी- पिताश्री! आप मुझे ऐसे यति के हाथ सौंपिए, जो अंधा हो और आँख वाला भी हो। महर्षि पुत्री के ये अटपटे वचन सुनकर, एक क्षण तो चौंके, पर पुनः सहज हो गए। क्योंकि उन्हें ज्ञात था कि उनकी बेटी असामान्य है। उसकी बातों में हमेशा ही कुछ गूढ़ अर्थ निहित रहता है। इस अटपटे कथन में भी कुछ सार अवश्य होगा।
पर ऐसा व्यक्ति मिलेगा कहाँ? महर्षि ने पूछा।
आप ऐसा करिए कि मेरी इच्छानुसार मेरे योग्य ब्रह्मवेत्ताओं को आमंत्रित करिए। मैं उनमें से अपने योग्य वर का चुनाव स्वयं ही कर लूँगी।
‘सुवर्चला का स्वयंवर’ यह खबर अनेकों जनों के अन्तःकरण को आन्दोलित करने के लिए पर्याप्त थी। हर दिशा से ब्राह्मणों की कतारें महर्षि के आश्रम में पहुँचने लगी। इनमें से कुछ को उत्सुकता थी, कुछ को जिज्ञासा तो कुछ सचमुच ही सुवर्चला से पाणिग्रहण की आशा लेकर आए थे। उनकी सोच थी कि वे सुवर्चला जैसी रूपवती एवं विदुषी पत्नी पाकर धन्य हो जाएँगे।
ऐसे उत्सुक ब्राह्मणों की सभा में महर्षि देवल अपनी कन्या सुवर्चला को साथ लेकर पहुँचे। उन्होंने प्रत्येक से अपनी पुत्री का परिचय कराया। और घोषणा की कि उपस्थित ब्राह्मण समुदाय में मेरी कन्या जिस किसी को पसन्द करेगी, उसे मैं जमाता के रूप में स्वीकार कर लूँगा।
और तब महर्षि देवल की उस यशस्विनी कन्या ने समस्त ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मणों को सादर नमन कर विनम्रता पूर्वक कहा- ‘यद्यस्ति समितौ विप्रो हयंधोऽनंधः स में वरः।’ अर्थात् इस ब्राह्मण सभा में मेरा पति वही हो सकता है, जो अंधा हो और अंधा न भी हो।
सभी को यह शर्त अतिविचित्र लगी। वे सब के सब एक दूसरे का मुँह ताकने लगे। कुछ ने तो यह भी सोच लिया कि महर्षि की रूपवती कन्या अवश्य ही विक्षिप्त है। कतिपय फुसफुसाहट भरे स्वर सभा मध्य उभरे- कि अत्यधिक अध्ययन और तप की कठोरता से भी यदा-कदा मानसिक असन्तुलन हो जाता है। सुवर्चला उसी से पीड़ित हो चली है। कतिपय विद्वानों के अहं को सुवर्चला की यह बात सुनकर भारी ठेस लगी। उन्होंने सोचा कि अवश्य ही महर्षि ने हमारा अपमान कराने के लिए यहाँ पर बुलाया है।
परन्तु प्रत्यक्ष में किसी ने कुछ भी नहीं कहा। क्योंकि वे सभी महर्षि और उनकी पुत्री की लोक प्रतिष्ठ से परिचित थे। किन्तु वे सब के सब मन ही मन इन पिता-पुत्री की निन्दा करते हुए लौट गए। सुवर्चला शान्त भाव से अपने आश्रम में अन्तः प्रकोष्ठ में चली गयी। महर्षि को भगवद् विधान पर भारी आस्था थी। इसलिए उनका मन सदैव की ही भाँति शान्त रहा। महर्षि जानते थे कि जहाँ नियति का विधान अकाट्य है, वहीं तपस्वी का संकल्प भी अमोघ होता है। जब उनकी पुत्री के मन में यह विचित्र संकल्प उभरा है- तो सर्व समर्थ परमेश्वर को उसे पूरा ही करना पड़ेगा।
कुछ दिनों तक सब कुछ यथावत् चलता रहा। यहाँ तक कि स्वयं महर्षि भी ब्राह्मणों के आगमन को भूलने लगे। तभी एक दिन एक तेजस्वी तरुण महर्षि के यहाँ पहुँचा। उसने अपना परिचय देते हुए कहा- कि मैं ब्रह्मर्षि उद्दालक का पुत्र श्वेतकेतु हूँ। मेरे मन में आपकी पुत्री से मिलने की अभिलाषा है। मैं चाहता हूँ कि आपकी पुत्री भी अपना समाधान प्राप्त करें।
महर्षि देवल श्वेतकेतु के प्रभावी व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना न रह सके। उनके मन के एक कोने में श्वेतकेतु के प्रति आदरभाव भी उमड़ा। पर वे अपनी दृढ़ प्रतिज्ञ पुत्री की संकल्प निष्ठ से परिचित थे। उसे स्मरण कर उन्होंने श्वेतकेतु से कहा- वत्स! क्या तुम मेरी पुत्री की अटपटी शर्त से परिचित हो। श्वेतकेतु मुस्कराए और बोले- इसमें भला अटपटा क्या है।
श्वेतकेतु के इस आत्मविश्वास से अभिभूत महर्षि उन्हें अपने साथ लेकर सुवर्चला के पास पहुँचे। विदुषी सुवर्चला से इस आगमन का मन्तव्य छिपा न रहा। वह सदा की भाँति मुस्करायी और उसने बड़े ही गम्भीर स्वर में पूछा- द्विजश्रेष्ठ आप कौन हैं?
