जीवन प्रभुमय बन जाए

November 2001

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उपासना का अर्थ- स्वयं को प्रभु के साथ जोड़ देना। चाहे यह सकाम उपासना के द्वारा हो या निष्काम के। इष्ट की समीपता के लिए नहीं, अपने अभीष्ट की याचना के निमित्त ही सही, प्रभु से हमारा जो संबंध जुड़ेगा, वही हमारे लिए अमूल्य निधि बन जाएगा।

अपने इष्ट से, भगवान से अपनी मनचाही चीज माँगने में कोई बुराई नहीं है, न ही इससे उपासना के नियमों की अवहेलना होती है। बुरा है तो यह कि हमारी माँगी हुई वस्तु ऐसी न हो, जिसमें जगत् के किसी भी प्राणी के लिए अमंगल या अहित की भावना हो। दूसरी बात यह कि मन में ‘प्रभु देंगे कि नहीं देंगे’ ऐसा संशय क्षण मात्र के लिए भी न आए। विश्वास किसी भी स्थिति में शिथिल नहीं होना चाहिए। विश्वास से हमारे अंदर अद्भुत शाँति एवं सहिष्णुता का संचार हो उठेगा। मन सर्वथा अनुद्विग्न एवं शाँत होकर एक अनिर्वचनीय आनंद से भर उठता है।

ऐसी स्थिति में दो बातों में एक बात अवश्य होगी या तो प्रभु हमें हमारी अभीष्ट वस्तु दे देंगे या हमारे मन से उस वस्तु के पाने की इच्छा को सदा के लिए मिटाकर हमें शाँति दे देंगे। साथ ही इससे अनजाने ही एक और बहुत बड़ा लाभ यह होगा कि हम जितने महीने, जितने दिन या जितने घंटे भी भगवान के समीप बैठे, किसी भी निमित्त उन्हें अपने हृदय में बसाया, वह इतनी मूल्यवान संपदा हस्तगत हो जाएगी कि जिसकी तुलना इस संसार के किसी भी पदार्थ से संभव नहीं। जैसे भी हो, किसी भी कारण हम प्रभु से जुड़ें, यही सार बात है।

प्रभु की सामर्थ्य तो अनंत, अपरिसीम है। भले ही प्रभु का अमित प्रभाव हमारी तर्कशील बुद्धि में स्थान न पावे। हम इस पर विश्वास न कर सकें, यह बात दूसरी है, पर इससे भगवान के साम्राज्य का अनंत वैचित्र्य मिटता नहीं है। जो सत्य है वह सत्य ही रहेगा। यह हम पर निर्भर करता है कि हम उसे मानें ढूंढ़ें, पहचानें या उसकी ओर से मुँह मोड़ें रहें। किन्तु बुद्धिमानी इसी में है कि हम दुराग्रह त्याग दें। यदि प्रभु के अस्तित्व में थोड़ा भी विश्वास है, तब यही परम कल्याणकारी साधन है कि प्रभु पर विश्वास और दृढ़ करते हुए उनकी समीपता हम जिस किसी निमित्त भी पाएं, इसमें लाभ-ही-लाभ है।

उपासना के समय परम शुभ भाव रख परमात्मा के साथ एकाकार हो जाने वाला साधक प्रभु को जितना प्रिय है, उतना ही उन्हें वह साधक भी प्रिय है, जो उनसे विश्वासपूर्वक कुछ माँग रहा है। भगवान के लिए यह कदापि संभव नहीं कि पहले का सम्मान करे और दूसरे की उपेक्षा। उनके लिए दोनों ही समान हैं। हाँ, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि पहला प्रभु की स्नेहधारा में बहकर अपनी यात्रा समाप्त करके प्रभु के आनंदरस सिंधु में निमग्न होने के लिए तट के अत्यंत समीप पहुँचा हुआ उनका प्रौढ़ पुत्र है और दूसरा उनकी स्नेह भरी गोद में खेलने वाला अबोध शिशु है, जो उनसे मिट्टी का एक खिलौना माँग रहा है।

यह सत्य है कि भगवान के साथ सर्वथा निष्काम संबंध ही उपासना का पवित्र आदर्श है। भगवान से कुछ भी माँगना वास्तव में अज्ञानता ही है। हमारे लिए जो भी आवश्यक है, उसे वे बिना माँगे ही आगे से आगे देते रहते हैं और देते रहेंगे। परमस्नेहमयी जननी की भाँति हमारे लिए सब कुछ वे पहले से ही सुव्यवस्थित कर रखते हैं। उनसे हम क्या माँगे क्यों माँगे? यह बुद्धि भी हमारे अंदर कहाँ कि हम यह निर्णय कर सकें कि हमें क्या चाहिए और क्या नहीं चाहिए, किन्तु जब हमें अभाव की अनुभूति हो रही है और प्रभु से विमुख होकर हम भटक रहे हैं, तब इस परिस्थिति में जो भी निमित्त हमें प्रभु से जोड़ सके, उसे अवश्य ग्रहण कर लेना चाहिए। यह संतों का अनुमोदित मत है कि जैसे भी हो हमारा झुकाव प्रभु की ओर हो जाए।


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