श्वेतकेतु ने उसी गम्भीरता से कहा- देवी! आपने मुझे द्विजश्रेष्ठ कहकर सम्बोधित किया है, फिर तुम किससे पूछ रही हो? सुवर्चला कहने लगी- मैं हृदय गुहा में शयन करने वाले महात्मा से पूछ रही हूँ।
श्वेतकेतु ने सरल चित्त उत्तर दिया- भामिनी! वह तो कुछ कहेगा नहीं। क्योंकि वह आत्मा नाम और गोत्र से रहित है। जिसे हम अहं (मैं) कहते हैं, वह हृदय गुफा में स्थित परमार्थ तत्त्व नहीं है।
सुवर्चला बोली- ब्रह्मर्षि! फिर आप नाना प्रकार के क्रिया कलाप वाले गृहस्थ धर्म में क्यों पड़ना चाहते हैं? क्योंकि इससे तो आपके ज्ञान के विलुप्त हो जाने की सम्भावना है।
श्वेतकेतु ने उसी प्रकार सहज भाव से कहा- देवि! श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करते हैं, वही दूसरे लोग भी करते हैं। फिर ब्रह्मवेत्ता जनों के लिए संचित प्रारब्ध का क्षय करना अनिवार्य है। बस हम भी अपने कर्म क्षय हेतु गृहस्थ धर्म को स्वीकार करना चाहते हैं।
अपने इन प्रश्नों के सटीक उत्तर सुनकर सुवर्चला को यह तो ज्ञात हो गया था कि वह जिससे बातें कर रही है, वह सामान्य ब्राह्मण नहीं अपितु ब्रह्मविद् है। फिर भी उसे अपनी शर्त का ज्ञान था। वह हर हाल में दृढ़ प्रतिज्ञ एवं संकल्पनिष्ठ थी। अपनी उसी संकल्प निष्ठ को याद करते हुए उसने श्वेतकेतु से पूछा- हे ऋषि कुमार! क्या आप मेरी प्रतिज्ञा से परिचित हैं।
सोऽहं भद्रे समागतः! अर्थात् भद्रे मैं वही हूँ, जिसे तुम चाहती हो। मैं तुम्हारे लिए ही आया हूँ।
श्वेतकेतु के इस कथन के बावजूद सुवर्चला के नेत्रों में जिज्ञासा थी। जिसका समाधान करते हुए श्वेतकेतु ने कहा- मैं अंधा हूँ, क्योंकि अपने मन में मैं अपने को सदा ऐसा ही मानता हूँ। फिर भी मैं सन्देह रहित हूँ, अतः मैं अन्धा नहीं हूँ।
अपनी बात की सिद्धि के लिए श्वेतकेतु ने आगे प्रमाण देते हुए कहा- ‘जिस परमात्मा की शक्ति से जीवात्मा सब कुछ देखता है, ग्रहण करता, स्पर्शादि करता है वह परमात्मा ही चक्षु कहलाता है। जो इस चक्षु से रहित है, अर्थात् परमात्मा को नहीं जानता, वह प्राणियों में अन्धा है। मैं यह जानता हूँ अर्थात् मैं अन्धा नहीं हूँ। किन्तु इस मायने में अवश्य अंधा हूँ कि जगत् जिन आँखों से देखता, जिस कान से सुनता, जिस त्वचा से स्पर्श करता, जिस नासिका से सूँघता, जिस रसना से रस ग्रहण करता है और जिसे लौकिक चक्षु से सारा बर्ताव करता है। उससे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। अर्थात् साँसारिक कल्मष युक्त व्यवहार से मेरा कोई नाता नहीं है। इसलिए मैं अन्धा हूँ। साथ ही मैं तुम्हारा भरण-पोषण करने में समर्थ हूँ। अतः तुम मेरा वरण करो।’
श्वेतकेतु की इन बातों से सन्तुष्ट होकर सुवर्चला बोल पड़ी- ‘मनसासि वृतो विद्वान, शेषकर्त्ता पिता मम।’ अर्थात् विद्वान! मन से मैंने आपका वरण किया। शेष कार्य की पूर्ति, अर्थात् विवाह कार्य करने वाले मेरे पिता हैं। अब आप मुझे उनसे माँग लीजिए। ‘एष्य वेद विधिक्रमः’ अर्थात् यही वेद मर्यादा है।
पुत्री के इस कथन से महर्षि देवल को तो नवप्राण मिले। वह तो पहले से ही श्वेतकेतु के व्यक्तित्व से प्रभावित थे। उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक सुवर्चला और श्वेतकेतु का विवाह सम्पन्न करवा दिया।
विवाह के अनन्तर श्वेतकेतु ने सुवर्चला से कहा- ‘शोभने! वेदों में जिन शुभ कर्मों का विधान है, मेरे साथ रहकर तुम उन सबका यथोचित रूप से अनुष्ठान करो और यथार्थ रूप से मेरी सहधर्मिणी बनो। हम दोनों ही ममता अहंकारादि से रहित होकर लोक व्यवहार को सिद्धि एवं आत्म कल्याण के लिए कर्त्तव्य कर्मों का अनुष्ठान करेंगे।’ श्वेतकेतु के इस कथन के साथ ही सुवर्चला ने नारी जीवन की मर्यादा को संसार से अपने जीवन के द्वारा सुप्रतिष्ठित करने ऋषि श्वेतकेतु के साथ गृहस्थ जीवन के लिए कदम बढ़ाया।